स्वयंभू मायावती के भाई-भतीजावाद ने एक दलित पार्टी का बंटाधार कर दिया!
बेंगलुरू। बसपा की स्वंयभू प्रमुख मायावती के राजनीतिक भविष्य पर चर्चा करना स्वाभाविक हो चला है। पिछले एक दशक में दलितों की पार्टी रही बसपा का जनाधार ही नहीं खिसका है बल्कि पार्टी की मूल भावना भी क्षतिग्रस्त हुई है। हालांकि मायावती की आत्मकेंद्रित छवि से भी पार्टी को काफी नुकसान पहुंचाया है।
भाई आनंद कुमार और भतीजे आकाश को पार्टी की कमान सौंपकर मायावती ने यह साबित कर दिया कि परिवारवाद के खिलाफत करने वाली पार्टी बसपा अब अपना पुराना केंचुल छोड़ चुकी है। मायावती ने भाई आनंद कुमार को पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और भतीजे आकाश कुमार को राष्ट्रीय कोर्डिनेटर घोषित करके दलितों की आखिरी उम्मीद भी धाराशाई कर दी, जिसको वोट बैंक के सहारे मायावती 4 बार मुख्यमंत्री पद तक पहुंचने में कामयाब हुईं।
निःसंदेह बसपा के राजनीतिक भविष्य अधर में हैं, क्योंकि पार्टी के संविधान को परे रखकर पार्टी प्रमुख मायावती ने भाई और भतीजे को पार्टी की औपचारिक की जिम्मेदारी सौंप दी है, जो भविष्य में मायावती के उत्तराधिकारी होंगे। पार्टी की स्वयंभू नीति निर्धारक मायावती अब खुद ही पार्टी की संविधान और पदाधिकारी हैं।
बसपा सुप्रीमो मायावती का वैसे तो यह राजनैतिक इतिहास रहा है कि वह अपने निजी स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकती है। लोकसभा चुनाव 2910 में बुआ-बबुआ गठबंधन के लिए उन्होंने गेस्ट हाउस को भी भुलाने में देर नहीं लगाई है। स्वार्थ पूर्ति के लिए मायावती ने बसपा संस्थापक कांशीराम के बनाए मिशन और उसूलों को कुचलने से भी परहेज नहीं किया।
उल्लेखनीय है कांशीराम बसपा की स्थापना के समय जिस पंद्रह पचासी का नारा देकर दलित, पिछड़े एवं मुस्लिम समाज को राजनैतिक प्लेटफार्म देने का काम किया था उस मिशन के लिए इकट्ठे हुए सभी कोर वोटर बसपा से छिटक कर इधर-उधर चले गए हैं। यह इसलिए हुआ क्योंकि कांशीराम ने बामसेफ के सहयोग से डीएसफोर आंदोलन ने दलित पिछड़ों एवं मुस्लिम समाज को अपने हक एवं अधिकार दिलाने की जो अलख जगाई थी उससे दलित पिछड़े समाज की एकजुटता को काफी हद तक मजबूती मिली थी। वर्तमान समय में मायावती के पास अपना मूल वोटर भी साथ नहीं है, क्योंकि दलितों की देवी समयांतर तक निजी स्वार्थ में रुपयों की देवी में बदल गई।
बसपा प्रमुख मायावती अब भाई आनंद कुमार और लंदन रिटर्न भतीजे आकाश को सब कुछ सौंप देने के मूड में दिख रही हैं। लोकसभा चुनाव के दौरान मायावती की हरेक रैली में साथ-साथ दिखने वाले आकाश वर्तमान समय में बसपा के सोशल मीडिया विंग के प्रमुख भी हैं। जब मायावती पर लोकसभा चुनाव के दौरान चुनाव आयोग ने प्रतिबंध लगाया था तो मायावती के प्रतिनिधि के तौर पर सतीश मिश्रा ने रैली को संबोधित नहीं किया बल्कि रैली की कमान भतीजे आकाश कुमार सौंपी गई थी। मायावती ने भाई आनंद कुमार और भतीजे आकाश कुमार को पार्टी का शीर्ष पद देकर संगठन के उन नेताओं को भी ठेस पहुंचाया है, जो लगातार पार्टी के लिए काम कर रहे हैं।
