COP14: बंजर हो रही ज़मीनें, 6 बातें जो आपको मालूम होनी चाहिये
बेंगलुरु। ग्रेटर नोएडा में स्थित इंडिया मार्ट एक्सपो में इस वक्त दुनिया भर से करीब 3 हजार वैज्ञानिक, पर्यावरणविद व तमाम क्षेत्रों से जुड़े विशेषज्ञ एकत्र हैं। संयुक्त राष्ट्र की इकाई यूनाइटेड नेशन्स कन्वेंशन टू कॉम्बैट डेज़र्टिफिकेशन (यूएनसीसीडी) द्वारा आयाजित इस सम्मेलन को नाम दिया गया है COP14। इसका मतलब कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज़, यहां पार्टी कोई और नहीं बल्कि दुनिया के अलग-अलग देश हैं, जहां के प्रतिनिधि इस सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन पर चर्चा कर रहे हैं। साइंस की कठिन भाषा से अलग हटकर हम आपको यहां यह बताने जा रहे हैं, कि किस तरह COP14 आपके लिये और हमारे लिये महत्वपूर्ण है। और कैसे यह हमारे जीवन में बड़े परिवर्तन ला सकती है।
पहले जानिए क्या है मुख्य विषय
इस कॉफ्रेंस के आयोजक, जो संयुक्त राष्ट्र की इकाई है, के नाम में ही इसका मुख्य विषय छिपा है। यूनाइटेड नेशन कन्वेंशन टू कॉम्बैट डेज़र्टिफिकेशन। डेज़र्टिफिकेशन यानी मरुस्थलीकरण। साधारण भाषा में कहें तो जमीनों का बंजर होना। वैज्ञानिकों के अनुसार जमीन पर उगने वाले पेड़-पौधे भारी मात्रा में कार्बन को सोख लेते हैं। थोड़ा बहुत नहीं बल्कि पृथ्वी के वातावरण में मौजूद प्रदूषण के एक तिहाई प्रदूषण को पेड़-पौधे अवशोषित कर लेते हैं। और हमें सांस लेने के लिये स्वच्छ हवा प्रदान करते हैं। अब विडम्बना यह है कि पूरी दुनिया में जिस गति से पेड़ काटे जा रहे हैं, वह एक चिंता का विषय बना हुआ है। अब तो नौबत यहां तक आ गई है कि अगर आज से पूरी दुनिया में एक भी पेड़ नहीं काटा जाये, तो भी प्रदूषण का प्रभाव कम नहीं होगा।
चलिये बात करते हैं इससे जुड़ी उन 6 बातों की जो आपको जरूर जाननी चाहिये-
1. खतरे में 100 करोड़ लोगों का रोजगार
अब तक जलवायु परिवर्तन के प्रभावों पर जब चर्चा होती थी, तो नदी-नहर व झीलों, ग्लेशियर आदि की बात होती थी, लेकिन अब मुद्दे ने नया मोड़ ले लिया है। जलवायु परिवर्तन का बहुत खराब प्रभाव लोगों के रोजगार पर पड़ रहा है। केवल मरुस्थलीकरण के कारण 100 देशों के 100 करोड़ लोगों का रोजगार खतरे में है। और यह संख्या तेज़ी से बढ़ रही है। भूमि के बंजर होने और मरुस्थलीकरण के कारण हर साल 490 बिलियन यूएस डॉलर का नुकसान होता है। अगर रुपए में परिवर्तित करें तो यह रकम करीब 37 लाख, 24 हजार करोड़ रुपए होगी।
2. मिल सकते हैं 1.4 ट्रिलियन डॉलर के आर्थिक लाभ
पूरी दुनिया में इस वक्त मंदी आ असर दिखाई दे रहा है। लोग नौकरियों से निकाले जा रहे हैं और आने वाले समय में यह सिलसिला कम भले ही हो जाये, लेकिन थमेगा नहीं। वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर दीर्घकालिक भूमि प्रबंधन के जरिये जमीनों को बंजर होने से रोका जाये, तो पूरी दुनिया को कुल 1.4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के लाभ मिल सकते हैं। यानी करीब 76 लाख करोड़ रुपए के लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं। ज़रा सोचिये अगर इस दिशा में किये जा रहे संयुक्त राष्ट्र के प्रयास सफल रहे, तो आने वाले समय में लगभग सभी देशों पर आर्थिक तंगी का प्रभाव कम हो सकता है। तब शायद नौकरियां भी बची रहें।
3. हर साल बर्बाद होती है 20 लाख हेक्टेयर हेक्टेयर उपजाऊ भूमि
यूएनसीसीडी के अनुमान के मुताबिक सालाना दो करोड़ टन अनाज पैदा करने की क्षमता वाली करीब एक करोड़ 20 लाख हेक्टेयर उपजाऊ जमीन मरुस्थलीकरण, भूमि के अपघटन और सूखे की भेंट चढ़ रही है। अगर इसे नहीं रोका गया, तो आने वाले समय में पूरी दुनिया को अनाज की कमी का सामना करना पड़ेगा। आपको बता दें कि जलवायु परिवर्तन के कारण जिस रफ्तार से तापमान बढ़ रहा है, उसे देखते हुए 2050 तक गेहूं, धान, जौ, मक्का और दालों की फसलों में 5 से 10 फीसदी की गिरावट दर्ज हो सकती है।
