छत्तीसगढ़: कांग्रेस जीती तो कौन बनेगा मुख्यमंत्री?
नई दिल्ली। शुक्रवार को आए कुछ एग्जिट पोल छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को अप्रत्याशित सफलता मिलती दिखा रहे हैं तो कुछ नतीजे फिर से रमन सरकार की वापसी की तरफ इशारा कर रहे हैं। असल परिणाम आने से पहले इन नतीजों ने कांग्रेस कैंप में जोश जरूर भर दिया है हालांकि ईवीएम के रखरखाव में जिस तरह लापरवाही की खबरें आ रही हैं उसे देखते हुए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने एक ट्वीट कर पार्टी कार्यकर्ताओं को सतर्क रहने की सलाह दी है। एग्जिट पोल के परिणामों के साथ ही कांग्रेस में छत्तीसगढ़ के अगले मुख्यमंत्री के चेहरे की चर्चा भी शुरू हो चुकी है। कांग्रेस के जीतने की स्थिति में मुख्यमंत्री पद के कई दावेदार सामने आ रहे हैं। चुने गए विधायकों से चर्चा करने के बाद कांग्रेस आलाकमान हो सकता है इनमें किसी एक नाम पर फ़ैसला करेगा। चूंकि लोकसभा के चुनाव सिर्फ़ छह महीने बाद होने वाले हैं इसलिए ज़ाहिर है कि सबसे अधिक वज़न उस नाम को मिलेगा जिससे लोकसभा के चुनाव में राज्य से अधिक से अधिक सीटें आ सकें। छत्तीसगढ़ में जिन नामों पर विचार हो सकता है उसमें यह भी देखा ही जाएगा कि नए मुख्यमंत्री की जनता के बीच लोकप्रियता कैसी है, पिछले पांच वर्षों में पार्टी संगठन खड़ा करने में उसकी कैसी भूमिका रही है, आगामी लोकसभा चुनाव में सीटें जितवा सकने की क्षमता कितनी है, सरकार चलाने के लिए आवश्यक प्रशासनिक अनुभव है या नहीं है। हो सकता है कि यह भी विचार हो कि शिक्षा दीक्षा कितनी हुई है और ऐसी कौन सी कमज़ोरियां हैं जिससे कि आगे परेशानियां हो सकती हैं। ये बात बिल्कुल तय है कि जीतने की स्थिति में राहुल गांधी मुख्यमंत्री का चुनाव मिशन-2019 को ध्यान में रखकर करेंगे। छत्तीसगढ़ में कौन-कौन हैं सीएम पद के प्रमुख दावेदार और क्या हैं उनके मजबूत पक्ष और क्या हैं उनकी कमजोरियां। आइए डालते हैं इस पर एक नजर।
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भूपेश बघेल, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष
प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष (लगातार दूसरा कार्यकाल), कुर्मी, ओबीसी, चुनाव जीतते हैं तो पांचवीं बार विधानसभा में आएंगे। अविभाजित मध्यप्रदेश में मंत्री रहे, छत्तीसगढ़ में भी मंत्री रहे, पूर्व उपनेता प्रतिपक्ष, और एक कड़े प्रशासक के तौर पर अपनी छवि बनी बनाने में कामयाब हुए हैं। रमन सरकार के खिलाफ तीखे तेवरों से पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच आक्रामक और लड़ाके नेता की छवि बनी है। इन पांच सालों में सतत संपर्क से लगभग पूरे प्रदेश में जनता के बीच भी पहचान बनाने में सफल रहे। पिछले चुनावों में हार के बाद उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया था। अध्यक्ष बनने के बाद से लगातार पूरे प्रदेश में यात्राएं कीं, कार्यकर्ताओं के साथ खड़े होकर आंदोलन किए और लंबी लंबी पदयात्राएं कीं जिससे संगठन में अनुशासन के साथ जान फूंकने में सफलता पाई। परिणाम ये हुआ स्थानीय निकायों के चुनाव में भारी जीत दर्ज की। पहली बार कांग्रेस के संगठन को बूथ के स्तर तक ले जाने के लिए कड़ा परिश्रम किया और सभी नेताओं को साथ लेकर प्रशिक्षण आदि के कार्यक्रम चलाए जिसका लाभ पार्टी को मिलता दिख रहा है। भूपेश बघेल अपने जुझारूपन की वजह से कार्यकर्ताओं में बहुत लोकप्रिय हैं। सरकार, मुख्यमंत्री रमन सिंह और उनके मंत्रियों और अधिकारियों के ख़िलाफ़ खुली लड़ाई लड़ने वाले अकेले नेता की छवि बनाने में कामयाब हुए हैं। हालांकि इसके चलते उन्हें अपने ऊपर कई मुकदमे भी झेलने पड़े। संगठन पर मज़बूत पकड़ और घोर भाजपा/आरएसएस विरोधी छवि की वजह से लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी को फ़ायदा मिल सकता है। अगर उन्हें सीएम बनाया जाता है तो ओबीसी होने के नाते भी प्रदेश की जनता के बीच एक अच्छा संदेश जा सकता है। चूंकि लोकसभा चुनाव छह महीने बाद हैं इसलिए इनकी छवि का फ़ायदा पार्टी को मिल सकता है। मुख्यमंत्री बनते हैं तो प्रदेश को आगे ले जाने की एक ठोस योजना "गढ़वो नवा छत्तीसगढ़" उनके पास दिखती है।
