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CAA: मुस्लिम लड़कियों का आंचल बना परचम, क्या हैं इसके मायने?

"तेरे माथे पर ये आंचल ख़ूब है लेकिन तू इस आंचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था."-मजाज़ कई साल पहले लखनऊ में जब शायर मजाज़ ने ये नज़्म नरगिस दत्त से मुलाक़ात के बाद लिखी थी, तब उन्होंने शायद नहीं सोचा होगा कि ये आने वाले दिनों की मुनादी साबित होगी. मजाज़ जिस अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से पढ़े लिखे थे, वह यूनिवर्सिटी विरोध का प्रतीक बना हुआ है.

By चिंकी सिन्हा
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नागरिकता संशोधन कानून विरोध प्रदर्शन
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नागरिकता संशोधन कानून विरोध प्रदर्शन

"तेरे माथे पर ये आंचल ख़ूब है लेकिन तू इस आंचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था."-मजाज़

कई साल पहले लखनऊ में जब शायर मजाज़ ने ये नज़्म नरगिस दत्त से मुलाक़ात के बाद लिखी थी, तब उन्होंने शायद नहीं सोचा होगा कि ये आने वाले दिनों की मुनादी साबित होगी.

मजाज़ जिस अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से पढ़े लिखे थे, वह यूनिवर्सिटी विरोध का प्रतीक बना हुआ है.

दरअसल यहां विवादास्पद नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) का विरोध हो रहा है और इसका नेतृत्व स्कार्फ़ बांधी महिलाएँ कर रही हैं. इस क़ानून में तीन पड़ोसी देशों से भारत आए लोगों को नागरिकता देने का प्रावधान है, लेकिन उस सूची से मुसलमानों को बाहर रखा गया है.

मजाज़ की लिखी पंक्तियों को विभिन्न प्रदर्शनों में ये महिलाएं गा रही हैं. ख़ास बात यह है कि चेतावनी, फ़ायरिंग, आंसू गैस और मुक़दमे के बाद भी इन महिलाओं का विरोध प्रदर्शन जारी है. अलगीढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और जामिया मिल्लिया, महिलाओं के विरोध प्रदर्शन का केंद्र साबित हुए हैं जो पुलिस की क्रूरता के सामने तनकर खड़ी हैं, चुनौती देती हुई.

भारतीय इतिहास में पहली बार, इतनी बड़ी संख्या में मुस्लिम महिलाएं प्रदर्शन के लिए सड़कों पर निकली हैं, जो ख़ुद इन प्रदर्शनों का नेतृत्व भी कर रही हैं और विरोध की आवाज़ में अपनी पहचान बना रही हैं.

हिजाब और बुर्के में पहचान की राजनीति के ख़िलाफ़ संघर्ष

दिल्ली के निम्न आय वर्ग और मुस्लिम बहुलता वाले शाहीन बाग़ की महिलाएं प्रतिरोध का नया चेहरा बनकर उभरी हैं. दिल्ली के कड़ाके की ठंड में भी ये महिलाएं दिन-रात शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन पर बैठी हैं. इन महिलाओं का कहना है कि नया क़ानून भारतीय संविधान के ख़िलाफ़ है.

ठंड और पुलिस की बर्बरता (जो दूसरी जगहों पर दिखाई भी दिए हैं) के ख़तरे के बावजूद ये महिलाएं विरोध प्रदर्शन की मशाल जलाए दिख रही हैं. अपने हिजाब और बुर्के में वे पहचान की राजनीति के ख़िलाफ़ भी संघर्ष कर रही हैं.

यह सब ठीक उसी दिन शुरू हुआ, जिस रात जामिया मिल्लिया इस्लामिया में हमला हुआ. शाहीन बाग़ की 10 महिलाएं अपने अपने घरों से निकलकर विरोध प्रदर्शन के लिए बैठ गईं.

उसी रात, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अब्दुल्लाह हॉस्टल में छात्राओं ने तीन ताले तोड़ दिए, जिनमें उन्हें बंद रखा गया था. जब उन्हें महिला छात्रावास से बाहर जाने की इजाजत नहीं दी गई तो वे वहीं धरने पर बैठ गईं, उनका कहना था कि पुलिस छात्रों की बेरहमी से पिटाई कर रही हैं.

अगले ही दिन, 16 दिसंबर की सुबह तक अलीगढ़ यूनिवर्सिटी प्रशासन ने हॉस्टल ख़ाली करा लिया. छात्रावास के छात्रों को उनके अपने घरों तक भेजने के लिए विशेष बस और ट्रेन की व्यवस्था की गई.

