ब्लॉग: एक दूसरे के पूरक नहीं हैं सेना और संघ
आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने जिस भाषा का इस्तेमाल किया, भाषाविद् उसे अतिश्योक्ति अलंकार कहते हैं.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ऐसे किस संघर्ष का इंतज़ार है जिससे निपटने के लिए भारत की धर्मनिरपेक्ष सेना को संघ के नागपुर मुख्यालय में जाकर स्वयंसेवकों की भर्ती करने की अर्ज़ी देनी पड़े?
संघ के सर्वोच्च अधिकारी यानी सरसंघचालक मोहन भागवत कल्पना करते होंगे कि एक दिन भारतीय सेना के तीनों अंगों के प्रमुख नागपुर पहुंचकर संघ के अधिकारियों से अर्ज़ करेंगे कि राष्ट्र पर भयानक आपदा से आ गई है.
हमें तो युद्ध की तैयारी में पाँच-छह महीने लग जाएँगे. अब संघ का ही आसरा है. आप तीन दिन के अंदर स्वयंसेवकों की सेना खड़ी करके हमारी मदद करें.
इसके बाद भारत के हर गांव और गली में माथे पर भगवा पट्टा बांधे बजरंग दल के स्वयंसेवक चिड़ीमार बंदूक़ और छुरेनुमा त्रिशूल हाथ में उठाकर भारत माता की रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग करने उमड़ पड़ेंगे और उनसे प्रेरणा पाकर भारतीय सेना के जवान भी उनके पीछे पीछे पाकिस्तान या चीन की सीमा पर जाकर दुश्मन के दांत खट्टे करने में सक्षम होंगे.
चुटकुला और अतिश्योक्ति
मोहन भागवत और उनके स्वयंसेवकों को ये मानने का पूरा संवैधानिक अधिकार है कि राष्ट्रनिर्माण का टेंडर उन्हीं के नाम खुला है और उनके अलावा सभी संघ-विरोधी ताक़तें राष्ट्र-ध्वंस में लगी हैं.
पर फ़ौज की संस्कृति को नज़दीक से जानने वालों को मालूम है कि तीन दिन में स्वयंसेवकों की फ़ौज तैयार कर देने जैसे चुटकुलों पर बारामूला से बोमडिला तक शाम को अपनी मैस में इकट्ठा होकर ड्रिंक्स के दौरान फ़ौजी अफ़सर कैसे ठहाके लगाते हैं.
मुज़फ़्फ़रपुर के ज़िला स्कूल मैदान में मोहन भागवत ने स्वयंसेवकों को संबोधित करते हुए जिस भाषा का इस्तेमाल किया उसे भाषाविद् अतिश्योक्ति अलंकार कहते हैं.
यानी अगर कोई अपनी प्रेमिका से कहे कि मैं तुम्हारे लिए आकाश से चाँद-सितारे तोड़ लाऊँगा, तो उसे अतिश्योक्ति अलंकार ही कहा जाएगा.
मोहन भागवत ने कहा, "अगर देश को ज़रूरत पड़े और अगर देश का संविधान क़ानून करे तो सेना तैयार करने को छह सात महीना लग जाएगा. संघ के स्वयंसेवकों को लेंगे... तीन दिन में तैयार."
उन्होंने अपनी ओर से डिस्क्लेमर दे दिया - अगर संविधान इजाज़त दे!
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संविधान इजाज़त नहीं देता तो इसे बदलेंगे?
मोहन भागवत जानते हैं कि संविधान इसकी इजाज़त नहीं देता. संविधान किसी को निजी सेना बनाने की इजाज़त नहीं देता.
संविधान भारत सरकार को अपनी नीतियाँ धर्म के आधार पर बनाने की इजाज़त भी नहीं देता, ये उसका धर्मनिरपेक्ष चरित्र है.
संविधान सेना को भी राजनीति से दूर रखता है और राजनीति वालों को न्यायपालिका के काम में दख़ल नहीं देने देता.
मोहन भागवत जानते हैं कि आकाश से चाँद-तारे तोड़ लाने के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा भारतीय संविधान है. इसलिए बीच बीच में आप संघ परिवार की ओर से पूरे संविधान को बदल डालने की आवाज़ें भी सुनते हैं.
संविधान को बदलने की बात कभी पुराने स्वयंसेवक केएन गोविंदाचार्य की ओर से आती है तो कभी नरेंद्र मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री अनंत कुमार हेगड़े कहते हैं कि हम संविधान को बदलने के लिए ही आए हैं.
विवाद बढ़ने पर ऐसे बयान देने वाले या तो अपने बयानों से साफ़ मुकर जाते हैं, या मीडिया पर बयान को तोड़ने मरोड़ने का आरोप लगाकर बच निकलने की कोशिश करते हैं या फिर एक वाक्य में खेद प्रकट करके कुछ समय के लिए विवाद को ठंडा कर देते हैं.
ख़ुद को सेना सरीखा दर्शाने की कोशिश
इसी तरह जब भारतीय फ़ौज पर मोहन भागवत के बयान को सेना-विरोधी कहा जाने लगा तब संघ ने सफ़ाई देते हुए कहा कि सरसंघचालक के बयान को तोड़ मरोड़ कर पेश किया गया है.
संघ के प्रचार प्रमुख डॉक्टर मनमोहन वैद्य ने बयान जारी किया - "भागवत जी ने कहा कि भारतीय सेना समाज को तैयार करने में छह महीने लगाएगी जबकि संघ के स्वयंसेवक को तैयार करने में तीन दिन लगेंगे. दोनों को सेना को ही ट्रेनिंग देना पड़ेगा. नागरिकों में से भी सेना ही तैयार करेगी नए लोगों को और स्वयंसेवकों में से भी सेना ही तैयार करेगी."