भूपेश बघेल की कमजोरियां
आक्रामक और लड़ाकू छवि के चलते पार्टी के हाईकमान के दरबार तक उनकी कई शिकायतें पार्टी के अन्य शीर्ष नेता करते हैं। उन पर पार्टी के नेता आरोप लगाते हैं कि वे सभी को साथ लेकर नहीं चलते हैं। उनके ख़िलाफ़ सरकार ने एक से अधिक मामले दर्ज करवाए हैं छत्तीसगढ़ के मंत्री राजेश मूणत सेक्स सीडी कांड में उनका नाम आया। प्रदेश के प्रभारी पीएल पुनिया की कथित सीडी को लेकर भी नाम आया हालांकि इस मामले में भी सरकार की भूमिका भी सामने आ गई।
टीएस सिंहदेव, नेता प्रतिपक्ष
टीएस सिंहदेव, नेता प्रतिपक्ष, ठाकुर (सामान्य), सरगुजा के राजपरिवार के सदस्य, इस बार जीतते हैं तो तीसरी बार विधानसभा में आएंगे। नेता प्रतिपक्ष रहने के अलावा किसी प्रशासनिक पद पर नहीं रहे, कभी मंत्री भी नहीं रहे इसलिए प्रशासनिक अनुभव की कमी नजर आती है। विनम्र छवि के नेता हैं लेकिन लोग कहते हैं कि पांच वर्ष पहले वे अपनी बेरुखी के लिए प्रसिद्ध थे। जनता के बीच लोकप्रियता ठीक-ठाक है, हालांकि पूरा प्रदेश उन्हें उस तरह से नहीं जानता जिस तरह से उत्तरी छत्तीसगढ़ के ज़िले में लोग उन्हें जानते हैं। घोषणा-पत्र समिति के अध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने हर ज़िले में जनसंपर्क किया है और अपनी पहचान बनाने की कोशिश की है। लेकिन पांच वर्षों में सक्रियता बहुत कम रही है जिससे पर्याप्त पहचान नहीं बन सकी है। चूंकि संगठन चलाने का कोई खास अनुभव नहीं है इसलिए आगामी लोकसभा चुनाव में उनकी भूमिका बहुत प्रभावी होगी इस पर शक है। चूंकि लोकसभा चुनाव छह महीने बाद हैं इसलिए यह कहना भी ठीक नहीं होगा कि वे मुख्यमंत्री के रूप में अपनी पहचान बना चुके होंगे। वे विनम्र छवि के नेता हैं और किसी भी नेता के ख़िलाफ़ बयान देने से बचते हैं इसलिए वे पिछले पांच साल मुख्यमंत्री रमन सिंह के खिलाफ कोई टफ स्टैंड लेते नजर नहीं आए।
टीएस सिंहदेव की कमज़ोरियां
वर्तमान मुख्यमंत्री रमन सिंह और राजपरिवारों से जुड़े भाजपा के नेताओं से मधुर संबंध उनके सीएम बनने की राह में रोड़ा बन सकते हैं। कहा जाता है कि उनके कुछ ऐसे प्रशासनिक अधिकारियों से नज़दीकी संबंध हैं जिसकी वजह से कांग्रेस को पिछले पांच वर्षों में बहुत नुक़सान उठाना पड़ा है। नेता प्रतिपक्ष होने के बावजूद विधानसभा में भी वे सरकार के ख़िलाफ़ ज्यादा आक्रामक नहीं दिखे। वे सरकार के ख़िलाफ़ आंदोलन के लिए जाते हुए भी सरकारी विमान का उपयोग करते रहे जिससे पार्टी कार्यकर्ताओं में ग़लत संदेश गया। प्रशासनिक अनुभव न होने से सीएम के तौर पर प्रभावी होने में संदेह नजर आता है। खास बात ये है कि वे ठाकुर जाति से हैं, जिस समुदाय का न तो प्रदेश में प्रभाव है और न ही वोटर के तौर पर संख्या बल।
चरण दास महंत: पूर्व केंद्रीय मंत्री, पूर्व कार्यकारी अध्यक्ष
