'जब लोग कहते थे इंदिरा देश छोड़कर भाग जाएंगी'
इंदिरा गांधी की शख़्सियत को याद कर रहे हैं अरबपति और ब्रिटेन के ऊपरी सदन के पूर्व सदस्य लॉर्ड स्वराज पॉल.
19 नवंबर को भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की जन्मशती है.
वो कैसी शख़्सियत थीं और देश के प्रति उनका दृष्टिकोण कैसा था इस पर बीबीसी ने भारतीय मूल के ब्रिटिश अरबपति बिज़नेसमैन और ब्रितानी संसद के ऊपरी सदन के सदस्य रह चुके लॉर्ड स्वराज पॉल से विस्तृत बातचीत की.
उन्होंने इंदिरा गांधी के बारे में बहुत सारी बातें बताईं और साथ ही यह भी कहा कि वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का स्टाइल बहुत हद तक इंदिरा से मिलता है.
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इंदिरा गांधी एक महान शख़्सियत थीं लेकिन लोगों को उनके बारे में कुछ ग़लतफ़हमी है. वो भ्रष्टाचार से नफ़रत करती थीं. उन्होंने बहुत ज़ोर लगाया कि भ्रष्टाचार बंद हो मगर व्यवस्था ऐसी हो गई थी कि हिंदुस्तान में कोई भ्रष्टाचार को ख़त्म नहीं करना चाहता था.
इंदिरा गांधी ने अप्रवासी भारतीयों के लिए अर्थव्यवस्था खोली. भारत के उद्योपति और व्यवस्था के लोग नहीं चाहते थे कि अप्रवासी यहां आएं क्योंकि स्थानीय अर्थव्यवस्था कुछ गिने चुने लोगों के हाथों में थी. उन्होंने हिंदुस्तान को पीछे रखा.
1983 में मैंने कहा था कि भारत एकमात्र ऐसा देश था जहां मालिक धनी और कंपनियां ग़रीब हैं, जिसे आप पायेंगे कि आज हो रहा है.
इंदिरा गांधी ने जब अप्रवासियों के लिए अर्थव्यवस्था खोली तब उनके वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी थे. बहुत कुछ हुआ, लेकिन मुझे यह लगता है कि इंदिरा ने जो भारत के लिए किया उसका उन्हें पूरा श्रेय नहीं मिला.
उन्होंने पूरे विश्व में भारत की छवि मज़बूत की और तब से केवल नरेंद्र मोदी ने ही भारत की छवि को और मज़बूत किया है. मज़ेदार बात तो यह है कि मोदी का स्टाइल देखें तो यह बहुत हद तक इंदिरा गांधी से मिलता है.
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इंदिरा जो न कर सकीं
मोदी ने भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ क़दम उठाया है. सौभाग्य से वो इसमें सफल भी हो रहे हैं. पूरी दुनिया में उनकी स्वीकृति है, इसे आप भारत में देख सकते हैं. बल्कि उसके लिए उनकी आलोचना भी हो रही है जो इंदिरा गांधी की भी हो रही थी. मगर उस वक़्त देश में बहुत से लोग व्यवस्था और उद्योग में बेहद शक्तिशाली थे. अभी मोदी ने उद्योगपतियों के हाथों की शक्तियों को कम किया है.
मुझे लगता है कि जो इंदिरा गांधी नहीं कर सकीं उसमें मोदी सफल हो रहे हैं.
मैं प्रधानमंत्री को सुझाव नहीं देता हूं क्योंकि पूरा देश उनका चयन करता है. और निश्चित ही उनमें कुछ न कुछ तो ख़ास है. लेकिन मेरे मुताबिक़, देश की तरक़्क़ी भ्रष्टाचार की नकेल कसने से ही होगी. इसके लिए इंदिरा गांधी ने बहुत कोशिश की लेकिन वो इसमें सफल नहीं हो सकीं.
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नॉन रीक्वायर्ड इंडियंस
जब मैंने भारत में निवेश करने की सोची तो एनआरआई शब्द मेरे लिए आया था. जिसका तब अर्थ था कि "नॉन रीक्वायर्ड इंडियंस." अगर भारत में एनआरआई को तब अनुमति मिल गई होती तो आज भारत की अर्थव्यवस्था कहीं और होती.
1990 में अर्थव्यवस्था खोलनी पड़ी क्योंकि आर्थिक परेशानी हो गई थी. मैं बताना चाहूंगा कि अप्रवासी भारतीय अपने देश में योगदान देने के लिए अधिक उत्सुक रहता है. हमें गर्व है.
