ब्लॉग: आख़िर कब बदलेंगे वैवाहिक विज्ञापन
ये उस दौर की बात है जब स्कूल हो या कॉलेज, कंप्यूटर मुश्किल से ही मिलते थे. एक बार मिला तो संयोगवश मैं बीबीसी की बेबसाइट के उस पेज पर जा पहुँची जहाँ 1998 में भारत में बीबीसी संवाददाता मार्क वूलरिज ने भारत में मेट्रोमोनियल विज्ञापनों पर कुछ लिखा था.
इस आर्टिकल के मुताबिक़ लड़के ने शादी के विज्ञापन में अपनी तारीफ़ कुछ यूँ की थी, "कुंवारा और वर्जिन लड़का, उम्र 39 साल पर देखने में सच्ची 30 का लगता हूँ, 180 सेंटीमीटर कद, गोरा, बेहद ख़ूबसूरत, शाकाहारी, शराब और
ये उस दौर की बात है जब स्कूल हो या कॉलेज, कंप्यूटर मुश्किल से ही मिलते थे. एक बार मिला तो संयोगवश मैं बीबीसी की बेबसाइट के उस पेज पर जा पहुँची जहाँ 1998 में भारत में बीबीसी संवाददाता मार्क वूलरिज ने भारत में मेट्रोमोनियल विज्ञापनों पर कुछ लिखा था.
इस आर्टिकल के मुताबिक़ लड़के ने शादी के विज्ञापन में अपनी तारीफ़ कुछ यूँ की थी, "कुंवारा और वर्जिन लड़का, उम्र 39 साल पर देखने में सच्ची 30 का लगता हूँ, 180 सेंटीमीटर कद, गोरा, बेहद ख़ूबसूरत, शाकाहारी, शराब और सिगरेट न पीने वाला, अमरीका जा चुका हूँ, आसार हैं कि जल्द ही मशहूर हो जाऊँगा, साउथ दिल्ली में एक बड़ा बंगला भी है."
और होने वाली दुल्हन से बस इतनी सी उम्मीद थी- स्लिम, बहुत ही सुंदर लड़की और लड़की की उम्र 30 से कम.
ये 20 साल पुराना विज्ञापन हैं लेकिन कई मेट्रिमोनियल विज्ञापनों की भाषा आज भी इतनी ही दकियानूसी है जितनी 20-25 साल पहले हुआ करती .
पिछले हफ़्ते बंगलौर में ऐसा ही विज्ञापन शादी कराने वाली एक संस्था ने निकाला. इसमें शादी करने की इच्छा रखने वाले ऐसे युवक-युवतियों को बुलाया गया जो जीवन में बहुत 'सफल' हैं- और लड़कियों के लिए सफल होने का पैमाना था सुंदर होना. विरोध के बाद इसके लिए माफी माँगी गई.
सुंदर-सुशील-स्लिम-घरेलू-कमाऊ
इससे पहले कि बातों का सिलसिला शुरू हो, एक कन्फ़ेशन- मुझे मेट्रिमोनियल एड यानी शादी के लिए अख़बारों में आने वाल इश्तिहारों से चिढ़ रही है.
ठीक से कहूँ तो शादी के इश्तिहारों से नहीं, चिढ़ उन लाइनों से हैं जिनमें शादी लायक लड़कियों में पाए जाने वाले गुणों का ब्यौरा होता है.
यानी लड़की सुंदर-सुशील-स्लिम-घरेलू-कमाऊ (और भी जाने क्या क्या) होनी चाहिए.
पिछले 20 सालों में शादी के विज्ञापनों में बदलाव आया तो ज़रूर है - अब अख़बार ही नहीं माँ-बाप वेबसाइटों पर भी विज्ञापन देने लगे हैं और लड़का-लड़की दोनों की तस्वीरें रहती हैं.
लड़की की तस्वीरों में सूट-साड़ी और जीन्स-स्कर्ट वाली फोटो होती हैं.
लेकिन लड़कियों को सुंदर, सुशील और स्लिम से छुटकारा अब तक नहीं मिला है जबकि पहले से उलट आजकल के ज़माने में लड़के और लड़की दोनों से कमाऊ होने की उम्मीद रखी जाती है.
एक मेट्रिमोनियल वेबसाइट की तो टैगलाइन ही यही है- 'परफ़ेक्ट मेड टू ऑर्डर दुल्हन' की आपकी खोज अब ख़त्म हुई और 'दुल्हन जो आपकी हर कसौटी पर खरी उतरेगी'.
मानो दुल्हन न हो कोई फ़ैशनेबल डिज़ाइनर गुड़िया हो जिसे ग्राहक की ज़रूरत के हिसाब से तैयार किया जाता हो.
इतना ही नहीं वेबसाइट में दुल्हनों की कैटेगरी भी है- घरेलू, आज्ञाकारी, बचत-फ़ोक्सड, लो- मेनटेनेंस, एनआरआई रेडी, 5 स्टार के तौर तरीकों वाली वगैरह वगैरह.
ये विज्ञापन देने वाले कोई और नहीं हमारे-आपके जानने पहचानने वाले लोग-दोस्त और रिश्तेदार होते हैं.
शादी का असली मतलब क्या है?
ऑक्सफ़र्ड डिक्शनरी के मुताबिक मैरिज यानी शादी की परिभाषा है- साझीदार के तौर पर दो ऐसे लोगों का मिलन जो क़ानूनी या औपचारिक रूप से मान्यता प्राप्त हो.