उसी सुबह 20 और 21 साल की आएशा और तूबा अलीगढ़ के दूधपुर स्थित अपने घरों से निकलकर यूनिवर्सिटी पहुंचीं. यहां ये दोनों यूनानी मेडिसिन की पढ़ाई करती हैं. दोनों मौलाना आजाद लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर बैठ गई.

उनके पास पिछले विरोध प्रदर्शन के प्लेकार्ड्स मौजूद थे. तूबा के हाथ में साइलेंट प्रोटेस्ट यानी मौन प्रदर्शन और आएशा के हाथ में तानाशाही नहीं चलेगी वाले प्लेकार्ड थे. दोनों घंटों तक विरोध प्रदर्शन करती रहीं थी.

उनके मुताबिक़ प्रोवोस्ट (वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी) ने आकर उन्हें चेतावनी दी लेकिन दोनों ने उन्हें बताया कि वे कुछ भी गैर क़ानूनी नहीं कर रही हैं. अलीगढ़ में धारा 144 लागू थी, जिसके मुताबिक़ किसी भी जगह पर चार या उससे ज़्यादा लोग एकत्रित नहीं हो सकते थे. लेकिन यहां तो दो ही लड़कियां थीं.

तूबा बताती हैं, "हम ये नहीं चाहते थे कि कोई सोचे कि हम संघर्ष से पीछे हट गए हैं और हम शांत हैं. जब तक एक भी छात्र विरोध प्रदर्शन के लिए खड़ा है, विरोध ज़िंदा रहेगा."

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जामिया विरोध प्रदर्शन
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जामिया विरोध प्रदर्शन

पुलिस को चुनौती देतीं हिजाब पहनी महिलाएं

इनमें से ज़्यादातर महिलाएं युवा हैं और बेताब हैं. वे स्पष्ट सोच से भरी हैं और शांत भी हैं. वे कहती हैं कि केवल महिलाएं ही विरोध प्रदर्शन कर सकती हैं क्योंकि सरकार को मालूम नहीं है कि मुस्लिम महिलाओं से कैसे डील किया जाए. वही मुस्लिम महिलाएं जिनकी पहचान बेजुबान महिला की रही है और जिन्हें लंबे समय से समाज में पीड़िता माना जाता रहा है.

कई लोगों का कहना है कि 2012 में निर्भया मामले के दौरान पहली बार महिलाओं ने एकजुट होकर विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा लिया था. सामाजिक कार्यकर्ता और मानवाधिकार कार्यकर्ता शबनम हाशमी के मुताबिक़ मुस्लिम महिलाओं में विरोध प्रदर्शन की शुरुआत 2002 के गोधरा दंगे के दौरान हुई थी, जब कई महिलाएं विरोध प्रदर्शन के लिए घरों से बाहर निकली थीं और उनमें से कुछ अब भी संघर्ष कर रही हैं.

बुर्का और हिजाब में, वे अपनी पहचान को नए सिरे से गढ़ रही हैं, उन्हें अब मुस्लिम कहलाने में ना तो डर है और ना ही शर्म. इनमें से अधिकांश ये भी कहती हैं कि हिजाब उन्हें अपनी मर्जी से पहना है और इसका धर्म से कोई लेना देना नहीं है.

तस्वीरों में भी दिखता है कि हिजाब पहनी महिलाएं पुलिस को चुनौती दे रही हैं. वो भी तब जब दिल्ली में कड़ाके की सर्दी है और पुलिसिया अत्याचार की ख़बरें भी हैं लेकिन ये महिलाएं दिन-रात में प्लेकार्ड लिए लगातार विरोध प्रदर्शन कर रही हैं.

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रिपोर्ट

शबनम हाशमी कहती हैं, "ऐसा पहले कभी नहीं देखा गया. आज़ादी के बाद लोकतंत्र के नाम पर इतनी मुस्लिम महिलाओं को प्रदर्शन के लिए आते हुए मैंने अपने जीवन में नहीं देखा. यह तटबंध के टूटने जैसा मामला है. यह एक तरह से 25 पीढ़ियों के संघर्ष का सेलिब्रेशन है. अब ये महिलाएं सोशल मीडिया की ताक़त को जानती हैं और पितृसत्तात्मक समाज के ख़िलाफ़ भी ये प्रतिरोध है."

22 दिसंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय राजधानी में एक रैली की, जिसमें महिलाओं की ग़ैर मौजूदगी महसूस की गई. लेकिन गलियों में बड़ी संख्या में महिलाएं मौजूद थी जो नागरिकता संशोधन क़ानून का विरोध कर रही थीं.