अस्सी के दशक में बीसी वर्ल्ड सर्विस में आधे घंटे के इंटरव्यू के दौरान स्टीव रिचर्ड्स ने मुझसे पूछा था कि 'लॉर्ड पॉल आप कितने प्रतिशत भारतीय हैं, और कितने प्रतिशत ब्रिटिश हैं.' तो मैंने जवाब दिया कि 'मैं 100 फ़ीसदी भारतीय और 100 फ़ीसदी ब्रिटिश हूं. और इन दोनों पर ही मुझे गर्व है.' ऐसा ही अधिकतर अप्रवासी भारतीयों का सोचना भी है. मोदी सफल हो रहे हैं, वो इसके लिए बहुत दृढ़ हैं और हम यही चाहते हैं.
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तानाशाह कहे जाने से दुखी थीं इंदिरा
इंदिरा गांधी को लोग बहुत कठोर शख़्सियत वाला मानते थे. लेकिन वो एक महान शख़्सियत थीं. उनको बहुत दुख हुआ था जब उन्हें तानाशाह कहा गया.
मेरी उनसे पहली मुलाक़ात 1957 में हुई थी, जब मैं उस समय के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मिलने गया था लेकिन उस समय इंदिरा जी से सिर्फ़ नमस्ते करने तक की मुलाक़ात हुई थी.
उसके बाद अपनी बीमार बेटी का इलाज कराने के लिए मैं लंदन आ गया था. मेरी बेटी की हालत ऐसी नहीं थी कि मैं उसे भारत वापस ले जाऊं और भारत में रह रहे परिवार के दूसरे लोगों से मिले हुए भी बहुत वक़्त हो गया था.
परिवार के लोगों ने लंदन आने की कोशिश की थी लेकिन उस समय एयर इंडिया का टिकट ख़रीदने के लिए भी भारतीय रिज़र्व बैंक की इजाज़त लेनी पड़ती थी.
ऐसे में मैंने इंदिरा जी को एक चिट्ठी लिखी कि बच्चों को मिलना चाहते हैं. मुझे आश्चर्य हुआ जब मुझे पता चला कि लंदन स्थित भारतीय दूतावास के लोग मुझे खोज रहे थे कि आपका काम हो गया है, आप अपने बच्चों को यहां बुला सकते हैं.
इमरजेंसी इंदिरा का फैसला नहीं
एक प्रधानमंत्री होते हुए उन्होंने एक आम आदमी की चिट्ठी पर तुरंत कार्रवाई की. इससे ज़्यादा नम्रता और क्या हो सकती है.
उनसे असल मुलाक़ात तो 1971 में हुई जब बांग्लादेश बन जाने के बाद वो लंदन आईं थीं. उस वक़्त पश्चिमी मीडिया उनके ख़िलाफ़ था. मैंने मीडिया को ये बताने की कोशिश की थी कि इंदिरा जी ने जो किया वो बिल्कुल सही थी.
इसके बाद से हम दोनों की दोस्ती का सिलसिला शुरू हुआ.
1975 में जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उनके चुनाव को रद्द क़रार दिया तो मैं उस समय भारत में ही था.
इमरजेंसी लगाने का फ़ैसला उनका नहीं था, लेकिन उनके सलाहकारों ने उनपर दबाव डालकर ये फ़ैसला करवाया था. हालांकि उनकी सोच बिल्कुल साफ़ थी कि बहुत थोड़े समय के लिए इमरजेंसी लागू की जा रही है.
फूल से खुश हो जाती थीं
1977 में जब वो चुनाव हार गईं और जनता पार्टी की सरकार बन गई तो कई लोग कहते थे कि वो मैदान छोड़ कर भाग जाएंगी और देश छोड़ कर भी कहीं चली जाएंगी. लेकिन उनका ये दृढ़विश्वास था कि वो कहीं नहीं जाएंगी और अपने राजनीतिक विरोधियों से यहीं मुक़ाबला करेंगी.
1978 में चिकमंगलूर का उपचुनाव जीतकर जब वो लोकसभा सांसद बन गईं तो मैंने उन्हें लंदन आने की दावत दी और वो लंदन आईं. यहां की मीडिया और कई राजनेता उनके ख़िलाफ़ थे.
मैंने उनको कई सांसदों और लेबर पार्टी प्रमुख माइकल फ़ुट समेत कई राजनेताओं से मुलाक़ात करवाई, ब्रिटेन में रह रहे भारतीयों से उनकी मुलाक़ात करवाई और जिस तरह से उनका स्वागत किया गया मैं आश्वस्त हो गया था कि लोगों से उनका संपर्क टूटा नहीं है.
वो हद से ज़्यादा ईमानदार थीं, उनसे मिलने जाता था तो केवल फूल लेकर और वो इससे बहुत ख़ुश होती थीं.
(बीबीसी संवाददाता इक़बाल अहमद से बातचीत पर आधारित.)