बीएसपी की 'सोशल इंजीनियरिंग': क्या ब्राह्मणों को साथ लेकर ख़त्म कर पाएगी राजनीतिक वनवास?
क़रीब 14 साल बाद बीएसपी नेता मायावती ने सोशल इंजीनियरिंग के फ़ॉर्मूले को आज़माने की कोशिश की है और विधानसभा चुनाव अभियान की शुरुआत ही ब्राह्मण सम्मेलन के ज़रिए की है.
साल 2007 में बहुजन समाज पार्टी ने सर्व समाज का नारा देते हुए जब ब्राह्मण समुदाय को अपनी ओर जोड़ने का अभियान चलाया तो इस राजनीतिक समीकरण की सफलता पर ब्राह्मणों को भी भरोसा नहीं हुआ. लेकिन यह समीकरण इस क़दर सफल रहा कि बहुजन समाज पार्टी की राज्य में न सिर्फ़ पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनी बल्कि राजनीतिक भाषा में यह प्रयोग "सोशल इंजीनियरिंग" के नाम से मशहूर हो गया.
क़रीब 14 साल बाद बीएसपी नेता मायावती ने एक बार फिर सोशल इंजीनियरिंग के इस फ़ॉर्मूले को आज़माने की कोशिश की है और साल 2022 के विधानसभा चुनाव अभियान की शुरुआत ही ब्राह्मण सम्मेलन के ज़रिए की है. दो दिन पहले उन्होंने एलान किया कि 23 जुलाई को अयोध्या में उनकी पार्टी इसकी शुरुआत करेगी और आने वाले दिनों में राज्य के सभी 18 मंडलों और उसके बाद सभी ज़िलों में ब्राह्मण सम्मेलन आयोजित किए जाएंगे.
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ब्राह्मणों को पार्टी से जोड़ने और ब्राह्मण सम्मेलन करने की ज़िम्मेदारी बीएसपी महासचिव सतीश चंद्र मिश्र को दी गई है.
ब्राह्मण सम्मेलन तो ठीक है, लेकिन इसकी शुरुआत अयोध्या से ही क्यों हो रही है, यह सवाल भी काफ़ी अहम है. पार्टी के वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्री नकुल दुबे इसकी वजह बताते हैं, "वजह कोई ख़ास नहीं है. कहीं न कहीं से शुरुआत होनी ही थी. मर्यादा पुरुषोत्तम सभी के हैं. इसलिए सोचा गया कि क्यों न उन्हीं की नगरी से इसकी शुरुआत की जाए और ईश्वर की आराधना करके कुछ अच्छा काम किया जाए. अब यहीं से भगवान राम का आशीर्वाद लेकर अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा छोड़ा जाएगा."
सोशल इंजीनियरिंग का कमाल
दरअसल, बीएसपी के बाद सोशल इंजीनियरिंग का यह प्रयोग दूसरी राजनीतिक पार्टियों ने भी अपनाया और जिस अनुपात में ब्राह्मण अन्य पार्टियों से जुड़े, उस अनुपात में उन्हें सफलता भी मिली. मसलन, साल 2007 में बीएसपी ने 86 विधानसभा सीटों पर ब्राह्मणों को टिकट दिया था और 41 सीटों पर उन्हें जीत हासिल हुई थी.
साल 2012 में समाजवादी पार्टी ने भी ब्राह्मणों को अपने साथ जोड़ने का अभियान चलाया. उस बार उनकी पार्टी में भी 21 विधायक ब्राह्मण समाज के थे. साल 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को दो-तिहाई से ज़्यादा बहुमत मिला और इस बार भी सबसे ज़्यादा 46 विधायक ब्राह्मण हैं.
पिछली तीन विधानसभा चुनाव के ट्रेंड ये बताते हैं कि जिस पार्टी में सबसे ज़्यादा ब्राह्मण विधायक थे, उस पार्टी की ही यूपी में सरकार बनी.
जहां तक ब्राह्मणों को जोड़ने की बात है तो कोरोना संक्रमण से पहले भी समाजवादी पार्टी समेत अन्य दलों ने भी ये कोशिशें शुरू कर दी थीं. उस वक़्त परशुराम की मूर्तियों की स्थापना की होड़ चली. यह वही समय था जब पिछले साल कानपुर में विकास दुबे और उनके कई साथी कथित एनकाउंटर में मारे गए थे.