एक फैक्ट फाइंडिंग टीम इंडिपेंडेंट वीमेंस इनिशिएटिव ने जामिया मिल्लिया यूनिवर्सिटी के प्रत्यक्षदर्शियों की गवाही पर एक रिपोर्ट तैयार की है. इस रिपोर्ट को 'अनअफ्रेड- द डे यंग वीमेन टुक द बैटल टू द स्ट्रीट' कहा गया है, इसके मुताबिक़ वहां ऐसी महिलाएं मौजूद थीं जिन्हें अपनी सामाजिक और राजनीतिक ताक़त पर विश्वास है.

इस रिपोर्ट में कहा गया है, "15 दिसंबर, 2019 को अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्रों पर हर तरह से बर्बरतापूर्ण कार्रवाई की गई. नागरिकता संशोधन क़ानून, 2019 और नेशनल रजिस्टार ऑफ सिटीजंस (एनआरसी) का विरोध कर रहे छात्रों को कुचलने की कोशिश की गई लेकिन अब इन्हें पूरे भारत में लाखों महिलाएं, पुरुष और युवाओं का समर्थन मिल रहा है.

इस संघर्ष में जामिया मिल्लिया इस्लामिया की ओर से इस संघर्ष में सच्चाई, न्याय और समानता की बुलंद आवाज़ के साथ भारत की युवा महिलाएं शामिल रही हैं. इनकी तस्वीरें हमारी अंतरात्मा को झकझोरने वाली हैं. इनमें से ज़्यादातर की उम्र 19 से 31 साल के बीच हैं, लेकिन इनमें से कुछ सामान्य परिवारों की गृहणियां भी हैं. जो इस प्रदर्शन से प्रभावित होकर घरों से बाहर निकली हैं."

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Afreen Fatima
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अनजान भविष्य का डर

आफ़रीन फ़ातिमा जेएनयू में काउंसलर हैं. 2018-19 में वह अलगीढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी वीमेंस कॉलेज की प्रेसिडेंट रह चुकी हैं. वह कहती हैं कि समुदाय की महिलाओं की जागरुकता के पीछे तीन तलाक़ और बाबरी मस्जिद के फ़ैसलों की भी भूमिका है. फ़ोन पर उनकी आवाज़ थकी हुई लगती है और वह ख़ुद डरी हुई भी.

उन्हें इस दौरान काफ़ी कुछ झेलना पड़ा है, मानसिक और भावनात्मक तौर पर भी, साथ में तीन बार उन्हें पैनिक अटैक का सामना भी करना पड़ा है. जिस रात को जामिया में हिंसा भड़की थी, उस रात वह जामिया के कैंपस में फंस गई थी. सोशल मीडिया पर उन्हें ट्रोल किया जा रहा है. उनके लिए ख़तरा कई गुना बढ़ गया है लेकिन वह डरने वाली लड़की नहीं हैं.

फ़ातिमा कहती हैं, "जब उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यानाथ की जीत हुई थी तब मैंने सीधा ख़तरा महसूस किया था. क्योंकि वे लगातार घृणा फैलाने वाले संबोधन देते रहे हैं. मुस्लिम महिलाएं घर से निकल रही हैं क्योंकि अब उनका सैचुरशन प्वाइंट आ चुका है. डर के बावजूद हम, संघर्ष नहीं करने और घर से बाहर नहीं निकलने का विकल्प नहीं चुन सकते. हम उनसे डर गए हैं, ऐसा उन्हें सोचने नहीं देंगे."

21 साल की फ़ातिमा के सामने अनजान भविष्य का डर है. हालांकि नागरिकता संशोधन क़ानून और नेशनल रजिस्टार ऑफ सिटीजंस के प्रभाव में आने से समुदाय की महिलाओं को मुख्य धारा में तो ला दिया है.

फ़ातिमा कहती हैं, "सरकार को मुस्लिम पुरुष से कैसे पेश आना है ये तो मालूम है लेकिन उन्हें कभी मुस्लिम महिलाओं की चुनौती का सामना नहीं करना पड़ा है, इसलिए उनके पास हमसे डील करने का अनुभव नहीं है. उन्हें हमसे विरोध प्रदर्शन की कभी उम्मीद नहीं की होगी."

फ़ातिमा इलाहाबाद की हैं, जहां विरोध प्रदर्शन करने वालों के साथ पर पुलिस की बर्बरता सुर्खियों में रही हैं. उनकी मां ने स्कूल की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी थी लेकिन उन्होंने अपनी तीनों बेटियों को पढ़ाया लिखाया. फ़ातिमा कहती हैं कि वह तालीम हासिल करने वाली अपने परिवार की पहली पीढ़ी है.

