कांग्रेस सिर्फ़ किरदार बदलेगी या कलेवर भी?
"कांग्रेस जनता का मिजाज भांप नहीं सकी. पुलवामा की घटना के समय कांग्रेस चुप्पी में चली गई. वो सुरक्षा सेंध को लेकर सवाल नहीं उठा सकी. न सरकार का समर्थन कर सकी. कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर वैकल्पिक गठबंधन तैयार करने में भी नाकाम रही. धर्म और आस्था के मुद्दे पर कांग्रेस ने बीजेपी का अनुसरण करने की कोशिश की और जनता में उसका संदेश अच्छा नहीं गया."
2019 के आम चुनाव में हार के गहरे जख़्म झेलने वाली कांग्रेस को राजनीतिक पंडित बिना मांगे सलाह दे रहे हैं.
'अब सिर्फ केंचुल हटाने से काम नहीं चलेगा. कलेवर बदलना होगा.'
23 मई यानी आम चुनाव के नतीजे आने के पहले तक कांग्रेस भी बदलाव की बात कर रही थी. कर्नाटक में गठबंधन सरकार बनाने और छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान की राज्य सरकार से भारतीय जनता पार्टी को बेदखल करने से पार्टी नेताओं के हौसले बुलंद थे.
'न्याय योजना' को केंद्र में रखकर तैयार घोषणा पत्र के हवाले से देश की तस्वीर और तकदीर बदलने का दावा किया जा रहा था.
इस योजना को ज़मीन पर उतारने के लिए रकम के बंदोबस्त के सवाल पर राहुल गांधी से राज बब्बर तक "अंबानी और अडानी की जेब से पैसे निकालने" का दावा कर रहे थे.
हर तरफ खामोशी
नतीजे आने के बाद ऐसे तमाम नेता पर्दे के पीछे चले गए हैं. हवा बदलने का दम भरने वाले तमाम बड़े नेता हार की मार के बाद रिकॉर्ड पर आकर कुछ कहने को तैयार नहीं है. किसी का फ़ोन बंद है तो कोई सहयोगियों से 'मीटिंग में व्यस्त' होने की बात कहलवा रहा है.
लुका-छुपी बेवजह नहीं है. कांग्रेस की भारी भरकम कार्यसमिति के सदस्यों में से सिर्फ़ चार ही चुनाव जीत सके हैं. इनमें भी कांग्रेस अध्यक्ष दो सीटों में से एक ही सीट पर जीत हासिल कर पाए हैं. जिन तीन राज्यों में हाल में कांग्रेस ने सरकार बनाई थीं, वहां उसे 65 में से सिर्फ़ तीन सीटें मिली हैं.
धरातल से लेकर शिखर तक छाए सन्नाटे के बीच जो नेता बोलने का 'साहस' दिखा रहे हैं, वो भी राजनीतिक पंडितों की तरह पार्टी को 'आत्मचिंतन और बदलाव' की सलाह दे रहे हैं.
बीते साल कांग्रेस में दोबारा शामिल हुए तारिक अनवर हारे हुए उन नेताओं में हैं जिन्होंने चुनाव में कड़ा मुक़ाबला किया. उन्होंने बिहार की कटिहार सीट से पांच लाख से ज़्यादा यानी करीब 44 फ़ीसद वोट हासिल किए लेकिन अपनी सीट नहीं बचा सके.
तारिक़ अनवर का आकलन है कि कांग्रेस का 'संगठन चरमरा' गया है. वो दावा करते हैं कि संगठन की कमजोरी के ही चलते 'न्याय योजना' की बातें वोटरों तक नहीं पहुंच सकी.
'दिखावटी फ़ैसले प्रभावी नहीं होंगे'
राजनीतिक विश्लेषक भी मानते हैं कि संगठन की कमज़ोरी ने चुनाव में कांग्रेस की हार में सबसे बड़ी भूमिका निभाई.
वरिष्ठ पत्रकार विनोद शर्मा कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच तुलना करते हुए कहते हैं कि अपनी बात जनता तक पहुंचाने के लिए भारतीय जनता पार्टी को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की मदद मिलती है. बीजेपी संगठन में भी अमित शाह नरेंद्र मोदी के पूरक हैं. दोनों ने साथ मिलकर काम किया. ऐसे में कांग्रेस में एक आदमी सब काम कैसे कर सकता है?
वो कहते हैं, "अगर आप पीछे मुड़कर देखें कि क्या हुआ तो आपको लगेगा कि राहुल गांधी वो जनरल थे जिनके पास फुट सोल्ज़र (ज़मीनी सिपाही) नहीं थे. बिना सोल्ज़र के कोई जनरल जीतता है क्या? नहीं जीतता."
