RESERVATION: आर्थिक आधार पर आरक्षण के सवाल पर बवाल क्यूं?
बंगलुरू। भारतीय राजनीति में राजनीतिज्ञों के लिए जातीय आरक्षण हमेशा ज्वलंत मुद्दा रहा है। आजादी के 70-72 साल बाद भी कोई राजनीतिक दल आज जातीय आरक्षण पर चर्चा सियासत के लिए आत्मघाती कदम मानता है। निः संदेह जातीय आरक्षण लागू होने के बाद लाभार्थियों के जीवन स्तर और सामाजिक स्तर में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है।इससे कोई इनकार नहीं कर सकता है।
लेकिन वोट बैंक की राजनीति का चक्कर ऐसा है कि कोई भी राजनीतिक दल आरक्षण नामक बिल्ली के गले में चर्चा की घंटी बांधने को तैयार नहीं होता है। यही कारण है कि जातीय आरक्षण की अनवरतता से आरक्षण की मूल अवधारणा पर प्रश्नचिन्ह खड़ा हो गया है, क्योंकि क्रीमी लेयर तक सिमटी आरक्षण व्यवस्था के चलते वास्तविक लाभार्थी इससे वंचित हो रहे हैं।
गौरतलब है एक बार यह मुद्दा इसलिए फिर गर्मा गया है क्योंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने दोबारा आरक्षण का मुद्दा उठाते हुए कहा है कि जो लोग आरक्षण के पक्ष में हैं और जो इसके ख़िलाफ़ हैं उनके बीच बातचीत होनी चाहिए और इस विवाद का हल निकाला जाना चाहिए। इससे पहले भागवत ने 2015 में भी बिहार चुनावों से ठीक पहले आरक्षण नीति की समीक्षा की बात कही थी, जिसके बाद बवाल खड़ा हो गया था और राजनीतिक पंड़ितों ने बीजेपी के लिए नुकसानदायी तक बतला दिया था, जिसके बाद यह मुद्दा ठंडे बस्ते में चला गया था।
मुद्दे पर मोहन भागवत का कहना है कि मौजूदा जातीय आरक्षण पर सौहार्दपूर्ण वातावरण में विमर्श करना चाहिए। संघ प्रमुख ने कहा कि उन्होंने आरक्षण पर पहले भी बात की थी, लेकिन तब इस पर काफी बवाल मचा था और पूरा विमर्श असली मुद्दे से भटक गया था। भागवत ने कहा कि जो आरक्षण के पक्ष में हैं, उन्हें इसका विरोध करने वालों के हितों को ध्यान में रखते हुए बोलना चाहिए।
वहीं, जो इसके खिलाफ हैं उन्हें भी वैसा ही करना चाहिए। बात तो सीधी है, लेकिन जातीय आरक्षण जैसे मुद्दे पर बगले झांकने वाले राजनीतिज्ञ वोट बैंक छिटकने के डर से मुद्दे को छूना भी पसंद नहीं करते हैं जबकि मुद्दा यह है कि आरक्षण आरक्षण का लाभ किसे मिलना चाहिए और किसे नहीं?
एक रिपोर्ट के मुताबिक़ अकेले 25% पिछड़ी जातियां सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों के लिए आरक्षित सीटों के कुल हिस्से का 97% लाभ उठा रही हैं। मतलब सिर्फ 75% पिछड़ी जातियों को आरक्षण का सिर्फ 3 फीसदी ही लाभ मिल पा रहा है। वहीं, 10 फीसदी पिछड़ी जातियां ऐसी हैं, जिनके लोगों ने कुल आरक्षित सीटों और नौकरियों के 25% हिस्से पर अपना अधिकार जमाया है जबकि 38 फीसदी ऐसी पिछड़ी जातियां हैं, जिनके बच्चों ने कुल आरक्षित सीटों की एक चौथाई हिस्से पर क़ब्ज़ा जमा रखा है। यानी सिर्फ 48 पिछड़ी जातियां कुल आरक्षण का 50% लाभ ले रही हैं। हैरानी की बात है कि क़रीब 1000 ऐसी पिछड़ी जातियां हैं, जिनके एक भी बच्चे को आरक्षण का लाभ अब तक नहीं मिला है।
उल्लेखनीय है जातीय आरक्षण की सच्चाई की पोल खोलने वाले उपरोक्त आंकड़े काफी हैं। बड़ा सवाल यह है कि क्या आरक्षण का लाभ उठा रही चंद जातियां, समुदाय अपनी ही जातियों के गरीबों का हक नहीं मार रहे हैं, क्योंकि कायदे से उन लोगों को आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए जो उन मानदंडों से ऊपर खिसक गए हैं, जिसके आधार पर संविधान में आरक्षण की व्यवस्था दी गई है। अफसोस कि आरक्षण के जरिए जीवन स्तर और सामाजिक स्तर में बदलाव के बाद भी लाभार्थी कई पीढ़ियों तक बतौर क्रीमी लेयर आरक्षण का लाभ लेने से नहीं चूक रहे हैं।
एक उदाहरण से समझिए, हाल के वर्षों में दलित और ओबीसी वर्ग के कई लड़के और लड़कियां आईएएस की परीक्षा में टॉप किया हैं और इसे देखते हुए नए सिरे से आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था को देखने की महती जरूरत है? क्योंकि किसी आरक्षण लाभार्थी मंत्री, आईएएस, आईपीएस अथवा आलाअधिकारी के संतान की हैसियत किसी भी मायने में पिछड़ा हुआ नहीं हो सकता है। फिर उसे मौजूदा आरक्षण व्यवस्था के तहत आरक्षण मिलने का क्या तुक है।
एक अच्छी खासी सैलेरी कमाने वाला पिछड़ी जाति वाले युवा को ओबीसी कोटे के तहत आरक्षण पाने का हकदार नहीं रखता है, क्योंकि सामाजिक और शैक्षिक दोनों पैमाने पर वह हाशिए पर बिल्कुल नहीं हो सकता है, लेकिन 10 हजार रुपए में चौकीदारी करने वाले, चाय-पान बेचने वाले, ठेला-रेहड़ी लगाने वाले सवर्ण के बेटे को मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था में सामाजिक और आर्थिक रूप से अगड़ा नहीं कहा जा सकता है और उसकी कथित सामाजिक हैसियत की शर्त पर क्रीमी लेयर कैटेगरी में प्रवेश पा चुके तथाकथित दलितों और पिछड़ों कोआरक्षण की विशेष सुविधा नहीं मिलनी चाहिए।
क्योंकि वर्तमान आरक्षण व्यवस्था से किसी मोची, धोबी, दूध बेचने वाले ग्वाले, रिक्शावाले, जुलाहा, सफाईकर्मी, ढाबा में बर्तन साफ करने वाले व्यक्ति के बच्चे को आईआईटी,आईआईएम,एम्स, आईएएस में आरक्षण का लाभ नहीं मिल रहा है और अगर ज़रूरतमंदों को ही आरक्षण का लाभ नहीं मिल पा रहा तो मौजूदा आरक्षण व्यवस्था को वर्तमान की परिस्थितियों के अनुसार बदलाव जरूर किया जाना चाहिए और जाति-समुदाय के बजाय आर्थिक आधार पर आरक्षण पर व्यापक चर्चा जरूरी होनी चाहिए।
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