बंगाल में दो सीटों के लिए दांव पर लगा कांग्रेस-सीपीएम तालमेल
राजनीतिक विश्लेषक विश्वनाथ पंडित कहते हैं, "कांग्रेस मालदा में होने वाले नुकसान की भरपाई रायगंज और मुर्शिदाबाद से करना चाहती है. लेकिन अपना वजूद बचाने के लिए जूझ रही सीपीएम उन दोनों सीटों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है." वर्ष 2011 के बाद बंगाल में कांग्रेस और सीपीएम के पैरों तले की जमीन लगाता खिसकती रही है. बीजेपी के प्रदेश राजनीति में तेज़ उभार ने कांग्रेस को तीसरे और सीपीएम को चौथे स्थान पर धकेल दिया है. ऐसे में यह चुनाव इन दोनों दलों के लिए वजूद की लड़ाई बन गया है.
पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और सीपीएम के बीच प्रस्तावित चुनावी तालमेल की राह में दो सीटें -रायगंज और मुर्शिदाबाद- सबसे बड़ी बाधा बनी हुई हैं. पिछली बार ये दोनों सीटें सीपीएम ने जीती थीं. लेकिन इनको कांग्रेस का पारंपरिक गढ़ माना जाता रहा है.
अब कांग्रेस इन सीटों पर दावा कर रही है तो सीपीएम भी इनको छोड़ने को तैयार नहीं है. सीपीएम ने तो इन सीटों पर अपने उम्मीदवारों का एलान भी कर दिया है.
इससे तालमेल का मुद्दा उलझता जा रहा है. वैसे, इस तालमेल के मुद्दे पर दोनों दलों को अपने अंतर्विरोधों से भी जूझना पड़ रहा है. लेफ्ट फ्रंट के घटक दलों के अलावा सीपीएम का एक गुट भी कांग्रेस से तालमेल के खिलाफ है तो दूसरी ओर कांग्रेस का एक गुट भी अकेले मैदान में उतरने के पक्ष में है.
इन दोनों दलों के बीच लंबे समय से चुनावी तालमेल की बातचीत चल रही थी. लेकिन दो सीटों पर मामला उलझने की वजह से अब तक यह बातचीत किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकी है.
इसबीच, शायद कांग्रेस पर दबाव बढ़ाने की मंशा से ही सीपीएम ने उन दोनों सीटों पर अपने उम्मीदवारों का एलान भी कर दिया है. इससे पहले सीपीएम की बैठक के बाद प्रदेश महासचिव सूर्यकांत मिश्र ने साफ़ कर दिया था कि पिछली बार जीती गई कांग्रेस की चार और सीपीएम की दो सीटों पर कोई दोस्ताना लड़ाई नहीं होगी.
दरअसल, सीपीएम ने पिछली बार जो दो सीटें—रायगंज और मुर्शिदाबाद जीती थीं, उनको लंबे अरसे से कांग्रेस का गढ़ माना जाता है. रायगंज सीट पर पहले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता प्रियरंजन दास मुंशी जीतते रहे थे और उसके बाद वर्ष 2009 में उकी पत्नी दीपा दासमुंशी ने यह सीट जीती थी. लेकिन वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी के कांग्रेस के वोट बैंक में मजबूत सेंध लगाने की वजह से चौतरफ़ा लड़ाई में सीपीएम के मोहम्मद सलीम महज 16 सौ से कुछ ज्यादा ज्यादा वोटों के अंतर से यह सीट जीत गए थे.
पिछली बार रायगंज सीट पर मोहम्मद सलीम को जहां 29 फ़ीसदी वोट मिले थे वहीं कांग्रेस की दीपा दासमुंशी को 28.50 फ़ीसदी. लेकिन बीजेपी का वोट वर्ष 2009 के 4.19 फीसदी के मुकाबले चार गुने से ज़्यादा बढ़ कर 18.32 फ़ीसदी तक पहुंच गया. यही कांग्रेस की हार की मुख्य वजह बनी. लेकिन अबकी कांग्रेस इन दोनों सीटों को छोड़ने को तैयार नहीं हैं.
दूसरी ओर, सीपीएम ने भी साफ़ कर दिया है कि वह इन सीटों पर कोई समझौता नहीं करेगी. लेफ्ट फ्रंट के चेयरमैन विमान बसु कहते हैं, "हमने उन दोनों सीटों पर अपने उम्मीदवारों के नाम का एलान कर दिया है. हम उन चार सीटों पर अपना कोई उम्मीदवार नहीं उतारेंगे जो पिछली बार कांग्रेस ने जीती थीं." लेकिन क्या इससे तालमेल में रुकावट नहीं आएगी? इस सवाल पर बसु का कहना है कि पिछली बार जीती सीटों के अलावा बाकी सीटों को लेकर तालमेल की संभावना बनी हुई है.