इसके अलावा भी कई ब्राह्मणों का एनकाउंटर हुआ था और विपक्षी दल इस बात को मुद्दा बना रहे थे कि मौजूदा सरकार ब्राह्मणों की विरोधी है. उस समय कांग्रेस पार्टी भी इस बारे में काफ़ी मुखर हुई थी और पार्टी के उस वक़्त के नेता जितिन प्रसाद ने बाक़ायदा 'ब्राह्मण चेतना मंच' नाम की संस्था बनाई थी. लेकिन अब जितिन प्रसाद ख़ुद बीजेपी में आ गए हैं.
वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्र कहते हैं कि ब्राह्मण नाराज़ तो हैं और विकल्प की तलाश में भी हैं, लेकिन विकल्प के रूप में वो बीएसपी को ही देखेंगे, ऐसा अभी लग नहीं रहा है.
योगेश मिश्र कहते हैं, "मायावती का विकल्प ब्राह्मण समाज देख चुका है. सरकार बनने के बावजूद उसे कोई बहुत फ़ायदा नहीं मिला. ब्राह्मण इस पार्टी से जुड़ा भले ही हो, लेकिन इतना कंफ़र्टेबल फ़ील नहीं करता. साल 2007 में वोट तो बीएसपी ने लिया, लेकिन लाभ और सुविधाएं कुछ परिवारों तक ही सीमित रह गईं और वही मुट्ठी भर लोग अभी भी बीएसपी के साथ हैं. यही नहीं, उस दौर के तमाम ब्राह्मण पार्टी से बाहर भी कर दिए गए. अब दोबारा फिर कितना जुड़ पाते हैं, ये देखने वाली बात होगी."
योगी सरकार में निशाने पर ब्राह्मण
वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ कलहंस की भी राय कुछ ऐसी ही है, लेकिन बीएसपी नेता नकुल दुबे कहते हैं कि अन्य पार्टियों ने ब्राह्मण समाज के साथ जैसा बर्ताव किया है, वैसा बीएसपी नहीं करती है.
नकुल दुबे कहते हैं, "ब्राह्मण समाज को पहले काफ़ी कमज़ोर करके रखा गया था. बीस साल से तो मैं ही देख रहा हूं. बीएसपी के अलावा अन्य राजनीतिक दलों ने इन्हें महत्व नहीं दिया. बीएसपी ने ही सबसे पहले सोशल इंजीनियरिंग की शुरुआत की. ब्राह्मण और दलित जिन्हें समाज के दो छोर कहा जाता था, बहन जी ने दोनों को जोड़ा. कैबिनेट बनी तो सभी लोग उसमें शामिल थे. आज जिस तरह से ब्राह्मण को निशाना बनाया जा रहा है, तो उसे बीएसपी में ही अपना सम्मान सबसे ज़्यादा दिख रहा है. क्योंकि उसने 2007 से 2012 का दौर देखा है."
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उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों की संख्या क़रीब 11-12 फ़ीसद है. हालांकि कुछ ज़िले ऐसे भी हैं जहां इनकी संख्या क़रीब बीस फ़ीसद है और उन जगहों पर ब्राह्मण मतदाताओं का रुझान उम्मीदवार की जीत और हार तय करता है. ऐसा माना जा रहा है कि बीएसपी की नज़र उन्हीं ज़िलों और विधानसभाओं पर है.
पश्चिमी यूपी के बुलंदशहर, हाथरस, अलीगढ़, मेरठ के अलावा ज़्यादातर ऐसे ज़िले पूर्वांचल और लखनऊ के आस-पास के हैं. जानकारों का कहना है कि यदि बीएसपी के परंपरागत मतदाताओं के अलावा ब्राह्मण मतों का कुछ हिस्सा भी बीएसपी को मिल जाता है तो निश्चित तौर पर उसे फ़ायदा पहुंच सकता है.
सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं, "बीजेपी को छोड़कर यदि ब्राह्मणों का कुछ भी हिस्सा जिस भी पार्टी के पास चला गया तो मुस्लिम मतों का उस तरफ़ ध्रुवीकरण हो सकता है, जिसका उस पार्टी को फ़ायदा हो सकता है. फ़िलहाल यह फ़ायदा लेने की स्थिति में सपा और बसपा ही हैं. बीएसपी एक बार इस सोशल इंजीनियरिंग का प्रयोग कर चुकी है और उसके पास सतीश चंद्र मिश्र जैसे स्थापित नेता भी हैं, इसलिए उसके पास ब्राह्मण मतों के जाने की संभावना ज़्यादा है. समाजवादी पार्टी के पास उस क़द का कोई नेता नहीं है."
