पहले भी हो चुकी है कांग्रेस में बगावत, हर बार गांधी परिवार ने जीत ली पार्टी के अंदर जंग
नई दिल्ली। कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक से पहले 23 वरिष्ठ कांग्रेस कांग्रेस नेताओं ने पत्र लिखकर कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी से पार्टी में शीर्ष से नीचे के स्तर तक बदलाव की मांग की गई है। पत्र लिखने वालों में कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री, वर्किंग कमेटी के सदस्य, मौजूदा सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री शामिल हैं। इसके बाद सोनिया गांधी ने इस्तीफा देने की इच्छा जाहिर की है जिसके बाद पार्टी में बड़े स्तर पर नेता सोनिया गांधी के समर्थन में सामने आए हैं। पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी समेत कई नेताओं ने इस पत्र को भाजपा नेताओं को फायदा पहुंचाने वाला बताया है। वहीं पत्र लिखने वाले नेताओं ने कहा है कि उन्होंने संगठन को मजबूत बनाने के लिए चिठ्ठी लिखी है। यही नहीं पत्र लिखने वाले नेताओं ने अपने पदों से इस्तीफा देने की पेशकश भी कर दी।
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पत्र लिखने वाले नेताओं का विरोध
पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के पत्र के बाद कांग्रेस दो धड़ों में बंटी नजर आ रही है लेकिन कांग्रेस के 135 साल के इतिहास में ये पहला मौका नहीं है जब पार्टी के अंदर इस तरह की बात उठी हो। हां ये बात जरूर है कि इस बार जब पार्टी के 23 नेताओं ने नेतृत्व में बदलाव की मांग को लेकर सवाल उठाया है तो कांग्रेस अपने सबसे मुश्किल दौर में है। पार्टी को दो लोकसभा चुनावों में लगातार हार का सामना करना पड़ा है। पार्टी को 100 से भी कम सीटें ही मिल पाईं हैं। ऐसे में नेताओं के पत्र ने नरेंद्र मोदी के खिलाफ सोनिया-राहुल के नेतृत्व क्षमता को लेकर सवाल तो जरूर ही खड़े कर दिए हैं। ऐसे ही सवाल पहले भी खड़े हुए हैं जब गांधी परिवार से बाहर पार्टी नेतृत्व को ले जाने की बात आई। आइए इस रिपोर्ट में देखते हैं कि तब गांधी परिवार ने कैसे पार्टी पर अपनी पकड़ मजबूत की।
1966: जब इंदिरा गांधी पीएम बनीं
जनवरी 1966 में ताशकंद में हुए भारत और पाकिस्तान के बीच हुए ऐतिहासिक ताशकंद समझौते के बाद प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की अचानक मृत्यु हो गई। इससे कांग्रेस के सामने शास्त्री का उत्तराधिकारी चुनने की चुनौती सामने आई। सबसे बड़े दावेदारों में उस समय मोरारजी देसाई थे जो इससे पहले लाल बहादुर शास्त्री के मुकाबले प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए थे। यहां पार्टी के पुराने नेताओं ने मोरारजी के मुकाबले उस समय की सूचना और प्रसारण मंत्री और राज्यसभा सांसद इंदिरा गांधी को सपोर्ट किया। कांग्रेस के दिग्गज नेता के कामराज का इसमें बड़ा हाथ रहा। कामराज ने पार्टी के बड़े नेताओं का समर्थन इंदिरा गांधी को दिलाया और एक बार फिर मोरार जी को मात खानी पड़ी। इंदिरा गांधी 180 वोट से जीत गईं। उन्हें पार्टी का अध्यक्ष चुना गया और जल्द ही उन्होंने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली।
1969: पार्टी पर इंदिरा को पकड़ हुई मजबूत
