BHU में संस्कृत पर ब्राह्मणों के एकाधिकार को बचाने की मुहिम?: ग्राउंड रिपोर्ट
लाहौर के अरबी कॉलेज में मौलवी महेश प्रसाद प्रोफ़ेसर थे. 1916 में बीएचयू में अरबी, फ़ारसी और उर्दू विभाग शुरू हुआ. 1920 में मदन मोहन मालवीय ने मौलवी महेश प्रसाद को बनारस बुलाया और उन्हें उर्दू, फ़ारसी और अरबी विभाग की ज़िम्मेदारी सौंप दी. मौलवी महेश तीनों भाषाओं के बड़े विद्वान थे. वो दो दशक से ज़्यादा वक़्त कर बीएचयू में उर्दू
लाहौर के अरबी कॉलेज में मौलवी महेश प्रसाद प्रोफ़ेसर थे. 1916 में बीएचयू में अरबी, फ़ारसी और उर्दू विभाग शुरू हुआ. 1920 में मदन मोहन मालवीय ने मौलवी महेश प्रसाद को बनारस बुलाया और उन्हें उर्दू, फ़ारसी और अरबी विभाग की ज़िम्मेदारी सौंप दी.
मौलवी महेश तीनों भाषाओं के बड़े विद्वान थे. वो दो दशक से ज़्यादा वक़्त कर बीएचयू में उर्दू, फ़ारसी और अरबी विभाग के प्रमुख रहे. 1973 में तीनों भाषाओं के विभाग अलग-अलग हो गए.
अभी बीएचयू में उर्दू विभाग के विभागाध्यक्ष आफ़ताब अहमद अफ़ाक़ी कहते हैं, "महेश प्रसाद ने मौलवी की डिग्री ली थी इसलिए उनके नाम के पहले मौलवी लगा है. मौलवी की डिग्री का मतलब है कि आप क़ुरान की शिक्षा दे सकते हैं. मौलवी महेश प्रसाद ने बीएचयू में इन तीनों भाषाओं की मज़बूत नींव रखी और इसे करवाया मालवीय जी ने. आप समझ सकते हैं कि बीसवीं सदी में एक हिन्दू दो दशक से ज़्यादा वक़्त तक इन तीनों भाषाओं के विभाग का प्रमुख रहा."
अफ़ाक़ी का मानना है कि कैम्पस में जो कुछ चल रहा है वह अफ़सोस की बात है. वे कहते हैं, "21वीं सदी में पहली बार बीएचयू में किसी मुसलमान का संस्कृत साहित्य पढ़ाने के लिए चयन हुआ है तो लोग धर्म की आड़ में विरोध कर रहे हैं. धर्म और भाषा को ये लोग मालवीय जी से ज़्यादा समझते हैं? फ़िरोज़ ख़ान की नियुक्ति का विरोध करके ये लोग मालवीय जी का अनादर कर रहे हैं. हमारे उर्दू विभाग में ही हिंदू प्रोफ़ेसर हैं."
सुबह के सात बजे हैं. बीएचयू कैंपस में सब कुछ सामान्य है लेकिन जैसे ही वीसी आवास के पास पहुँचा तो वहाँ की सड़क बंद दिखी. आवास के गेट के ठीक सामने चार स्टूडेंट कंबल ओढ़कर सो रहे हैं. जैसे ही पहुँचा, वो पैरों की आहट से जग गए. ये छात्र संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय के हैं. इनमें से दो छात्र बात करने के लिए उठे.
विरोध करने वालों के तर्क
मुज़फ़्फ़रपुर के आनंदमोहन झा और गोरखपुर के शशिकांत पांडे. इन्होंने तर्क देना शुरू किया कि क्यों किसी मुसलमान की नियुक्ति इस संकाय में शिक्षक के तौर पर नहीं हो सकती है. उन्होंने कहा, "इससे हिन्दू धर्म की महिमा और पवित्रता को चोट पहुँचेगी, ब्राह्मणों की श्रेष्ठता प्रभावित होगी और आने वाले वक़्त में इस संकाय में मुसलमानों की संख्या बढ़ जाएगी."
ये चाहते हैं कि हिन्दू राष्ट्र बने बल्कि ये मानते हैं कि यह हिन्दू राष्ट्र ही है. तर्क के दौरान ही ये ब्राह्मणों की श्रेष्ठता की कहानियां सुनाने लगे. तर्क-वितर्क बढ़ा तो ये गांधी और गोडसे तक पहुँचे और फिर गुस्से में बहुत कुछ बोल गए, बाद में उन्होंने अनुरोध किया कि प्लीज़ वो सब मत लिखिएगा.
