कोरोना लॉकडाउन: आठ करोड़ मज़दूर वापस नहीं लौटे तो क्या दिल्ली-मुंबई ठप हो जाएगी?
केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों की चिंता इस बात की है कि अगर मज़दूर वापस ना आए तो अर्थव्यवस्था का क्या होगा.
पहली तस्वीर है 24-25 मार्च को दिल्ली के आंनद विहार बस अड्डे की.
लॉकडाउन की घोषणा के साथ ही लोग अपने-अपने घर जाने के लिए बस स्डैंड की ओर निकल लिए.
दूसरी तस्वीर है 14 अप्रैल की. जब बांद्रा रेलवे स्टेशन पर प्रवासी मजदूर ट्रेन पकड़ने के लिए सैंकड़ों की संख्या में जुटे.
इसी आस में कि लॉकडाउन खत्म होने के बाद ट्रेन चलेगी.
तीसरी तस्वीर है एक मई की. जिस दिन केन्द्र सरकार ने श्रमिक ट्रेन चलाने का एलान किया और पहली ट्रेन तेलंगाना से झारखंड के बीच चली.
मार्च, अप्रैल और मई की इन तीनों तस्वीरों में एक बात जो एक जैसी थी- वो ये कि पिछले 50 दिन से प्रवासी मज़दूर दर-दर भटक रहें हैं ताकि अपने घर पहुंच सकें.
अब जाकर सरकार को इनके बारे में कुछ जानकारी मिली है.
वित्त मंत्री ने एलान किया है कि सरकार आठ करोड़ प्रवासी मज़दूरों के लिए अगले दो महीने तक खाने का इंतजाम कर रही है. इसके लिए 3500 करोड़ रुपये की राशि का एलान किया. उनके मुताबिक़ राज्य सरकारों से मिले डेटा के आधार पर हमें लगता है कि हमारे यहां 8 करोड़ प्रवासी मज़दूर हैं.
ये पहला मौक़ा है जब सरकार ने प्रवासी मज़दूरों का कोई आँकड़ा ख़ुद दिया है.
लेकिन ये अचानक नहीं हुआ. इसके पीछे केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की चिंता और डर दोनों है. चिंता इस बात की है कि अगर मज़दूर वापस ना आए तो अर्थव्यवस्था का क्या होगा? डर इस बात का है कि अर्थव्यव्स्था पटरी पर नहीं लौटी तो राज्यों और देश का क्या होगा?
'रिवर्स माइग्रेशन' क्या है?
दरअसल, मजदूर जब गाँव से शहर आए तो उसे हमने माइग्रेशन कहा और ऐसा करने वाले मज़दूरों को प्रवासी मजदूरों की संज्ञा दी गई.
अब जब उनके आय का ज़रिया ही नहीं बचा तो ये प्रवासी मज़दूर अपने गाँव वापस लौट रहे हैं, इस प्रक्रिया को जानकार अंग्रेजी में रिवर्स माइग्रेशन कह रहे हैं.
और यही है नेताओं और मंत्रियों के लिए असल चिंता का सबब.
कर्नाटक सरकार ने इस वजह से एक दिन बीच में मजदूरों को ले जाने वाली श्रमिक ट्रेन भी रोक दी थी. पंजाब के मुख्यमंत्री भी बीबीसी से बातचीत में इस पर चिंता जाहिर कर चुके हैं.
प्रधानमंत्री मोदी ने एलान कर दिया है कि 'लॉकडाउन 4' नए रूप रंग का होगा. इसमें पहले के तीन लॉकडाउन के मुकाबले ज्यादा छूट मिलने की बात चल रही है. ऐसे में जब फैक्ट्रियों में, खेतों में और घरों में दोबारा से काम करने की इनको इजाजत मिलेगी तो मजदूर कहां से आएंगे?
कहाँ-कहाँ से आते हैं प्रवासी मजदूर
'इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश और बिहार से प्रवासी मजदूर देश के दूसरे राज्यों में सबसे ज्यादा जाते हैं. फिर नंबर आता है मध्य प्रदेश, ओडिशा और झारखंड.