मोहन भागवत और डॉक्टर मनमोहन वैद्य के बयानों की बारीकी से पड़ताल करने पर पता चलेगा कि संघ के दोनों अधिकारी आम जनता की नज़र में भारतीय सेना और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बीच के फ़र्क को धुँधला कर देना चाहते हैं.
वो चाहते हैं कि आम लोग सेना और संघ, सैनिक और स्वयंसेवक एक दूसरे का पर्याय मान लें: दोनों संगठन राष्ट्र के लिए प्राण न्यौछावर करने को तैयार रहते हैं. दोनों अनुशासित बल हैं.
सैनिक अपनी वर्दी पहनकर मैदान में हर सुबह कसरत और भागदौड़ करते हैं तो गणवेशधारी स्वयंसेवक भी मोहल्ले के पार्क में शाखा लगाते हैं, खोखो और कबड्डी खेलते हैं. फ़ौजी भव्य परेड निकालते हैं तो स्वयंसेवक भी डंडा-झंडा लेकर शहर के मुख्य मार्ग पर पथसंचलन करते हुए निकलते हैं.
दोनों की पद्धति, सोच और ध्येय में अंतर कहाँ है?
यह साबित करने और ख़ुद को सेना का सबसे बड़ा हितैषी दिखाने के लिए हिंदुत्ववादी संगठन और व्यक्ति एक कश्मीरी नौजवान को जीप के बोनट पर बाँधकर घुमाए जाने का समर्थन करते हैं और इसीलिए उन्हें देश की राजनीति और विदेशनीति पर फ़ौजी अफ़सरों की खुली टिप्पणियों पर भी कोई एतराज़ नही होता.
हिंदुओं का सैन्यीकरण
संघ और सेना के बीच का अंतर मिटाना आरएसएस की सबसे बड़ी चुनौती है और अगर संघ ऐसा करने में कामयाब हो गया तो विनायक दामोदर सावरकर का सपना साकार हो जाएगा.
क्योंकि हिंदुत्व की विचारधारा को सान चढ़ाकर उसे उग्रवादी तेवर देने वाले सावरकर ने सबसे पहले कहा था- राजनीति का हिंदूकरण करो और हिंदुओं का सैन्यीकरण करो.
पिछले लगभग चार साल में नरेंद्र मोदी सरकार के दौरान जितनी तेज़ी से भारत में राजनीति का हिंदूकरण हुआ है शायद ख़ुद संघ को भी इसका अंदाज़ा नहीं रहा होगा.
कथित धर्मनिरपेक्षता का हलफ़ उठाने वाली काँग्रेस के नेता राहुल गाँधी अब अपना कोई चुनाव अभियान मंदिर में माथा टेके बिना शुरू नहीं कर सकते, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल काँग्रेस को संघ की ध्रुवीकरण की राजनीति को टक्कर देने का कोई फॉर्मूला नहीं सूझ रहा है तो वो ब्राह्मण सम्मेलन करवाने और भगवद्गीता बाँटने पर मजबूर हुई है.
भारतीय जनता पार्टी को भले ही काँग्रेस और तृणमूल काँग्रेस का ये हिंदुत्व पसंद नहीं आ रहा हो पर संघ के लिए इससे अच्छी ख़बर कुछ और नहीं हो सकती.
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बजरंग दल की ट्रेनिंग
अब बचा सवाल हिंदुओं के सैन्यीकरण का. उन्हें अनुशासित, उग्र और हमलावर बनाने का.
इसके लिए पिछले कई बरसों से बजरंग दल इस काम में लगा हुआ है.
बजरंग दल के आत्मरक्षा शिविरों में किशोर उम्र के लड़कों को लाठी, त्रिशूल और छर्रे वाली बंदूक देकर "आतंकवादियों" से टक्कर लेना सिखाया जाता है. इन ट्रेनिंग कैम्पों में बजरंग दल के ही कुछ दाढ़ी वाले स्वयंसेवक मुसलमानों जैसी टोपी पहनकर "आतंकवादियों" का रोल निभाते हैं.
उनकी वेशभूषा से तय हो जाता है कि राष्ट्र के दुश्मन कौन हैं और उनसे कैसे निपटना है.
संघ को भरोसा है कि सैन्यीकरण की ये प्रक्रिया पूरी होते ही समाज में उसका इतना व्यापक विस्तार हो जाएगा कि भारतीय संसद, न्यायपालिका, शिक्षण संस्थान, पुलिस, पैरामिलिटरी और अंत में सेना के तीनो अंग उसके सामने सिर झुकाए खड़े होंगे.
पर फ़िलहाल भारतीय सेना एक धर्मनिरपेक्ष और प्रोफ़ेशनल संगठन है. उस पर इस मुल्क के हिंदुओं, मुसलमानों, ईसाइयों और सिखों सहित ज़्यादातर लोगों को भरोसा है.
यही कारण है कि जब नागरिक प्रशासन सांप्रदायिक दंगों पर क़ाबू करने में नाकाम होता है तो फ़ौज को ही बुलाया जाता है. भारत की धर्मनिरपेक्ष फ़ौज के सैनिक जब दंगाग्रस्त इलाक़ों में फ़्लैग मार्च करते हैं तो दंगाइयों की हिम्मत पस्त पड़ जाती है और दंगे बंद हो जाते हैं.
मोहन भागवत और डॉक्टर मनमोहन वैद्य क्या सोचकर उम्मीद कर रहे हैं कि भारतीय सेना संघ के स्वयंसेवकों को ट्रेनिंग देगी?