कोरोना: 46 घंटे की ट्रेन यात्रा, सिर्फ दो बार खाना और तीन बार पानी
बदरुद्दीन अंसारी चार दिन में मुंबई से वापस जसीडीह पहुंचे. जानिए उनकी यात्रा कैसी रही.
42 साल के बदरुद्दीन अंसारी मुंबई की एक गारमेंट फैक्ट्री में काम करते हैं. कोरोना के कारण लगाए हुए लॉकडाउन में उनका काम बंद हो गया. खाने-पीने तक की दिक्कत हुई, तो उन्होंने घर लौटना चाहा. रमज़ान का महीना चल रहा था. सो, वह चाहते थे कि ईद से पहले घर लौट जाएं. लेकिन उन्हें कोई ट्रेन नहीं मिल रही थी.
मुंबई के वडाला इलाके में रहने वाले बदरुद्दीन अंसारी ट्रेन में वापिस जाने की संभावना तलाशने के लिए रोज़ पुलिस चौकी जाते. वहां झारखंड की ट्रेन की पूछताछ करके वापस अपने कमरे पर लौट आते. करीब 20 दिनों तक उनकी यही दिनचर्या रही. तभी 19 तारीख की शाम उन्हें पुलिसवालों ने बताया कि 20 मई को एक ट्रेन झारखंड जाने वाली है. तब उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. उन्हें बताया गया कि वह श्रमिक स्पेशल ट्रेन कुर्ला जंक्शन से खुलेगी. इसके बाद क्या हुआ. पढ़िए उनकी कहानी, उन्हीं की जुबानी. यह कहानी बीबीसी के सहयोगी पत्रकार रवि प्रकाश की उनसे हुई बातचीत पर आधारित है.
22 साल का था, जब पहली बार बाम्बे (अब मुंबई) चला गया. नौकरी करने के वास्ते. मेरे इलाके के कई लोग वहां काम करते थे. तो कभी दिक्कत नहीं हुई. हम लोग अपने घर के पास के नज़दीकी रेलवे स्टेशन पारसनाथ से मुंबई तक की ट्रेन यात्रा 30 घंटे में पूरी कर लेते थे. कमाई भी होती रहती. पत्नी और दोनों बच्चे गांव में थे. सो मेरा आना-जाना होता रहता था.
आने-जाने में कभी दिक्कत नहीं हुई. यह पहली दफा था, जब हम लोग डर गए. कोरोना के कारण शक होता था कि घर पहुंच भी पाएंगे या नहीं. वीडियो कॉलिंग पर बच्चों को देख लेते और संतोष कर लेते. लेकिन, मन बहुत बेचैन था.
19 मई को वडाला पुलिस चौकी पर पुलिस वालों ने बताया कि 20 मई को मुंबई के कुर्ला जंक्शन से दोपहर 2 बजे एक ट्रेन झारखंड के जसीडीह जंक्शन जाएगी. उससे मैं घर वापस जा सकता हूं. मेरा नाम भी यात्रियों की लिस्ट में है. उस लिस्ट में गिरिडीह के और लोगों का भी नाम था.
मैंने झटपट अपना सामान पैक किया. सारी रात जागे हुए ही कट गई. सुबह-सुबह मुंबई महानगर ट्रांसपोर्ट की बस हमारे इलाके में लगा दी गई. उससे हमलोग कुर्ला पहुंचे. तब सुबह के सात बजे थे. हमारे वहा पहुंचने से पहले ही काफी लोग आ चुके थे. हमें एक बड़े से हाल में बैठाया गया. वहां करीब 500 लोग थे. वहीं पर हमें ट्रेन का टिकट दिया गया.
इसके लिए हमें कोई पैसा नहीं देना पड़ा था. कहा गया कि दोपहर 1 बजे तक ट्रेन में बैठ जाना है. हम लोगों ने वैसा ही किया.
कुर्ला स्टेशन पर मुझे सैनेटाइजर, मास्क, पानी की एक बोतल और खाने का पैकेट मिला. उसमें पाव-भाजी थी.
इसके बाद ट्रेन में चढ़ा. वह एक स्लीपर बोगी थी. किसी बोगी में 40, किसी में 50, तो किसी में उससे भी अधिक पैसेंजर चढ़े थे. मैं एक सीट पर आकर बैठ गया. मैं बहुत खुश था क्योंकि मैं ईद से पहले घर पहुंचने वाला था. लगा कि बस एक रात की बात है. घर पहुंच जाएंगे. फिर सब लोग साथ मिलकर ईद मनाएंगे. सेवईयां खाएंगे.