उधर, तारिक अनवर साफ़ तौर पर कहते हैं, "कॉस्मेटिक (दिखावटी) फ़ैसले लेने से कांग्रेस की स्थिति में बदलाव नहीं आएगा. उसको जड़ से ऊपर तक बदलने की आवश्यकता है."
लेकिन जब तारिक अनवर 'ऊपर तक' की बात करते हैं तो इसमें कांग्रेस अध्यक्ष पद शुमार नहीं है. वो राहुल गांधी के अध्यक्ष पद छोड़ने के पक्ष में नहीं हैं.
तारिक अनवर कहते हैं, "आज की तारीख में कांग्रेस के पास राहुल गांधी का विकल्प नहीं है. नेहरू-गांधी परिवार कांग्रेस के लिए एक सीमेंटिक फोर्स (जोड़कर रखने वाली ताक़त) है. दूसरा कोई ऐसा नेता नहीं है पूरी पार्टी जिसका नेतृत्व स्वीकार करे. ये नेतृत्व परिवर्तन का समय नहीं है."
सवालों में राहुल की रणनीति
तारिक अनवर के पहले कांग्रेस कार्यसमिति की ओर से जो आधिकारिक बयान जारी किया गया, उसके मूल में भी यही था.
इस बयान में कहा गया था, "कांग्रेस कार्यसमिति लोकसभा चुनाव नतीजों को आमूलचूल बदलाव और सांगठनिक फेरबदल के अवसर के तौर पर देखती है और इसके लिए कांग्रेस अध्यक्ष श्री राहुल गांधी को अधिकृत करती है."
लेकिन, विरोधी राहुल गांधी पर रियायत करने को तैयार नहीं. उत्तर प्रदेश की गोरखपुर सीट भारतीय जनता पार्टी की झोली में दोबारा डालने वाले रवि किशन सवाल कर चुके हैं, "जब ताली कप्तान को तो..."
कांग्रेस पर नज़र रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार भी मानते हैं कि आम चुनाव में कांग्रेस नेतृत्व की रणनीतियां सवालों में रहीं. ये रणनीतियां पिटीं और उनकी जवाबदेही बनती है.
वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई कहते हैं कि कांग्रेस ने जो भी प्रयोग किए वो सब आधे अधूरे थे. उसमें कोई वैचारिक रणनीति नहीं थी.
वो कहते हैं, "कांग्रेस जनता का मिजाज भांप नहीं सकी. पुलवामा की घटना के समय कांग्रेस चुप्पी में चली गई. वो सुरक्षा सेंध को लेकर सवाल नहीं उठा सकी. न सरकार का समर्थन कर सकी. कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर वैकल्पिक गठबंधन तैयार करने में भी नाकाम रही. धर्म और आस्था के मुद्दे पर कांग्रेस ने बीजेपी का अनुसरण करने की कोशिश की और जनता में उसका संदेश अच्छा नहीं गया."
अकेले चलते रहे राहुल?
राशिद किदवई कांग्रेस की प्रियंका गांधी को पूर्वी उत्तर प्रदेश की कमान थमाने के फ़ैसले पर भी सवाल उठाते हैं. राहुल गांधी ने प्रियंका को पूर्वी उत्तर प्रदेश और ज्योतिरादित्य सिंधिया को पश्चिमी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाते हुए दावा किया था कि कांग्रेस 'फ्रंटफुट पर खेलेगी'.
लेकिन, किदवई सवाल करते हैं, "प्रियंका गांधी को पूर्वी उत्तर प्रदेश में लाने का क्या मतलब था. प्रियंका गांधी राहुल गांधी के दो कदम पीछे चलती थीं. कांग्रेस के लोगों को हमेशा लगता था कि वो राहुल गांधी को ओवरशेडो न कर दें."
हालांकि, विनोद शर्मा राहुल गांधी के फ़ैसलों का बचाव करते हैं. उनकी राय है कि चुनाव के दौरान भारतीय जनता पार्टी ने 'राष्ट्रवाद-सैनिक और धार्मिक राष्ट्रवाद- का जो नैरेटिव जनता के सामने रखा, उससे कांग्रेस हार गई.'
वो दावा करते हैं कि पुलवामा और बालाकोट स्ट्राइक पर 'कांग्रेस ने जो सवाल उठाए वो जनता को जंचे नहीं.'