राजस्थान विधानसभा चुनाव में बसपा की टिकट पर जीतकर विधानसभा में पहुंचे छह बसपा विधायकों का ह्रदय परिवर्तन भी इसकी कड़ी हैं। बसपा में तेजी बढ़ रहा निजी स्वार्थ और पारिवारवाद से संगठन से जुड़े नेताओं में भविष्य नहीं दिख रहा है। यही कारण है कि कर्नाटक का बसपा का एकमात्र विधायक मायावती के खिलाफ कदम उठा लेता है और पार्टी से निष्कासित होने का जोखिम उठा लेता है और राजस्थान के 6 बसपा विधायक कांग्रेस में शामिल हो जाते हैं। निजी हित और परिवारवाद के चलते बसपा का ग्राफ तेजी से नीचे गिर रहा है।
मायावती की अपनी अड़ियल छवि भी पार्टी के लिए घातक साबित हो रही है। क्योंकि यह माना जाता है कि पार्टी में अगर किसी नेता ने कार्यकर्ताओं के बीच अच्छी पैठ बना ली तो उस नेता को पार्टी से बाहर करने में मायावती जरा भी देर नही लगाती है, क्योंकि उनका यह मानना है कि बसपा में उनसे बड़ा चेहरा कोई हो नहीं सकता है और अगर कोई होने की कोशिश भी करता है, तो उसके पर कतरने में मायावती को देर नहीं लगता है। यही बजह है कि मध्यप्रदेश, राजस्थान, पंजाब राज्यों में विधानसभा चुनावों में पार्टी को कुछ खास हासिल नही हुआ। यूपी छोड़कर पूरे देश में बसपा लोकसभा चुनाव में अपना खाता खोलने को तरस गई।
कहते हैं कि कांशीराम ने जिस मिशन के लिए जीते जी घरवार सब त्याग दिया और अपने भाई भतीजों और रिश्तेदारों को त्याग दिया था। उनकी मौत के बाद पार्टी की स्वयंभू सुप्रीमो बनीं मायावती ने आज खुलकर भाई भतीजावाद को पार्टी में प्रश्रय दे चुकी हैं। हालत यह है कि आज पार्टी का आम कार्यकर्ता बसपा के बार्ड सदस्य का चुनाव भी नहीं लड़ सकता है। जब तक वह निर्धारित फंड और कोआर्डीनेटरों की जेबें गरम नही कर देता है। ऐसे में बसपा को अपने भाई भतीजे की जागीर बनाने का मायावती का फैसला निश्चित ही मिशन को नेस्तनाबूद करने में शायद ही कोई कसर छोड़ेगा।
वर्ष 2014 लोकसभा चुनाव में जीरो पर सिमटने वाली बसपा को यूपी में हुए विधानसभा चुनाव में बुरी हार का सामना करना पड़ा था। पार्टी विधानसभा चुनाव में महज 19 सीटों पर सिमट गई थी, लेकिन यूपी उप चुनाव के नतीजों से मायावती ने सपा के साथ गठबंधन करके लोकसभा चुनाव 2019 में जीरो से 10 सीटें जीतने में कामयाब हुईं और परिणामा आते ही मायावती ने सपा के साथ गठबंधन तोड़ने की घोषणा करके बता दिया कि निजी स्वार्थ उनके लिए कितना मायने रखता है।
सपा-बसपा गठबधन में बुआ को जहां 10 लोकसभा सीटों पर जीत मिलीं, वहीं सपा को 5 सीटों से संतोष करना पड़ा। गठबंधन का फायदा निःसंदेह मायावती को मिला, लेकिन मायावती ने सपा का वोट बसपा के प्रत्याशियों के पक्ष में ट्रांसफर नहीं होने का हवाला देकर गठबंधन तोड़ लिया।
सच्चाई यह थी कि कैराना और गोरखपुर में हुए उपचुनावों में चला सपा-बसपा गठबंधन का मैजिक इसलिए फेल हुआ, क्योंकि सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने मायावती को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश किया था, जिससे नाराज होकर गैर दलित वोट के साथ ही पिछड़ा वोट भी भाजपा के पक्ष में चला गया।
