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ब्लॉग: किसानों के फफोलों से शमी के घर की कलह ज़्यादा अहम क्यों?

किसान शहरी मध्यम वर्ग के लिए 'ग़ैर' है, 'पराया' है. पढ़े-लिखे नगरवासियों की बातचीत में किसान शब्द कितनी बार सुनाई देता है?

शायद आपको याद होगा, टीवी के शुरुआती दिनों में दूरदर्शन पर 'कृषि दर्शन' देखने वाले शहरियों का ख़ासा मज़ाक बनाया जाता था.

उस मज़ाक की जड़ में ये धारणा थी कि खेती-किसानी गँवारों-पिछड़ों का काम है.

By BBC News हिन्दी
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किसानों का प्रदर्शन
AFP
किसानों का प्रदर्शन

किसान शहरी मध्यम वर्ग के लिए 'ग़ैर' है, 'पराया' है. पढ़े-लिखे नगरवासियों की बातचीत में किसान शब्द कितनी बार सुनाई देता है?

शायद आपको याद होगा, टीवी के शुरुआती दिनों में दूरदर्शन पर 'कृषि दर्शन' देखने वाले शहरियों का ख़ासा मज़ाक बनाया जाता था.

उस मज़ाक की जड़ में ये धारणा थी कि खेती-किसानी गँवारों-पिछड़ों का काम है. ऐसे लोगों की ज़िंदगी में प्रबुद्ध शहरियों को क्यों दिलचस्पी लेनी चाहिए? 'भारत एक कृषि प्रधान देश है', स्कूल में रटा हुआ ये वाक्य उन लोगों के बारे में कुछ नहीं बताता जो भारत को कृषि प्रधान देश बनाते हैं.

टीवी चैनलों पर 180 किलोमीटर पैदल चलकर आने वाले किसानों के प्रदर्शन की चर्चा अंतिम दिन होने की कई बड़ी वजहें हैं, लेकिन एक वजह ये भी है कि न्यूज़रूम में निर्णय लेने वाले कमोबेश सभी लोग मानते हैं कि शहरी टीवी दर्शक किसानों को नहीं, सेलिब्रिटीज़ को देखना चाहते हैं.

महाराष्ट्र किसान आंदोलन, किसान आंदोलन,
Getty Images
महाराष्ट्र किसान आंदोलन, किसान आंदोलन,

'शमी का गृह क्लेश किसानों के फफोलों से ज़्यादा अहम'

किसानों की आत्महत्या पर ख़ुद को संभ्रात समझने वाले लोगों का रवैया सब जानते हैं, हर साल कई हज़ार किसान आत्महत्या करते रहे लेकिन टीवी चैनलों या जिसे 'मेनस्ट्रीम मीडिया' कहा जाता है उसके लिए ये कोई बड़ी बात नहीं रही, क्योंकि ये मान लिया गया कि किसानों के मरने से टीवी देखने वाला दर्शक दुखी नहीं होता.

किसान हम सबके जीवन का आधार हैं और उनके बर्बाद होने से, बदहाल से हमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, पीने का साफ़ पानी मिलना मुहाल हो रहा है हमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, साँस लेना मुश्किल है लेकिन मीडिया तो बस हमारा दिल बहलाए, क्या शहरी मध्यवर्ग इतना मूर्ख है कि अपना भला-बुरा नहीं समझता या उसे मूर्ख बनाया जा रहा है?

ये गहराई से समझने की कोशिश करनी चाहिए कि मोहम्मद शमी का पारिवारिक क्लेश, हज़ारों-लाखों किसानों के फफोलों से ज्यादा अहम कैसे हो गया?

'किसान नपुंसकता की वजह से आत्महत्या कर रहे हैं' या 'किसान मंत्र पढ़कर बीज बोएँ तो फ़सल बेहतर होगी', जैसी बातें बोलकर ज़िम्मेदार मंत्री निकल लेते हैं, इस पर शहरी मीडिया में कभी वैसी प्रतिक्रिया नहीं होती है, जैसी होनी चाहिए.

इसकी वजह यही है कि शहर में रहने वाले तीस प्रतिशत मध्यवर्गीय लोगों ने ख़ुद को 'मेनस्ट्रीम' मान लिया और बाक़ी आबादी को हाशिये पर धकेल दिया, टीवी चैनलों को ग़ौर से देखें तो आपको शायद ही कोई चेहरा नज़र आएगा जिसका ताल्लुक़ देश की 70 प्रतिशत जनसंख्या से हो, किसान जिसका बड़ा हिस्सा हैं.

महाराष्ट्र किसान आंदोलन, किसान आंदोलन,
Getty Images
महाराष्ट्र किसान आंदोलन, किसान आंदोलन,

खबरें ही नहीं सीरियल से भी गायब

बात सिर्फ़ ख़बरी चैनलों की नहीं है. आपने कौन-सा सीरियल देखा जिसमें गाँव दिखाई देता है? गाँव की तरफ़ देखना मानो ऐसा है, उधर मत देखो नहीं तो पिछड़े समझ लिए जाओगे. क्या गाँव में दुख-दर्द, हँसी-खुशी और ड्रामा नहीं है जिसे टीवी पर दिखाया जा सके, लेकिन सारे सीरियल धनी परिवारों की सास-बहुओं के झगड़े दिखा रहे हैं, यही मेनस्ट्रीम है, बाक़ी 70 प्रतिशत नहीं.