1967 के आम चुनावों में कांग्रेस को लगभग आधे राज्यों में हार का सामना करना पड़ा था। पार्टी में आंतरिक संघर्ष बढ़ गया था। इसकी शुरुआत तब हुई जब इंदिरा गांधी ने पांचवे राष्ट्रपति पद के चुनाव में पार्टी के प्रत्याशी के खिलाफ वीवी गिरि को अपना प्रत्याशी बनाया और उन्हें जिता दिया। कई महीनों तक पार्टी में संघर्ष के बाद उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष एस निजलिंगप्पा ने नवम्बर 1969 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पार्टी से ये कहते हुए निकाल दिया कि इंदिरा पार्टी में व्यक्तिवाद को बढ़ावा दे रही हैं। पार्टी के पुराने नेता जिन्हें उस समय सिंडिकेट कहा जाता था इंदिरा से बेहद नाराज थे। वे इंदिरा को गूंगी गुड़िया कहा करते थे।
इंदिरा को हटाए जाने के बाद कांग्रेस पार्टी की संसदीय बैठक में उनके पक्ष में जबर्दस्त सपोर्ट निकलकर सामने आया। नतीजा हुआ कि पार्टी टूट गई लेकिन इंदिरा वामपंथियों और डीएमके की मदद से अपनी सरकार बचाने में सफल रहीं। 1971 के लोकसभा चुनाव में भारी जीत के साथ ही इंदिरा ने पार्टी के अंदर भी जंग जीत ली और उनके नेतृत्व पर मुहर लग गई।
मि. क्लीन वीपी सिंह ने बढ़ाई मुश्किल
पार्टी में एक बड़ा भूचाल तब आया जब मिस्टर क्लीन के नाम से कहे जाने वाले कांग्रेस के बड़े नेता वीपी सिंह ने मंत्रिमण्डल से इस्तीफा दे दिया। वीपी सिंह इसके पहले केंद्रीय वित्त मंत्री रहते हुए हाई प्रोफाइल बोफोर्स मामले की जांच की निगरानी की थी। वीपी सिंह ने प्रधानमंत्री राजीव गांधी को चुनौती देने के लिए जनता दल नाम से पार्टी बनाई। इसमें आरिफ मोहम्मद खान भी शामिल हो गए जो शाह बानो केस मामले में पार्टी से नाराज होकर इस्तीफा दे चुके थे। इसके साथ ही वीपी सिंह को राज्य के बड़े नेताओं जैसे उड़ीसा के बीजू पटनायक और कर्नाटक के रामकृष्ण हेगड़े का साथ मिला। 1989 के आम चुनावों में वीपी सिंह ने राजीव गांधी को हरा दिया और बीजेपी के सपोर्ट से प्रधानमंत्री बने।
सोनिया गांधी की कांग्रेस में एंट्री
1991 में राजीव गांधी की मौत के बाद कांग्रेस पार्टी की बागडोर गांधी परिवार के हाथ से निकलकर पार्टी के दूसरे नेताओं के हाथ में रही। 1997 में पार्टी नेताओं के भारी दबाव के चलते सोनिया गांधी ने घोषणा की कि वे 1998 के आम चुनावों में पार्टी के लिए प्रचार करेंगी। उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष सीताराम केसरी ने सोनिया गांधी को दिसम्बर 1997 में पार्टी की सदस्यता दिलाई। इस बीच पार्टी के दूसरे नेता सोनिया गांधी को अध्यक्ष बनाना चाहते थे लेकिन केसरी इसके लिए तैयार नहीं थे। आखिरकार 14 मार्च 1998 को कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने 82 साल के सीताराम केसरी को पार्टी अध्यक्ष पद से हटाने के लिए एक प्रस्ताव पास किया और सोनिया गांधी को अध्यक्ष बना दिया। जब सोनिया गांधी पार्टी की कमान अपने हाथ में ले रहीं थीं तब सीताराम केसरी को 24 अकबर रोड स्थित कांग्रेस मुख्यालय के एक कमरे में बंद कर दिया गया ताकि कोई हंगामा न हो सके। प्रणब मुखर्जी ने सीडब्ल्यूसी का प्रस्ताव पढ़ा जिसमें सीताराम केसरी को धन्यवाद दिया गया और सोनिया गांधी को अगला पार्टी अध्यक्ष चुने जाने की घोषणा की गई।