फ़ातिमा कहती हैं, "हमारी अम्मी और दादी शिक्षित नहीं है. लेकिन हम महसूस कर रहे हैं कि यह युद्ध जैसी स्थिति है और हम लंबे समय तक चुप रहे हैं."

फ़ातिमा को उनके परिवार वालों ने कभी हिजाब पहनने को नहीं कहा और फातिमा ने 2019 तक हिजाब पहना भी नहीं. उन्होंने पहली बार इसे तब पहना जब तबरेज़ अंसारी की मॉब लिंचिंग की ख़बर सुर्ख़ियों में आई थी.

फ़ातिमा कहती हैं, "यह स्टीरियोटाइप सोच है कि मुस्लिम महिलाओं की सोच नहीं होती या फिर उन्हें घर में खाने की टेबल पर जगह नहीं मिलती. मैं मुस्लिमों में महिला प्रतिनिधित्व की मिसाल बनना चाहती हूं."

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'नागरिकता का मुद्दा महिलाओं से ज़्यादा जुड़ा'

मोहम्मद सज्जाद अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में इतिहास पढ़ाते हैं.

सज्जाद के मुताबिक़ नागरिकता संशोधन क़ानून और एनआरसी के ख़िलाफ़ जामिया और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में चल रहे आंदोलन का नेतृत्व मुस्लिम महिलाएं कर रही हैं. इन आंदोलनों के पीछे किसी ग़ैर धार्मिक, सेक्युलर, वामपंथी और उदारवादी संगठन की कोई भूमिका नहीं है.

सज्जाद कहते हैं, "मुस्लिम महिलां नागरिकता के मुद्दे पर संघर्ष कर रही हैं और इस लिहाज से वे अल्पसंख्यक नहीं है. वे अपनी पहचान के साथ बाहर निकल रही हैं. वे आत्मविश्वास से भरी हुई हैं, स्पष्ट और मुखर हैं."

आधुनिक शिक्षा, सोशल मीडिया और जागरूकता ने मिलकर मुस्लिम महिलाओं में राजनीतिक तौर पर जागरूक तबके को जन्म दिया है. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में 30 प्रतिशत से ज़्यादा मुस्लिम युवतियां हैं जो पोस्ट ग्रेजुएट पाठ्यक्रमों में बढ़कर 50 प्रतिशत से ज़्यादा हो जाती हैं.

वैसे भी नागरिकता का मुद्दा महिलाओं से ज़्यादा जुड़ा हुआ है क्योंकि उन्हें लग रहा है कि शादी करने के बाद उन्हें अपना सरनेम बदलना पड़ा या फिर पति बाहर से आया हो तो दस्तावेज़ उनके लिए एक मसला हो सकता है. इस लिहाज से देखें तो नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ चल रहे विरोध प्रदर्शन में महिलाओं का फ़ैक्टर महत्वपूर्ण है.

सज्जाद कहते हैं, "महिलाएं सरकार के नैतिक बल को चुनौती दे रही हैं. यह पुलिस की बर्बरता से पार पाने की रणनीति का भी हिस्सा है."

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नोटिस आए लेकिन डरी नहीं

आएशा और तूबा को मौज मस्ती के लिए तैयार ख़ुशमिजाज लड़कियां माना जाता था लेकिन अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की इन दोनों बहनों की पहचान क्रांतिकारी लड़कियों की बन चुकी है. इन दोनों का कहना है कि ये समय की मांग है.

बुधवार की सुबह तूबा का टेक्स्ट मैसेज आया, "हैप्पी न्यू ईयर, विरोध प्रदर्शन अभी भी जारी है. हम लोग बाबे सैयद गेट पर फिर से आ गए हैं और हम लोग यहां तब तक रहेंगे जब तक..."

उनके घर दो नोटिस और भेजे जा चुके हैं, जिनमें कहा गया है कि वे धरना पर बैठकर हाईकोर्ट के आदेश को उल्लंघन कर रही हैं लेकिन इन नोटिसों से वे डरी नहीं हैं और ना ही विरोध प्रदर्शन करने का उनका इरादा डिगा है.

यही चुनौती और अवज्ञा है. ठिठुराने वाली सर्दी के बावजूद, आंसू गैस के बावजूद, गिरफ्तारियों के बावजूद, पितृसत्ता के बावजूद. जैसा कि एक प्लेकार्ड कह रहा है-

"न हमसफ़र न किसी हमनशीं से निकलेगा

हमारे पांव का कांटा हमीं से निकलेगा"- राहत इंदौरी

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English summary
CAA: Muslim girls are protesting with zeal, what does it mean?
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