इसके अलावा गठबधन को सवर्ण वोटों से भी हाथ धोना पड़ा। अब मायावती की बयानबाजी सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव की निश्च्छलता एवं राजनैतिक ईमानदारी पर ऐसा प्रहार था कि अखिलेश आज भी खुद के साथ हुई राजनैतिक धोखाधड़ी से उबर नहीं पाए हैं। हाल ही में बसपा को मायावती के चंगुल से बचाने के लिए मिशन कार्यकर्ताओं ने 'बहुजन मूवमेंट बचाओ' नारे के साथ एक राष्ट्रीय आंदोलन किया था। मंडल स्तरीय सम्मेलन में सहारनपुर के साथ-साथ मुजफ्फरनगर जिले के सैकड़ों मिशनरी कार्यकर्ताओं ने भाग लिया।
बहुजन मूवमेंट बचाओ आंदोलन का मुख्य उद्देश्य बहुजन समाज पार्टी के मिशनरी कार्यकर्ताओं और बहुजन समाज के लोगों तक इस बात को पहुंचाना था कि किस तरह कांशीराम के परिनिर्वाण के बाद उनकी एकमात्र उत्तराधिकारी होने का दावा करने वाली मायावती ने लगातार उनका तिरस्कार, उपेक्षा व अपमान किया गया, जिसके चलते ही यूपी के दलित, पिछड़े, धार्मिक अल्पसंख्यक समाज ने मायावती को सत्ता की कुर्सी से नीचे उतारने में प्रमुख भूमिका निभाई थी।
मायावती का खेल बिगाड़ने में बीजेपी और आरआरएस की डा. भीमराव अम्बेडकर को लेकर रणनीति भी काम आईं। बीजेपी और आएसएस ने अम्बेडकर की विचारधारा को अपनाने का काम किया, जिससे कहीं न कहीं दलितों के लिए एक विकल्प तैयार हुआ, लेकिन स्वयंभू मायावती यहां कहीं न कहीं चूक गईं।
बीजेपी ने राष्ट्रपति चुनाव के लिए दलित नेता रामनाथ कोविंद को उम्मीदवार बनाकर दलितों को समझाने में कामयाब रही कि बीजेपी ही दलितों की सबसे बड़ी हितैषी राजनीतिक पार्टी है। यही कार्ड कांग्रेस ने भी चला और बाबू जगजीवन राम की पुत्री मीरा कुमार को मैदान में उतारा है। जिससे बसपा के दलित जनाधार उसके हाथ से खिसक गया।
बीएसपी के सामने अब बड़ी चुनौती दलित युवा नेताओं का उभरना है, जिनमें जिग्नेश मेवानी और चंद्रशेखर प्रमुख हैं। ऊना दलित संघर्ष समिति के संयोजक जिग्नेश मेवानी गुजरात में हुए ऊना कांड से उभरकर सामने आए। भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर द्वारा सहारनपुर जातीय हिंसा के खिलाफ जंतर-मंतर में प्रदर्शन किया गया था, जिससे उनके प्रति दलित युवाओं में एक नयी उम्मीद की किरण दिखी है।
इन दोनों ने ही, दलितों खासकर कि दलित युवाओं को मजबूती से प्रभावित किया है, जो उन्हें 'जातीय गर्व' के साथ जोड़ते हैं, जैसा कि आज बीजेपी अन्य हिन्दू जातियों के साथ कर रही है। इससे बसपा के नेताओं के सामने एक नई समस्या खड़ी हो गई है, जो आने वाले समय में बसपा के लिए एक चुनौती साबित होगी।
दलित चिंतक कंवल भारती कहते हैं कि विगत 10 सालों से बीएसपी का दलित जनाधार घटता जा रहा है, गैर-जाटव जातियां दूसरी पार्टियों जैसे बीजेपी और कांग्रेस से जुड़ चुकी हैं। वो कहते हैं कि कांशीराम के समय बीएसपी देश में आन्दोलन के रूप में स्थापित हई, लेकिन आज यही पार्टी अपने उसी मूलजनाधार से नाता तोड़ चुकी है और अमीरों की पार्टी बन चुकी है।
मायावती ने अपने आपको दिल्ली या कार्यालय तक ही सीमित कर लिया है और पार्टी में अभी तक कोई दूसरा चर्चित चेहरा नहीं है जो दलितों को प्रभावित कर सके, यह भी एक कारण है। शुरुआत में बसपा एक कैडर पार्टी थी, जो अपने सदस्यों से बनी थी और आज उनमे नीरसता का भाव है।
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