वीसी राकेश भटनागर ने साफ़ कह दिया है कि नियुक्ति रद्द नहीं होगी, उनका कहना है कि संविधान और विश्वविद्यालय के नियम के अनुसार फ़िरोज़ ख़ान की नियुक्ति हुई है. पिछले दो हफ़्तों से विभाग में पढ़ाई बंद हैं, ऐसा तब है जबकि इस विरोध-प्रदर्शन में मुश्किल से बीसेक लोग शामिल हैं.
आनंदमोहन झा और शशिकांत पांडे से पूछा कि क्या उनके घर वालों को पता है कि किसी मुसलमान के प्रोफ़ेसर होने से वो विचलित हैं और इस तरह सड़क पर रात काट रहे हैं. इस सवाल पर दोनों हँसने लगे और आनंदमोहन ने कहा कि उनके घर वालों को पता चलेगा तो बहुत नाराज़ होंगे.
एकाधिकार का सवाल
संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय में 95 प्रतिशत से ज़्यादा छात्र जाति से ब्राह्मण हैं और फ़िरोज़ ख़ान के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन में लगभग सौ फ़ीसदी. ये इस बात को लेकर चिंतित हैं कि धर्म और संस्कृत से भी उनका एकाधिकार ख़त्म हो जाएगा?
इन छात्रों का कहना है कि अगर विश्वविद्यालय के नियमों के हिसाब से फ़िरोज़ ख़ान की नियुक्ति सही भी है तो वो नहीं मानेंगे क्योंकि संकाय के भीतर जो शिलापट्ट लगे हैं उसे मानना ज़्यादा ज़रूरी है. संकाय के भीतर दीवार पर एक शिलापट्ट लगा है जिस पर लिखा है कि इस भवन में हिन्दू ही आ सकते हैं और बौद्ध, जैन, सिख भी हिन्दू के अंग-प्रत्यंग हैं इसलिए वो भी आ सकते हैं.
विश्वविद्यालय संविधान और क़ानून से चलेगा या शिलापट्ट से? एक छात्र ने तत्काल ही इसका जवाब दिया, उनका कहना है कि "अयोध्या में राम मंदिर बनाने का फ़ैसला कोर्ट ने शिलापट्टों के आधार पर ही दिया है तो फ़िरोज़ ख़ान की नियुक्ति में शिलापट्टों का पालन क्यों नहीं हो सकता है?"
इसी संकाय में एक दर्शन विभाग भी है, जिसमें जैन दर्शन और बौद्ध दर्शन की भी पढ़ाई होती है. जैन दर्शन विभाग के प्रोफ़ेसर अशोक कुमार जैन इस बात को मज़बूती से ख़ारिज करते हैं कि जैन और बौद्ध हिन्दू धर्म के अंग हैं.
वो फ़िरोज़ ख़ान की नियुक्ति पर छात्रों का विरोध भी ग़लत मानते हैं. अशोक कुमार जैन कहते हैं, "इससे कुछ हासिल नहीं होगा. पढ़ाई में शिक्षक का धर्म और जाति देखना कहीं से भी उचित नहीं है. यूनिवर्सिटी के नियम के अनुसार नियुक्ति हुई है और हमें नियम के अनुसार ही चलना चाहिए. जैन धर्म का अस्तित्व बिल्कुल अलग है और यह किसी धर्म का अंग नहीं है. ग़ैर-हिन्दू में केवल मुसलमान ही नहीं आते बल्कि जैन और बौद्ध भी हैं."
शिलापट्ट का बहाना
फ़िरोज़ ख़ान की नियुक्ति का विरोध करने वाले छात्र रुइया होस्टल में रहते हैं. ये मुसलमानों से अपने लगाव और सहिष्णुता की मिसाल देने के लिए होस्टल में झाड़ू लगाने वाले जान मोहम्मद का नाम बार-बार लेते हैं. होस्टल पहुँचा तो जान मोहम्मद झाड़ू लगा रहे थे. इन छात्रों ने चाचा के संबोधन से आवाज़ लगाई. 55-60 साल के चाचा आए तो इन छात्रों ने कहा, आप बताइए हमलोग से आपको कोई दिक़्क़त होती है? चाचा ने छात्रों की बातों से हामी भरी.
विश्वविद्यालय आधिकारिक तौर पर स्पष्ट कर चुका है कि फ़िरोज़ ख़ान की नियुक्ति संस्कृत साहित्य पढ़ाने के लिए हुई है, उनकी नियुक्ति संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय के संस्कृत साहित्य विभाग में हुई है. इन छात्रों का का कहना है कि शिलापट्ट पर लिखा है कि इस संकाय में ग़ैर-हिंदुओं का प्रवेश वर्जित है, यह भ्रम भी फैलाया जा रहा है कि उनकी नियुक्ति कर्मकांड और वेद पढ़ाने के लिए हुई है जो सही नहीं है.
