मां के निधन की खबर सुनकर घर जाने के लिए निकल पड़ा जवान, 1100 KM की दूरी तय कर इस तरह पहुंचा मिर्जापुर
रायपुर। कोरोना वायरस के मद्देनजर पूरे देश में लॉकडाउन है और इस दौरान ट्रेन, बस और प्लेन आदि की सेवाएं स्थगित हैं। लॉकडाउन में सुरक्षाकर्मियों की जिम्मेदारी और भी बढ़ गई है तो साथ ही उनको मुश्किलों का भी सामना करना पड़ रहा है। लॉकडाउन में ही छत्तीसगढ़ में तैनात सशस्त्र बल के एक जवान की मां का निधन हो गया, जिसके बाद जवान तमाम मुश्किलों का सामना करते हुए 1100 किलोमीटर की यात्रा कर अपने घर पहुंचा।
मां की मौत की खबर सुनने के बाद मिर्जापुर जाने के लिए निकला जवान
जवान संतोष यादव ने 2009 में छत्तीसगढ़ सशस्त्र बल ज्वाइन किया था और वह बीजापुर जिले के नक्सल प्रभावित इलाके में तैनात हैं। संतोष बताते हैं कि 4 अप्रैल को उनके पिता का फोन आया और उन्होंने मां की तबीयत बिगड़ने की खबर दी। इसके बाद उन्होंने मां को अस्पताल में भर्ती कराने को कहा। अगले दिन जवान की मां को वाराणसी के एक अस्पताल में भर्ती कराया गया जहां शाम को उनका निधन हो गया। जवान संतोष यादव ने कहा कि वे मां की मौत की खबर सुनने के बाद अपने घर पहुंचना चाहते थे।
लॉकडाउन के कारण घर पहुंचना आसान नहीं था
उन्होंने बताया, 'मेरा छोटा भाई और एक बहन मुंबई में रहते हैं और लॉकडाउन के कारण उनका घर पहुंचना संभव नहीं था, ऐसे में मैं अपने पिता को अकेला नहीं छोड़ सकता था।' संतोष बताते हैं कि कमांडिंग ऑफिसर ने उनको छुट्टी दे दी लेकिन लॉकडाउन के कारण उनके लिए घर पहुंचना आसान नहीं था। इसके बाद वह 7 अप्रैल को अपने मिर्जापुर स्थित अपने गांव सीकर जाने के लिए निकल पड़े। सबसे पहले वे रायपुर पहुंचना चाहते थे ताकि वहां से आगे के लिए कुछ इंतजाम हो सके।
मालगाड़ी, नाव और फिर पैदल चलकर पहुंचे गांव
संतोष बताते हैं कि सबसे पहले एक साथी ने उन्हें बीजापुर तक पहुंचाया, इसके बाद उन्होंने जगदलपुर पहुंचने के लिए धान से भरे ट्रक पर लिफ्ट लिया। बाद में एक मिनी ट्रक ने रायपुर से करीब 200 किमी पहले कोंडागांव पहुंचाया। यहां पुलिसकर्मियों के रोकने पर संतोष ने अपनी स्थिति बताई तब एक परिचित अफसर ने दवाइयों वाले वाहन से रायपुर तक पहुंचने में मदद की। जवान ने बताया कि रायपुर से अपने गांव के नजदीकी रेलवे स्टेशन चुनार तक का सफर 8 मालडगाड़ियों से पूरा किया। यहां से वे पैदल चलकर गंगा नदी तक पहुंचे और नाव से नदी पार करते हुए आखिरकार 10 अप्रैल को अपने गांव पहुंचे। संतोष बताते हैं कि कई जगह उनको पुलिस और रेलवे के अधिकारियों ने रोका लेकिन फिर मानवीय आधार पर उनको आगे जाने की इजाजत दे दी।