चरण दास महंत पूर्व केंद्रीय मंत्री, पूर्व कार्यकारी अध्यक्ष, छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस कमेटी, ओबीसी, पनिका, अविभावित मध्यप्रदेश में मंत्रिमंडल के सदस्य रहे. लंबा प्रशासनिक अनुभव उनके पास है। बहुत पढ़े-लिखे हैं और प्रदेश के वरिष्ठतम नेताओं में से एक हैं। कई बार विधानसभा और लोकसभा के सदस्य रह चुके हैं। पूरे प्रदेश में जनता के बीच उनकी पहचान है। पिछले पांच वर्षों में प्रदेश की राजनीतिक गतिविधियों में सीमित सक्रियता रही है। एकाध को छोड़कर किसी आंदोलन में उन्होंने भाग नहीं लिया। राज्य में चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष पद संभालने के बाद सक्रिय हुए लेकिन वह भी सीमित रहा। कार्यकर्ताओं के बीच सामान्य लोकप्रियता। पूर्व केंद्रीय मंत्री होने के बावजूद विधानसभा चुनाव लड़ा। अगर वे मुख्यमंत्री बनते हैं तो लोकसभा चुनाव में पार्टी को सीमित लाभ होने की संभावना है क्योंकि चार बार कार्यकारी अध्यक्ष रहने के बावजूद वे पार्टी में जान फूंकने में असमर्थ रहे। पिछला विधानसभा चुनाव उनके ही नेतृत्व में लड़ा गया लेकिन अनूकूल माहौल के बावजूद वे पार्टी को जीत दिलाने में असफल रहे। भाजपा और आरएसएस से लड़ने वाले की छवि बनाने में विफल रहे।
चरण दास महंत की कमजोरियां
लंबे प्रशासनिक अनुभव के बावजूद कोई छवि बनाने में विफल रहे। केंद्रीय मंत्री रहते हुए चर्चित भी हुए तो मंदिर में सोना निकालने के लिए खुदाई करवाने के विवाद की वजह से। पार्टी के भीतर गुटबाज़ी के आरोप उन पर लगते रहे हैं। मुख्यमंत्री रमन सिंह से नज़दीकी के भी आरोप पार्टी कार्यकर्ता लगाते रहे हैं। सत्तारूढ़ दल के ख़िलाफ़ कभी कोई निर्णायक लड़ाई लड़ते हुए नजर नहीं आए। किसानों के प्रति निरपेक्ष रहने के आरोप भी हैं। ओबीसी से आने के बावजूद ओबीसी वर्ग में कोई ख़ास लोकप्रियता वे हासिल नहीं कर पाए।
ताम्रध्वज साहू: लोकसभा सदस्य
ताम्रध्वज साहू तीन बार विधानसभा के सदस्य रहे और 2014 के लोकसभा चुनाव में छत्तीसगढ़ से जीतने वाले अकेले सांसद बने। राज्यमंत्री के रूप में संक्षिप्त प्रशासनिक अनुभव भी उनके पास है। जनता के बीच अत्यंत सीमित पहचान क्योंकि वे अपने चुनाव क्षेत्र से बाहर नहीं निकले। पिछले पांच वर्षों में प्रदेश में भी सीमित सक्रियता रही। किसी आंदोलन की अगुवाई करते वे नहीं दिखे। राष्ट्रीय स्तर पर पिछड़ा वर्ग की ज़िम्मेदारी मिलने के बावजूद ओबीसी के बीच पहचान और सक्रियता सीमित ही रही। साहू समाज के प्रदेश अध्यक्ष के रूप में संगठन का बहुत अच्छा काम उन्होंने किया, जिसकी वजह से साहू समाज के लोकप्रिय नेता ज़रुर हैं। अगर वे मुख्यमंत्री बनाए जाते हैं तो लोकसभा में पार्टी को लाभ मिलने की संभावना कम ही है क्योंकि साहू समाज से इतर उनकी कोई ख़ास पहचान नहीं है और पार्टी का संगठन चलाने का अनुभव नहीं के बराबर है। सरकार चलाने की दृष्टि से उनके पास कोई योजना नहीं दिखती क्योंकि हाल फिलहाल तक उन्होंने प्रदेश स्तर पर कोई सोच बनाई ही नहीं थी।
ताम्रध्वज साहू की कमजोरियां
अपेक्षाकृत कम पढ़े लिखे हैं सिर्फ़ हायर सेकेंडरी तक ही शिक्षा ग्रहण की है और यह उनकी एक बड़ी कमज़ोरी के रूप में दिखती है। प्रदेश स्तर पर कोई खास पहचान उनकी नहीं बन पाई है। तिकड़म भिड़ाने वाले नेता के रूप में उनकी पहचान है। संगठन के कार्यों में उनकी सीमित दिलचस्पी भी उनकी एक बड़ी कमजोरी है। उन्होंने ऐन वक्त पर विधानसभा का चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया और अपनी परंपरागत सीट से चुनाव लड़ने की जगह ऐसी जगह से चुनाव लड़ा जहां पहले ही उम्मीदवार की घोषणा हो चुकी थी और बी फ़ॉर्म तक जा चुका था। दुर्ग ज़िले के दिग्गज नेता रहे वासुदेव चंद्राकर की बेटी और पूर्व विधायक प्रतिमा चंद्राकर की टिकट काटकर लड़ने के फ़ैसले से पार्टी कैडर के बीच नकारात्मक संदेश गया। कहा जाता है कि वे भूपेश बघेल के विरोधियों की उम्मीद के रूप में ख़ुद को अवसर मिलने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। हालांकि भूपेश बघेल ने ही विधानसभा चुनाव हारने के बाद मौक़ा देकर उन्हें आगे बढ़ाया।
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