महाराष्ट्र: हिंदुत्व के नाम पर वोटरों से धोखाधड़ी के केस में उद्धव के खिलाफ क्या कार्रवाई हो सकती है ?
नई दिल्ली- शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के खिलाफ बीजेपी के साथ वोट मांगकर उससे अलग होने आरोप लग रहे हैं। अब यह मामला कानून के दरवाजे तक भी पहुंचने लगा है। गुरुवार को महाराष्ट्र के औरंगाबाद में एक वोटर ने इसी को लेकर उनके और दो और शिवसेना नेताओं के विरोध में शिकायत दर्ज कराई है। गौरतलब है कि इससे पहले सुप्रीम कोर्ट में भी शिवसेना पर प्री-पोल सहयोगी का साथ छोड़कर दूसरी पार्टियों के साथ जाने के लिए मुकदमा दर्ज कराया जा चुका है। आइए समझते हैं कि ये मामले किस तरह की अपराध के श्रेणी में आते हैं या नहीं आते हैं और क्या इस मामले में आरोपी नेताओं के खिलाफ किसी तरह की कानूनी कार्रवाई भी हो सकती है?
महाराष्ट्र के औरंगाबाद के वोटर ने किया उद्धव पर केस
शिवसेना सुप्रीमो उद्धव ठाकरे के खिलाफ महाराष्ट्र के औरंगाबाद में एक वोटर ने धोखाधड़ी की शिकायत दर्ज कराई है। अपनी शिकायत में शिकायतकर्ता ने उद्धव के अलावा शिवसेना के दो और नेताओं औरंगाबाद सेंट्रल से शिवसेना के नवनिर्वाचित विधायक प्रदीप जायसवाल और पार्टी के पूर्व सांसद चंद्रकात खरे को भी आरोपी बनाया है। शिकायत इस बात को लेकर दर्ज कराई गई है कि 21 अक्टूबर को हुए चुनाव के लिए प्रचार के दौरान इन लोगों ने हिंदुत्व के नाम पर वोट मांगे थे, लेकिन बाद में चुनाव पूर्व सहयोगी बीजेपी के साथ मिलकर सरकार नहीं बनाई। शिकायतकर्ता का कहना है कि ठाकरे और बाकी दोनों नेताओं ने यह कहकर वोट मांगे थे कि शिवसेना-बीजेपी गठबंधन हिंदुत्व की रक्षा के लिए काम करेंगे। उनके इस आश्वसन पर शिकायतकर्ता और उसके परिवार के सदस्यों ने औरंगाबाद सेंट्रल विधानसभा चुनाव क्षेत्र में जायसवाल के पक्ष में मतदान किया था, जो कि उस सीट पर शिवसेना-बीजेपी गठबंधन के उम्मीदवार थे।
सुप्रीम कोर्ट में भी दायर हो चुकी है याचिका
इससे पहले पिछले 15 तारीख को सुप्रीम कोर्ट में भी ऐसी ही एक याचिका दायर हो चुकी है। उस याचिका में बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव जीतने वाली शिवसेना के रुख में आए बदलाव को मतदाताओं के एनडीए गठबंधन पर जताए गए भरोसे के साथ विश्वासघात बताया गया। याचिका मे केंद्र सरकार और राज्यपाल को यह निर्देश देने की भी मांग की गई कि वे चुनाव बाद बन रहे शिवसेना-एनसीपी और कांग्रेस गठबंधन की तरफ से नियुक्त किए जाने वाले मुख्यमंत्री की नियुक्ति से बचें। याचिकाकर्ता ने इस मामले में अदालत से जल्द सुनवाई की गुहार लगाई थी, लेकिन अदालत ने जल्द सुनवाई से मना कर दिया था।
क्या कहते हैं कानून के जानकार ?
ऊपर के दोनों मामलों में काफी हद तक समानता है। दोनों में वोटरों के साथ विश्वासघात का आरोप लगे हैं। औरंगाबाद वाले मामले में हिंदुत्व की रक्षा के नाम पर ठगी का आरोप है तो सुप्रीम कोर्ट में दायर केस में मतदाताओं को धोखा देने के आरोप हैं। इस मामले में वन इंडिया ने सुप्रीम कोर्ट की वकील मंजूषा झा से बात की। उन्होंने बताया कि जहां तक हिंदुत्व की बात है तो उसकी परिभाषा अदालत में तय नहीं की जा सकती। रही बात चुनाव पूर्व सहयोगी के साथ गठबंधन तोड़ने की तो अदालत में ये मामला टिकना इसलिए मुश्किल है क्योंकि भाजपा और शिवसेना के बीच कोई कानूनी करार तो हुआ नहीं था, जिसके आधार पर अदालत में उसपर करार तोड़ने का जुर्म साबित हो सके। इसलिए जो भी वादे किए गए या भरोसा दिया गया, वह सब चुनावी था और उसका पालन करवाने के लिए कोई कानून मौजूद ही नहीं है।
घोषणापत्र को कानून के दायरे में लाने का विचार
एकबार सुप्रीम कोर्ट ने अपना यह नजरिया सामने लाया था कि चुनावी राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणापत्रों को कानून के दायरे में लाया जाय, ताकि कोर्ट उसका पालन करवाने के लिए उन्हें बाध्य कर सके। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट के उस विचार पर अभी तक बात आगे नहीं बढ़ सकी है। यही नहीं, राजनीतिक दल चाहें तो ऐसे मामलों में जनता का भरोसा बहाल करने के लिए जनप्रतिनिधित्व कानूनों में बदलाव की पहल भी कर सकते हैं, लेकिन फिलहाल ये बातें दूर की कौड़ी हैं। मतलब, अगर महाराष्ट्र के मतदाताओं को लगता है कि उद्धव ठाकरे या किसी दूसरे राजनेता ने उनके साथ धोखा किया है तो फिलहाल उनके लिए जनता की अदालत में जाने का इंजार करने के आलावा कोई कानूनी रास्ता नहीं बचता है।
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