बीजेपी के पक्ष में ब्राह्मण मतदाता
अचानक ब्राह्मण सम्मेलन के एलान के पीछे सिद्धार्थ कलहंस एक ख़ास वजह देखते हैं. वो कहते हैं, "पंचायत चुनाव में बीएसपी ने हर ज़िले में कुछ सीटों पर ब्राह्मण उम्मीदवार खड़े किए थे और उनमें से ज़्यादातर उम्मीदवार जीते हैं. पार्टी को लगता है कि शायद यह प्रयोग विधानसभा में भी सफल हो."
कुछ सर्वेक्षण रिपोर्टों के मुताबिक, साल 2017 में सत्तर फ़ीसद से ज़्यादा ब्राह्मणों ने बीजेपी के पक्ष में मतदान किया था और बीजेपी की इतनी ज़्यादा सीटें जीतने में ब्राह्मणों का यह समर्थन काफ़ी मददगार रहा. न सिर्फ़ विधानसभा चुनाव में बल्कि साल 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को ब्राह्मणों का भरपूर समर्थन मिला, लेकिन जानकारों का कहना है कि यूपी में सरकार बनने के बाद उन्हें वह भागीदारी नहीं मिली, जो उन्हें इस व्यापक समर्थन के एवज़ में मिलनी चाहिए थी. इस वजह से ब्राह्मण मतदाताओं में नाराज़गी स्वाभाविक है.
सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं, "नाराज़गी ज़रूर है, लेकिन यह नाराज़गी इतनी ज़्यादा भी नहीं है कि ब्राह्मण मतदाता बीजेपी को हराने के लिए एकजुट हो जाएगा. अभी भी यही लग रहा है कि ब्राह्मण वोटरों का अधिकांश हिस्सा बीजेपी के ही पास जा रहा है. आगे क्या होगा, यह देखने वाली बात है. जहां तक नाराज़गी का सवाल है तो सत्ता में शीर्ष स्तर पर भागीदारी तो ब्राह्मणों को 1989 के बाद कभी नहीं मिली. 2017 में ब्राह्मण ज़ोर-शोर से बीजेपी के साथ लगा था, लेकिन योगी आदित्यनाथ के राजपूत बिरादरी के होने के नाते उसे नुक़सान महसूस हुआ है. फिर भी, ब्राह्मणों को लगता है कि अभी भी बीजेपी ही उनकी हितैषी है. हां, यूपी में कांग्रेस पार्टी मज़बूत होती तो बीजेपी को ज़्यादा नुक़सान होता."
यूपी में बीजेपी से ब्राह्मणों की कथित नाराज़गी के पीछे मंत्रिमंडल में उचित और महत्वपूर्ण मंत्रालयों में प्रतिनिधित्व न होना, कथित एनकाउंटर्स में कई ब्राह्मणों का मारा जाना और तमाम सरकारी नियुक्तियों में भी ब्राह्मणों को नज़रअंदाज़ किया जाना प्रमुख है. बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, "हाल के पंचायत चुनाव को देख लीजिए. ब्राह्मणों को टिकट नहीं दिए गए और उन्हीं जगहों पर जब ब्राह्मण उम्मीदवार बाग़ी होकर जीत गए तो उन पर पार्टी अपना हक़ जताने लगी."
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योगेश मिश्र कहते हैं कि ब्राह्मणों की इस नाराज़गी का डैमेज कंट्रोल बीजेपी भी ज़रूर करेगी, लेकिन वो करना इतना आसान नहीं है. योगेश मिश्र कहते हैं, "बीजेपी भी कुछ न कुछ करेगी ज़रूर क्योंकि उसे भी लगता है कि ब्राह्मण समाज वोकल वोट बैंक है. अपने साथ दूसरे समूहों को भी लेकर आता है. इसलिए बीजेपी उन्हें आसानी से अपने खेमे से जाने नहीं देगी, लेकिन यह डैमेज कंट्रोल इसलिए आसान नहीं है क्योंकि टॉप लेवेल पर ब्राह्मण नहीं है और छोटी-मोटी जगहों पर या कुछ पदाधिकारी-मंत्री बना देने से बहुत फ़र्क नहीं पड़ेगा. मुख्यमंत्री, पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष और पार्टी प्रभारी जैसे अहम पदों पर बदलाव होगा नहीं और इनमें से किसी भी पद पर ब्राह्मण नहीं है. मंत्री इत्यादि बना देने से मुझे नहीं लगता है कि अब डैमेज कंट्रोल हो सकेगा."
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