लेकिन इन मेट्रोमोनियल विज्ञापनों की भाषा पर जाएँ तो इनके आधार पर हुई ये शादियाँ मान्यता प्राप्त तो हो जाती हैं पर क्या इनमें दोनों लोगों को समान साझीदार का दर्जा मिलता हुआ दिखता है?
जहाँ शादी से पहले ही रिश्ते की शुरुआत ग़ैर बराबरी से होती दिखती है क्योंकि लड़का और लड़की को शादी से पहली ही, विज्ञापनों में बिल्कुल अलग-अलग तराज़ू पर तौला जाता है.
शायद इसी तरह के विज्ञापनों पर अपना विरोध जताने के लिए 2015 में 24 साल की इंदुजा पिल्लई ने अपने माता-पिता के छपवाए इश्तिहार के खिलाफ़ अपना अलग विज्ञापन छपवा डाला था.
इंदुजा का कहना था कि उन्हें इस बात से कोई ऐतराज़ नहीं था कि उनके माँ-बाप उनके लिए मेट्रिमोनियल विज्ञापन छपवा रहे थे.
लेकिन उन्हें इस पर आपत्ति थी कि इस विज्ञापन में जो इंदुजा थी वो असल में वैसी नहीं थी.
अपने ख़ुद के लिखे विज्ञापन में इंदुजा ने लिखा था, "मैं कोई सॉफ्टवेयर इंजीनियर नही हूँ, मैं चश्मा पहनती हूँ और इन्हें पहनकर थोड़ी अनफ़ैशनेबल दिखती हूँ, मुझे टीवी देखना पसंद नहीं हैं, मैं कभी अपने बाल लंबे नहीं करूँगी. मैं हमेशा के लिए साथ निभाने वालों में से हूँ."
सोशल मीडिया पर शुरू की तलाश
और शायद इसी जाल से बचने के लिए 28 साल की ज्योति ने भी कुछ महीने पहले साल सीधे फ़ेसबुक पर अपना संदेश डाला, "मैं शादी शुदा नहीं हूँ. मेरे दोस्त किसी को जानते हों तो बताएँ. मेरी कोई माँगे नहीं हैं. जाति और कुंडली मेरे लिए मायने नहीं रखती. मेरे माता-पिता अब ज़िंदा नहीं है. मैंने फ़ैशन डिज़ाइनिंग में बीएसई की है. मेरी उम्र 28 साल है."
अप्रैल में ज्योति का ये पोस्ट इंटरनेट पर वायरल हो गया जिसे 6100 लोगों ने शेयर किया और क़रीब 5000 लोगों ने उनकी पोस्ट पर कमेंट किया.
जब मैं ज्योति को ढूँढते हुए फ़ेसबुक पर पहुँची तो देखा कि क़रीब एक महीने पहले उन्होंने अपनी शादी की फ़ोटो पोस्ट की हुई थी.
कुछ ऐसा ही 34 साल के रजनीश मंजेरी ने भी पिछले साल किया था.
वैसे बारीकी से देखा जाए तो अख़बारों और वेबसाइटों में छपने वाले शादी के इन इश्तेहारों की भाषा समाज की उसी मानसिकता का ही तो अक्स है, जो आज भी पूरी तरह से रूढ़िवाद के चंगुल से आज़ाद नहीं हो पाई है.
मुझे याद है कि जब इतवार के दिन स्कूल की छुट्टी होती थी और घर पर अख़बारों का अंबार होता था, तो आगे-पीछे के पन्ने पढ़ने के बाद नज़र मेट्रिमोनियल वाले पेज पर जाती थी.
पढ़कर बहुत अजीब लगता था कि इन लोगों को बहू और बीवी चाहिए या ब्यूटी क्वीन और कुक क्योंकि इन विज्ञापनों में अक्सर लिखा रहता था- एक ऐसी लड़की की तलाश है जो घरेलू हो, जिसे खाना बनाना आता हो और दिखने में सुंदर हो.
वहीं, लड़के के बारे में बस इतना ही होता था कि वो किस जाति का है और सरकारी नौकरी करता है. बहुत हुआ तो ये भी लिखा जाता था कि लड़का न शराब पीता है और न माँस-मच्छी खाता है.
मैं इन विज्ञापनों की कतरनें अपनी काली स्क्रैपबुक में संभाल कर रखने लगी कि कभी देखूँगी कि इनमें कितना बदलाव आता है.
आज भी वो कतरने मेरे घर में कहीं परछ्त्ती पर या अलमारी की शेल्फ़ पर पुरानी किताबों के भार तले दबी हुई पड़ी होंगी.
पुरानी पड़ चुके शादी के विज्ञापनों की उन कतरनों पर धूल की परत जम गई होगी. लेकिन उन कतरनों की धूल पोंछकर आज भी अगर करीने से किसी अख़बार में चिपका दूँ या छपवा दूँ तो यक़ीन मानिए ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ेगा.
हाँ लड़कों के लिए सरकारी की जगह ज़्यादातर एमएनसी की नौकरी लिखनी पड़ेगी और महीने की तनख़्वाह चार की जगह पाँच अंकों में होने लगी है.
और लड़कियों का तो वही- सुंदर, सुशील और घरेलू चालू है. विश्वास न हो तो इसी संडे मेट्रिमोनियल वाला पेज निकालकर देख लीजिए.
हाँ आजकल के युवाओं के लिए वैसे टिंडर और बंबल जैसे ऐप्स हैं जिन पर बहस कभी और सही.