जिन राज्यों में ये काम की तलाश में जाते हैं उनमें से सबसे आगे है दिल्ली-एनसीआर और महाराष्ट्र. इसके बाद नंबर आता है गुजरात, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और पंजाब का.
रेल मंत्रालय के ताज़ा आंकड़े बताते हैं कि उन्होंने तकरीबन 10 लाख लोगों को उनके घर वापस पहुंचाने का काम किया है.
बसों से और पैदल अपने-अपने गाँव पहुंचने वालों की संख्या अगर हम तकरीबन 5 लाख मान लें तो शहरों में काम करने वाले तकरीबन 15 लाख मजदूर अपने गाँव लौट चुके हैं. यानी तकरीबन 20 फीसदी के आसपास लोग वापस लौट चुके हैं.
और तकरीबन इतनी ही संख्या में मजदूर अलग-अलग जगहों पर फंसे हैं. ऐसे में शहरों में इनका काम कौन करेगा. और यही है राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार का डर.
पंजाब, दिल्ली और महाराष्ट्र की मुश्किलें?
ये प्रवासी मजदूर सबसे ज्यादा खेतों में या फिर निर्माण कार्यों में मजदूरी करते हैं. वहाँ काम ना मिला तो फिर घरों और सोसाइटी में मेड और सुरक्षा गार्ड को तौर पर काम करते हैं. इसके आलावा एक बड़ा वर्ग कारखानों में भी काम करता है.
पंजाब का ही उदाहरण ले लें. यहां अभी खेतों में बुआई का काम शुरू होने वाला है. और वहाँ के खेतों में काम करने वाले ज्यादातर मजदूर अपने घर लौट चुके हैं. लेकिन किसानों को इसके लिए मजदूर नहीं मिल रहे. ऐसे में आने वाले दिनों में बड़ा संकट खेती पर आने वाला है जिसका सीधा असर अनाज की पैदावार पर पड़ेगा.
इसी समस्या को सेंटर फ़ॉर स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटीज़ (सीएसडीएस) के संजय कुमार दिल्ली के संदर्भ में समझाते हैं.
उनके मुताबिक दिल्ली में ऐसे मजदूरों की संख्या तकरीबन 25-27 फीसदी के आस-पास है. दिल्ली की आबादी अगर आप 2 करोड़ की मान लें तो तकरीबन 50 लाख लोग मजदूरी के काम में लगे हैं. इनमें से आधे यानी 25 लाख लोग भी चले गए गए तो दिल्ली का क्या होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है.
अर्थव्यवस्था ठप नहीं होगी...
तो क्या दिल्ली मुंबई जैसे शहरों में इन मजदूरों के बिना कामकाज ठप हो जाएगा?
इस पर संजय कुमार कहते हैं, मुश्किलें ज्यादा बढ़ जाएंगी लेकिन अर्थव्यवस्था ठप नहीं होगी क्योंकि हर व्यक्ति घर वापस नहीं जा रहा है. जिस दिन ऐसे सब मजदूर वापस चले जाएंगे, उस दिन अर्थव्यवस्था ठप पड़ सकती है.
संजय इसको अलग तरीके से समझाते हैं.
उनके मुताबिक आपको घरों में काम करने के लिए मेड नहीं मिलेंगे, ड्राइवर रखने के लिए ज्यादा पैसे ख़र्च करने पड़ सकता है. लोगों को मजदूरी पर रखने के लिए आपको और बेहतर सुविधाएं देनी पड़ेंगी. जिस राज्य से ये मजदूर निकल कर जा रहे हैं, वहां लेबर शॉर्टेज ज्यादा होगा. फिर डिमांड सप्लाई का गैप बढ़ेगा और फिर मजदूरी ज्यादा देना पड़ेगा.
पॉज़िटिव इम्पैक्ट
लेकिन प्रोफेसर राहुल घई का नज़रिया थोड़ा अलग है. प्रोफ़ेसर घई 'इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में छपे लेख 'माइग्रेशन एंड रिवर्स माइग्रेशन इन दि एज ऑफ कोविड19' के सह लेखक हैं. वे जयपुर के आईआईएचएमआर यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर भी हैं.