4. 17 करोड़ लोगों को नहीं मिलेगा पीने का पानी
आईपीसीसी की रिपोर्ट के अनुसार सूखी जमीन पर रहने वाली आबादी को पानी की किल्लत, गंभीर सूखे और पर्यावरण के खराब होने का खतरा हमेशा बना रहता है। दुनिया के तापमान में डेढ़ डिग्री सेल्सियस की बढ़ोत्तरी होने पर वर्ष 2050 तक 17 करोड़ 80 लाख लोग इतनी विषम परिस्थितियों में जीने को मजबूर होंगे, जिसका अंदाज़ा हम और आप अभी नहीं लगा सकते। उनके पास पीने का पानी तक नहीं होगा। और अगर तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई तो यह संख्या 22 करोड़ होगी। यही नहीं तापमान में 3 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होने पर दुनिया के 27 करोड़ 70 लाख लोग बर्बादी की कगार पर पहुंच जायेंगे।
5. 70 करोड़ लोगों को करना पड़ेगा पलायन
यूएनसीसीडी के मूल्यांकन के मुताबिक दुनिया की करीब आधी आबादी पहले से ही पानी के गंभीर संकट की आशंका वाले इलाकों में रह रही है। करीब दो अरब हेक्टेयर जमीन, जो कि चीन के आकार के दोगुने क्षेत्र के बराबर है, वह अब खराब हो चुकी है। मगर उसे फिर से बेहतर बनाया जा सकता है। जलवायु परिवर्तन से तालमेल होने पर लैंड डिग्रेडेशन के कारण 5 करोड़ से लेकर 70 करोड़ तक लोगों को वर्ष 2050 तक अपने-अपने इलाकों से मजबूरन पलायन करना पड़ सकता है। आपको बता दें कि भारत में चेन्नई, बेंगलुरु जैसे तमाम शहर हैं, जहां पीने के पानी का संकट पहले ही गहराया हुआ है।
6. भारत की 30% जमीन खराब स्थिति में
मरुस्थलीकरण को रोकने के मामले में अगर भारत की बात करें, तो हमारा देश ऐतिहासिक रूप से इस मामले में पिछड़ा रहा है और उसने इस प्रक्रिया में कभी भी मजबूत भूमिका नहीं निभाई है। टेरी के एक ताजा विश्लेषण से यह जाहिर होता है कि भारत की करीब 30% जमीन खराब स्थिति में है। इसके अलावा भूमि अपघटन की वजह से होने वाले सालाना आर्थिक नुकसानात सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के करीब ढाई प्रतिशत के बराबर पहुंच गए हैं। अगर केंद्र सरकार व राज्य सरकारों ने ठोस कदम नहीं उठाये तो ऊपर जिन घातक परिणामों की हमने चर्चा की है, उनका सबसे बड़ा शिकार भारत होगा। कारण जनसंख्या और लोगों में पर्यावरण के प्रति सजगता की कमी है।
किस पर चर्चा होगी COP14 में
दो सितंबर को यहां जलवायु परिवर्तन पर मंथन शुरू हुआ है, जो 13 सितंबर तक चलेगा। संयुक्त राष्ट्र की इकाई यूएनसीसीडी के द्वारा आयोजित इस विश्वस्तरीय कॉन्फ्रेंस का औपचारिक उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 9 सितंबर को करेंगे। सेंट विनसेंट के प्रधानमंत्री डा. राल्फ गोनसालवेज़, संयुक्त राष्ट्र के डिप्टी सेक्रेटरी जनरल अमीना जे मोहम्मद कोप14 के अध्यक्ष एवं भारत के पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री प्रकाश जावडेकर और यूनाइटेड नेशन्स कंवेंशन टू कॉम्बैट डिसर्टिफिकेशन इब्राहिम थ्यिॉ समेत वैज्ञानिकों को मौजूदगी साफ बयां कर रही है कि यह सम्मेलन कितना महत्वपूर्ण है।
इस सम्मेलन में चर्चा की जायेगी कि इन विषम परिस्थिति से बचने के लिए किस प्रकार की फौरी कार्रवाई करने की जरूरत है। कन्वेंशन में सभी देशों की सरकारों को सुझाव दिये जायेंगे किकैसे लैंड डिग्रेडेशन न्यूट्रलिटी (एलडीएन) हासिल की जाये। साथ ही इसे कन्वेंशन को लागू करने के लिए विविध स्रोतों से धन आकर्षित करने में मददगार के तौर पर भी देखा जा रहा है।
लैंड डिग्रेडेशन न्यूट्रलिटी टारगेट्स (एलडीएन) के तहत खराब हुई जमीनों को फिर से पहले की स्थिति में लाये जाने की योजना बनायी जा रही है। इसके अलावा यह भी चर्चा की जा रही है कि किस प्राकर अक्षय ऊर्जा की आसानी से उपलब्धता के साथ ग्रामीण अर्थव्यवस्था एक नई उड़ान भर सकती है।
पढ़ें- यानी भारत में कभी सस्ती नहीं होंगी खाने-पीने की चीजें