जिनके बाप-दादा गाँव से ही शहर आए थे और खेती ही करते थे उनकी दूसरी-तीसरी पीढ़ी किसानों को ग़ैर समझने लगी है. ग़ैर का दर्द उन्हें तकलीफ़ नहीं पहुँचाता. मुंबई पहुँचे किसानों के पैरों के छाले दूसरे लोगों के पैरों के छाले हैं, अपने लोगों के पैरों के छाले होते तो ज्यादा तकलीफ़ होती.

एक स्कूल में एक बच्चे की हत्या दुखद है, दिल्ली में जब ऐसा हुआ तो ऐसा लगा कि पूरा देश हिल गया, टीवी चैनलों पर लाइव अपडेट आते रहे. यही बच्चा अगर गाँव के स्कूल में मरा होता तो किसी को बहुत फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला था, क्योंकि वो आपकी नज़रों में 'पराये' और 'ग़ैर' बना दिए गए हैं.

पिछले 20 सालों में शहर और गाँव में रहने वालों के बीच दूरियाँ बहुत बढ़ गई हैं, इसके बीसियों कारण हैं लेकिन मोटे तौर पर दोनों एक-दूसरे के लिए अजनबी हो चुके हैं. इसमें ख़ुद को अपमार्केट समझने वाले शहरी मीडिया ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई है, वो सिर्फ़ 'फ़ीलगु़ड' बेचना चाहता है, विज्ञापन की इकोनॉमी के हिसाब से इसे सही ठहराया जाना तार्किक लगने लगता है.

अभी हम वहाँ तक पहुँच गए हैं जहाँ शहर की युवा पीढ़ी हॉलीवुड से रिलेट कर सकती है लेकिन किसान या आदिवासियों से नहीं.

कृषि प्रधान देश के अन्नदाता किसानों की उपेक्षा की एक वजह ये भी है कि वे जातियों में, राज्यों में, क्षेत्रों में बँटे हैं, उनके वोटों की वैसे चिंता नहीं की जाती जैसी चिंता राजस्थान के राजपूत वोटों, हरियाणा के जाट वोटों या कर्नाटक के लिंगायत वोटों की होती है.

चुनावों में किसान की बात

ऐसा नहीं है कि नेता किसानों को हमेशा नज़रअंदाज़ करते हैं. किसानों की जितनी भी बात होती है वे नेता ही करते हैं, चुनाव के ठीक पहले करते हैं, उनके कर्ज़ भी माफ़ किए गए हैं क्योंकि ढेर सारे चुनाव क्षेत्र ग्रामीण हैं. गाँवों की उपेक्षा करने का असर गुजरात चुनाव में दिखा जहाँ बीजेपी को ग्रामीण इलाक़ों की सीटें गँवानी पड़ीं.

प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री किसानों की आमदनी दोगुनी करने की बात करते रहते हैं, किसान चैनल पर उन्हें हरे-भरे भविष्य की झलक दिखाई जाती है और उनकी समस्याओं का समाधान भी बताया जाता है लेकिन किसान देश के शहरी-मध्यवर्गीय-शिक्षित व्यक्ति की चेतना में कहाँ है?

मुंबई के प्रदर्शनकारियों में बड़ी संख्या में आदिवासी भी हैं, जो जंगल पर अधिकार की माँग कर रहे हैं, आदिवासी किसानों के मुक़ाबले और भी ज्यादा पराये हैं. उनका नाम लेते ही कुछ लोगों के ज़हन में जो तस्वीर उभरती है वो है विचित्र कपड़े पहनकर 'झिंगा ला ला हुर्र' जैसे गाने गाते लोग. आदिवासियों के बारे में देश के लोग बहुत नहीं जानते और ऐसा लगता है कि वो जानना भी नहीं चाहते.

ग़ैरियत और परायेपन के इस दौर में मुंबई के आम लोगों ने प्रदर्शनकारियों के साथ जितना अपनापन दिखाया है वो राहत की बात है, हालाँकि इसकी बड़ी वजह प्रदर्शनकारियों का अदभुत संयम और शांतिपूर्ण रवैया भी है, जिन्होंने मुंबई के जनजीवन में कम-से-कम बाधा उत्पन्न हो इसके लिए रात को चलने जैसा फ़ैसला किया.

आप लोगों को जानेंगे-समझेंगे तो ये भी समझ पाएँगे कि उनके पैरों में पड़े छाले वैसे ही दुखते हैं जैसे आपके. मगर ये जानना समझना फिलहाल टीवी देखकर तो नहीं हो पाएगा.

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English summary
Blog Why is the contention of Shamis house more important than the farmers fringe
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