कुर्ला स्टेशन पर बहुत ही अच्छा माहौल था. सारे यात्री पहुंच चुके थे. इसलिए हमारी ट्रेन निर्धारित समय से दो घंटे पहले दोपहर 1.30 बजे ही खोल दी गई. सब कुछ साफ था और हम एक यादगार यात्रा पर निकले थे. तब ट्रेन की स्पीड भी ठीक थी. रात 9 बजे के करीब हमारी ट्रेन कटनी जंक्शन पहुंची. वहां हमें पानी की बोतल और खाने का पैकेट दिया गया. उसमें पूड़ी-भाजी थी. सब लोगों ने खाना खाया. कुछ लोग बात करते रहे तो कुछ सो गए.
मैं भी कुछ घंटे के लिए सो गया. तब नहीं पता था कि हमारी वहीं तक की यात्रा सुखद रहने वाली थी. अगली सुबह तक शौचालय गंदे हो चुके थे और कोई सफाई कर्मचारी नहीं था. किसी तरह हम लोगों ने उन्हीं शौचालयों का इस्तेमाल किया.
21 मई की सुबह के बाद ट्रेन की स्पीड कम हो गई. लगता था कि ट्रेन रेंग रही है. हर आधे-एक घंटे चलने के बाद हमारी ट्रेन कहीं पर भी रुक जाती थी. ट्रेन कुछ देर चलती और फिर रुक जाती. पूरे दिन ट्रेन ऐसे ही चलती रही. अगर प्लेटफार्म पर रुकती तो लोग कुछ खाने-पीने का भी इंतजाम करते. ट्रेन बीच में रुकती थी, तो कोई इंतजाम भी नहीं कर सकते थे. मेरे पास घर से लाया खाने का सामान था. तो उसी को मिल-बांट कर खा लिए.
पीने का पानी भी खत्म हो चुका था. किसी-किसी से पानी मांगकर पीते रहे. गर्मी के कारण पंखे की हवा भी गरम आने लगी. पूरे दिन ट्रेन ऐसे ही रुकती-चलती रही. कहीं-कहीं तो कई-कई घंटे रुकी रही. फिर सिग्नल मिलता. फिर खुलती, कुछ दूर चलती, फिर रुक जाती. शाम हुई, तो गर्मी से कुछ राहत मिली. रात होने पर ट्रेन की स्पीड भी ठीक हो गई. मैंने किसी तरह रात काटी. पूरे दिन कहीं पर भी खाने-पीने का कुछ उपाय नहीं था.
अगली सुबह (22 मई) 5 बजे के करीब हमारी ट्रेन पटना जंक्शन पर पहुंची. यहां पानी और बिस्किट का इंतजाम तो था लेकिन कोई देने वाला नहीं था. मैं जब ट्रेन से उतरा, तो मुझे सिर्फ पानी की बोतल ही मिल सकी. बिस्किट के डिब्बे खत्म हो चुके थे. लोगों में होड़ मची थी. किसी को पानी मिला तो किसी को बिस्किट. कोई भाग्यशाली रहा, तो उसे दोनों मिल गए.
मैं पानी की एक बोतल लेकर ट्रेन मे वापस आकर बैठ गया. तब तक ट्रेन कई घंटे देरी से चल रही थी. हमें बगोदर (गिरिडीह) जाना था. सुविधा होती तो पारसनाथ उतरते. ताकि आराम से घर पहुंच सकें.
लेकिन, ट्रेन वहां से लखसीराय, मोकामा, किउल होते हुए 11 बजे के करीब जसीडीह पहुंची. हम लोगों को तब तक ट्रेन में बैठे-बैठे 46 घंटे हो चुके थे. मैंने इससे पहले इतने घंटे कभी ट्रेन में लगातार नही गुजारे थे. यह मेरा पहला अनुभव था.
जसीडीह जंक्शन पर हमें पानी की बोतल और खाने का पैकेट दिया गया. इसमें पूड़ी-सब्जी थी. यहां से हमें बस पर चढ़ाया गया. वह लोगों को उतारते-उतारते बदोगर पहुंची. तब तक शाम हो गई थी. मैं बुरी तरह थक गया था.
20 मई की सुबह 4 बजे से ही तैयार हो रहा था. उस हिसाब से 60 घंटे से अधिक का समय लगाने के बाद मैं बगोदर उतरा. फिर अपने घर आया. बच्चों को देखा, तो सुकून मिला.
खुदा न करे किसी को दोबारा इतनी खराब परिस्थितियों में यात्रा करनी पड़े और ट्रेन इतनी लेट चले. 46 घंटे में हमें सिर्फ दो बार खाना और तीन बार पानी मिला.
ट्रेन में कई लोगों के छोटे-छोटे बच्चे थे. उन्होंने कितना कष्ट महसूस किया होगा, यह सोचकर मेरी रुह कांप जाती है.