दूसरी ओर, प्रदेश कांग्रेस ने भी इन दोनों सीटों की रट लगा रखी है. प्रदेश अध्यक्ष सोमेन मित्र ने पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी को एक पत्र भेज कर इस मुद्दे पर सीपीएम के केंद्रीय नेतृत्व से बात करने का अनुरोध किया है. उन्होंने हाल में दिल्ली जाकर राहुल से मुलाकात भी की थी. कांग्रेस की दलील है कि वर्ष 2014 में मुकाबला चौतरफ़ा होने की वजह से उसके उम्मीदवार बहुत कम अंतर से पराजित हुए थे. लेकिन अबकी पार्टी को वहां जीत का पूरा भरोसा है.
मित्र कहते हैं, "मैंने आलाकामन को ज़मीनी हक़ीक़त और पार्टी के नेताओं-कार्यकर्ताओं की इच्छा से अवगत करा दिया है. अब फ़ैसला उनको लेना है." वह कहते हैं कि राज्य के ज्यादातर नेता और कार्यकर्ता अपने गढ़ रहे रायगंज और मुर्शिदाबाद सीटों पर चुनाव लड़ने के इच्छुक हैं.
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मित्र कहते हैं, "हम नहीं चाहते कि सीपीएम के साथ तालमेल मौकापरस्ती लगे. हम दीर्घकालीन तालमेल चाहते हैं जो कम से कम अगले विधानसभा चुनावों तक जारी रहे." उनका कहना है कि अगर ऐसा नहीं हुआ तो कांग्रेस अकेले ही लोकसभा चुनाव लड़ेगी. वरिष्ठ कांग्रेसी और विधानसभा में विपक्ष के नेता अब्दुल मन्नान कहते हैं, "बीजेपी की बढ़त रोकने के लिए सीपीएम के साथ तालमेल जरूरी है. लेकिन इसके लिए रायगंज और मुर्शिदाबाद जैसी कांग्रेस गढ़ की क़ुर्बानी नहीं दी जा सकती."
वैसे, इन दोनों दलों के बीच वर्ष 2016 के विधानसभा चुनावों में भी तालमेल हुआ था. लेकिन उससे कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ था. तब लेफ्ट को महज 32 सीटें मिली थीं और कांग्रेस को 44 सीटें.
लेफ्ट के घटक दल भी कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने को लेकर आशंकित हैं. उनकी दलील है कि बीते महीने ब्रिगेड रैली में लेफ्ट की रैली में जुटने वाली भीड़ से साफ है कि पार्टी का जनाधार मज़बूत हो रहा है. ऐसे में उसे किसी बैसाखी का सहारा लेने की ज़रूरत नहीं है.
आरएसपी महासचिव क्षिति गोस्वामी कहते हैं, "हम अकेले ही बेहतर प्रदर्शन कर सकते हैं. हमें कांग्रेस के सहारे की ज़रूरत नहीं है." फ़ॉरवर्ड ब्लॉक के प्रदेश सचिव नरेन चटर्जी कहते हैं, "वर्ष 2016 में हुए तालमेल से कांग्रेस को ही फ़ायदा हुआ था. ऐसे में वही ग़लती दोहराने का कोई मतलब नहीं है."
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि तालमेल दोनों दलों की मजबूरी है. लेकिन दोनों फ़िलहाल सियासी फ़ायदे के लिए एक-दूसरे पर दबाव बनाने का प्रयास कर रहे हैं. कांग्रेस को पिछली बार चार सीटें मिली थीं. लेकिन अब मालदा उत्तर की सांसद मौसम नूर के तृणमूल कांग्रेस में चले जाने की वजह से वह सीट ख़तरे में है.
राजनीतिक विश्लेषक विश्वनाथ पंडित कहते हैं, "कांग्रेस मालदा में होने वाले नुकसान की भरपाई रायगंज और मुर्शिदाबाद से करना चाहती है. लेकिन अपना वजूद बचाने के लिए जूझ रही सीपीएम उन दोनों सीटों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है." वर्ष 2011 के बाद बंगाल में कांग्रेस और सीपीएम के पैरों तले की जमीन लगाता खिसकती रही है. बीजेपी के प्रदेश राजनीति में तेज़ उभार ने कांग्रेस को तीसरे और सीपीएम को चौथे स्थान पर धकेल दिया है. ऐसे में यह चुनाव इन दोनों दलों के लिए वजूद की लड़ाई बन गया है.
वरिष्ठ पत्रकार तापस मुखर्जी कहते हैं, "ममता ने पहले ही राज्य की सभी 42 सीटें जीतने का दावा किया है. दूसरी ओर, बीजेपी भी 23 से 26 सीटें जीतने के दावे के साथ आगे बढ़ रही है. ऐसे में कांग्रेस और सीपीएम के सामने भारी मुश्किल पैदा हो गई है."
अब लाख टके का सवाल है कि क्या चुनावी वैतरणी पार करने के लिए यह दोनों दल एक-दूसरे का हाथ थामेंगे? मुखर्जी कहते हैं कि राहल गांधी और सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी के बीच बातचीत से शायद इस सवाल का जवाब निकले. लेकिन एक-दूसरे का हाथ थामना दोनों दलों की मजबूरी है.