नियुक्ति का विरोध कर रहे छात्र कई बार ये तर्क देते हुए साहित्य, धर्म और संस्कृति का घालमेल कर देते हैं. इनके तर्कों को दुखद बताते हुए बीएचयू के हिन्दी विभाग के प्रोफ़ेसर आशीष त्रिपाठी कहते हैं, "मशहूर शहनाई वादक बिस्मिलाह ख़ाँ को एक बार विदेश में बसने का प्रस्ताव मिला. इस प्रस्ताव पर उन्होंने कहा कि विदेश में बस तो जाऊँगा लेकिन विश्वनाथ मंदिर और गंगा कहां से लाओगे? इन्हें नज़ीर अकबराबादी के 'कन्हैया का बालपन' पढ़ना चाहिए. हिन्दू धर्म का भला बिस्मिल्लाह ख़ाँ और नज़ीर की परंपरा से होगा न कि फ़िरोज़ ख़ान का विरोध करने से?"
हिंदू धर्म पर ख़तरे की बात
संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय में लगभग सात सौ छात्र हैं लेकिन लड़कियां महज़ 20-25 हैं. फ़िरोज़ ख़ान का विरोध करने में कोई भी लड़की शामिल नहीं है. यहाँ तक कि पूरे कैंपस में जितनी लड़कियों से बात की उनमें से किसी ने इन छात्रों का समर्थन नहीं किया. रश्मि सिंह नाम की स्टूडेंट ने फ़िरोज़ ख़ान का विरोध कर रहे छात्रों के सामने ही कहा, "यह बेवक़ूफ़ी और मनमानी है". रश्मि ने पूछा कि यूनिवर्सिटी इनके नियम से चलेगा या एक लोकतांत्रिक देश के जो नियम होते हैं उनसे?
इसी संकाय में धर्मशास्त्र पढ़ाने वाले एक प्रोफ़ेसर ने नाम नहीं बताने की शर्त पर कहा कि इस विरोध-प्रदर्शन में मुट्ठी भर लोग शामिल हैं लेकिन पूरे संकाय को बंधक बनाकर रखा है. उन्होंने कहा, "जो ऐसा कर रहे हैं वो न हिन्दू धर्म का भला कर रहे हैं और न ही संस्कृत का. ये लोग देवभाषा संस्कृत को इतिहास की भाषा बनाने पर तुले हैं. इनसे सख़्ती से निपटा जाना चाहिए क्योंकि बदमाशी सुननी नहीं चाहिए उसे ख़त्म किया जाना चाहिए."
इस संकाय के भीतर ही कई प्रोफ़ेसर इनकी माँगों से सहमत नहीं हैं लेकिन जो समर्थन में हैं उनके तर्क दिलचस्प हैं. प्रोफ़ेसर जीए शास्त्री इस संकाय के डीन रह चुके हैं और अभी यहाँ प्रोफ़ेसर हैं. वो फ़िरोज़ ख़ान पर छात्रों की माँगों के साथ हैं और कहते हैं, "फ़िरोज़ ख़ान से हिन्दू धर्म को ख़तरा है."
उनके पिता मंदिरों में भजन गाते हैं और ख़ुद फ़िरोज़ ख़ान भी भजन गाते हैं उनसे हिंदू धर्म को क्या ख़तरा हो सकता है, यह पूछने पर प्रोफ़ेसर शास्त्री मुस्कुराकर बात टाल जाते हैं.
एक प्रोफ़ेसर ने सवाल किया, "गाय का मांस खाने वाला यहाँ कैसे आ सकता है?" जब उनसे सवाल किया कि क्या केवल शाकाहारी आ सकते हैं या मुर्ग़ा और बकरा चलेगा तो वे नाराज़ हो गए. पूर्वोत्तर भारत के जो हिंदू गोमांस खाते हैं वो भी यहाँ प्रोफ़ेसर नहीं बन सकते? इसके जवाब में उन्होंने कहा, "नहीं, क़तई नहीं."
बीएचयू के इतिहास में पहली बार कोई मुसलमान संस्कृत का शिक्षक बनकर आया है लेकिन पढ़ा नहीं पा रहा है. फ़िरोज़ बनारस से जयपुर चले गए हैं. उनसे मीडिया वाले बार-बार एक ही सवाल दोहरा रहे हैं उन्होंने आजिज़ आकर फ़ोन बंद कर दिया है. वो इंतज़ार कर रहे हैं कि जल्द ही सब कुछ सामान्य हो जाए.