उनके मुताबिक रिवर्स माइग्रेशन को दो नज़रिए से देखा और समझा जा सकता है. उनके मुताबिक एक पॉज़िटिव इम्पैक्ट ये होगा कि शहरों में अलग तरह का औद्योगिकीकरण और शहरी विकास देखने को मिलेगा. मसलन मजदूरों की कदर बढ़ जाएगी, और उनके जीवन स्तर भी सुधर जाएगा.
लेकिन दूसरा नेगेटिव इम्पैक्ट भी है. उनके मुताबिक कम मजदूर होने पर हर मजदूर पर निगरानी ज्यादा बढ़ जाएगी. उनकी बारगेनिंग पॉवर कम हो जाएगी. श्रम क़ानून पर नकारात्मक असर भी पड़ सकता है.
यूपी-बिहार में क्या असर होगा?
लेकिन उन राज्यों का क्या, जहाँ लौट कर ये मजदूर वापस जा रहे हैं?
उन राज्यों के लिए संजय कुमार ज्यादा दिक्कत नहीं मानते.
उनके मुताबिक ऐसे राज्य बिहार और उत्तर प्रदेश में जा कर ये मजदूर 100 रुपया अगर कमाते थे तो अब एक दिन में 50 रुपये कमा कर गुज़ारा कर लेंगे. लेकिन सरकार पर एक तरह से वो बोझ नहीं बन रहे.
"राज्य सरकार के लिए चुनौती तब आएगी जब आप सर्वे करवाएंगे, तो अगले साल बिहार यूपी में बेरोज़गारी के आंकड़े बढ़े हुए मिलेंगे. चैलेंज बस इतना ही होगा उन राज्य सरकारों के लिए जहाँ ये मजदूर लौट कर जाते हैं."
दूसरा चैलेंज होगा कोरोना का ख़तरा गाँवों तक पहुंचने का. अब तक ये बीमारी शहरों में केन्द्रित थी. अब गाँवों में फैलने से रोकने राज्य सरकार के लिए चुनौती होगी.
समाधान क्या है?
क्या जो मजदूर शहर छोड़ कर गाँव में लौट रहे हैं, वापस शहर आएंगे. बीबीसी ने ये सवाल हर राज्य में मजदूरों लौटते मजदूरों से पूछा. ज्यादातर ने जवाब में यही कहा अभी कुछ महीने तो गाँव में ही हैं. अभी वापस नहीं जा रहे हैं.
लेकिन इस जवाब को अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के राजेन्द्रन राघवन अगल तरीके से देखते हैं.
उनके मुताबिक, "अगर आप ये सवाल दो दिन से भूखे-प्यासे चल सड़क पर चल रहे मजदूर से पूछेंगे तो उसका जवाब 'ना' होगा. लेकिन अगले ही पल आप उनसे एक हफ्ते का खाना दे कर पूछें कि अब आप वापस अपने गाँव लौटोगें, तो उनका जवाब शायद बदल जाए."
राजेन्द्र राघवन, एक्शन नेटवर्क से जुड़े हैं जो अलग अलग शहरों में फंसे मजदूरों के साथ मिल कर काम कर रहा है. उनको लगता है कि सरकार को इस समस्या से निपटने के लिए अभी से काम शुरू करना चाहिए.
उनकी मांग है कि सबसे पहले तो मनरेगा का बजट चार गुना ज्यादा बढ़ाया जाए. फिर जिन राज्यों में ये मजदूर वापस जा रहे हैं वहाँ सिर्फ 100 दिन काम देने से काम नहीं चलेगा. इस अवधि को भी बढ़ाना होगा. और मनरेगा को गाँवों तक सीमित ना रख के कुछ शहरों में इसका विस्तार करना चाहिए. इतना ही नहीं शहरों के लिए मनरेगा जैसा एक शहरी रोजगार गांरटी स्कीम की शुरूआत करना अब बेहद जरूरी है. तभी ये रिवर्स माइग्रेशन रोका जा सकेगा.