लेकिन साथ ही वो ये भी कहते हैं, "हारे हुए आदमी की आलोचना होती है. उसकी हर बात ग़लत लगती है. लेकिन ये बात तो सच है न कि इस चुनाव में राहुल गांधी ही अकेला आदमी खड़ा हुआ था जो मोदी जी के साथ मुक़ाबला करता नज़र आ रहा था. इस हारे हुए आदमी ने भी कुछ करके दिखाया है, भले ही उसे मनचाहा अंजाम न मिला हो."
'राहुल हटे तो कांग्रेस होगी मजबूत'
राशिद किदवई की राय है कि अंजाम बदलना है तो कांग्रेस को काम करने का अंदाज़ बदलना होगा.
वो कहते हैं कि अगर ये ख़बरें सहीं हैं कि राहुल गांधी पद छोड़ना चाहते हैं तो उनके इस फ़ैसले से कांग्रेस को ताक़त मिलेगी.
"लगता है कि राहुल गांधी को ये बात समझ आ गई है कि लेकिन परिवार से थक गए हैं. वैसे भी राहुल गांधी राजनीति से किनारा नहीं कर रहे हैं. वो सक्रिय रहेंगे."
हालांकि, मंगलवार को भी कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा ने उन अटकलों को खारिज किया जिनमें राहुल गांधी के पद छोड़ने पर अड़े होने का दावा किया जा रहा है.
पार्टी के अंदर जारी कश्मकश से अलग विनोद शर्मा की राय है कि अगर राहुल गांधी कांग्रेस को दोबारा मुक़ाबले में लाना चाहते हैं तो उन्हें खुद को बड़ी जिम्मेदारी के लिए तैयार करना होगा.
वो कहते हैं, "ये जरूरी नहीं कि राहुल गांधी पार्टी अध्यक्ष रहकर ही पार्टी की सेवा कर सकते हैं. आज राहुल गांधी को पार्टी चलाने की रोज की जिम्मेदारियों से मुक्ति लेकर पार्टी को ज़मीन पर मजबूत करने के लिए निकलना चाहिए."
विनोद शर्मा ये भी कहते हैं कि भारतीय जनता पार्टी में भी ऐसा होता रहा है.
वो कहते हैं, " राजनीति में पद से पावर नहीं आती. शक्ति हैसियत से आती है और हैसियत कांग्रेस पार्टी में गांधी परिवार की रहेगी. भले ही वो पार्टी का औपचारिक तौर पर नेतृत्व कर रहे हों या नहीं. नेतृत्व उन्हीं के हाथ में रहेगा. जैसे भारतीय जनता पार्टी में जब बंगारू लक्ष्मण पार्टी अध्यक्ष थे तब भी पार्टी की कमान अटल जी और आडवाणी जी के हाथ रहती थी."
हार के जोरदार झटके बाद हर मोर्चे पर कमज़ोर और भंगुर दिख रही कांग्रेस दोबारा कैसे खड़ी हो सकती है, इस सवाल पर पार्टी के अंदर ही नहीं बल्कि बाहर भी माथापच्ची हो रही है.
कई राजनीतिक विश्लेषकों की राय है कि मजबूत लोकतंत्र के लिए मजबूत विपक्ष ज़रूरी है.
लेकिन, सवालों में घिरे बड़े नेताओं, इस्तीफ़ों को लेकर लगातार चलती अटकलों, रणनीतिक खामियों और 'मोदी मैजिक' के सामने हौसला हार बैठे पार्टी कार्यकर्ताओं को लेकर कांग्रेस कैसे मजबूती हासिल कर सकती है, इस सवाल पर राशिद किदवई कहते हैं कि कांग्रेस को दोबारा मुख्यधारा में आने के लिए उन दलों की मदद लेनी चाहिए जो इस पार्टी की कोख से ही निकले हैं.
वो कहते हैं, "कांग्रेस को तृणमूल कांग्रेस, वाईएसआर कांग्रेस, तेलंगाना राष्ट्र समिति और एनसीपी को लेकर एक फ्रंट बनाने की कोशिश करनी चाहिए. कांग्रेस को इन्हें साथ रखने के लिए त्याग और बलिदान के लिए भी तैयार रहना चाहिए."
वहीं, विनोद शर्मा की राय है कि राजनीतिक दलों और राजनेताओं को खारिज करने का जोखिम नहीं लेना चाहिए.
वो याद दिलाते हैं, "1984 में बीजेपी दो सांसदों की पार्टी थी. 1996 में अटल जी 13 दिन वाले प्रधानमंत्री हो गए. 1998 में 13 महीने वाले और उसके बाद पौने पांच साल वाले प्रधानमंत्री हुए."
लेकिन बड़ा सवाल है कि क्या आज की कांग्रेस अटल, आडवाणी और मोदी का अक्स अपने किन नेताओं में देख रही है?