ब्लॉग: 'अंडरवर्ल्ड वाले' वो ज्योतिर्मय डे जिन्हें मैं जानता था
वो साल 2002 था. कॉलेज न्यूज़लेटर में मुंबई अंडरवर्ल्ड पर लिखते हुए एक रुकावट आई. इससे बाहर निकलने के लिए मेरे पास कोई 'संपर्क या स्रोत' नहीं था. आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था.
इस पूरे दरम्यान 'संडे एक्सप्रेस' में छपी एक छोटी-सी बाइलाइन स्टोरी मुझे लगातार परेशान करती रही. 'अंडरवर्ल्ड से नोट्स' के शीर्षक से छपने वाले अपने इस साप्ताहिक
वो साल 2002 था. कॉलेज न्यूज़लेटर में मुंबई अंडरवर्ल्ड पर लिखते हुए एक रुकावट आई. इससे बाहर निकलने के लिए मेरे पास कोई 'संपर्क या स्रोत' नहीं था. आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था.
इस पूरे दरम्यान 'संडे एक्सप्रेस' में छपी एक छोटी-सी बाइलाइन स्टोरी मुझे लगातार परेशान करती रही. 'अंडरवर्ल्ड से नोट्स' के शीर्षक से छपने वाले अपने इस साप्ताहिक स्तंभ में जे डे (ज्योतिर्मय डे) एक के बाद एक दिलचस्प कहानियां लिखते थे.
फिर भी उनसे मदद मांगने का ख़्याल मेरे ज़हन में नहीं आया.
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जब मैं जे डे से मिला
लेकिन यह बात मेरे संपादक के दिमाग़ में आई और फिर मैं मुंबई के लालबाग इलाके में पहुंच गया जहां तब इंडियन एक्सप्रेस का दफ़्तर हुआ करता था.
ईमानदारी से मुझे इस मीटिंग से कुछ हासिल हो पाने की गुंजाइश नहीं नज़र आ रही थी.
मैंने ये भी सोचा कि उनके जैसे पत्रकार के पास एक कॉलेज के छात्र की सहायता करने से ज़्यादा ज़रूरी काम होंगे.
लेकिन आखिरकार जब मैं 'डे सर' से मिला, जैसा कि मैंने बाद में उन्हें संबोधित करना शुरू किया, उन्होंने मुझे एक कप चाय की पेशकश की और मुंबई की उन बदनाम गलियों से मेरा परिचय कराया.
इस मुलाकात के बाद मेरी डायरी में अंडरवर्ल्ड से जुड़े सभी सवालों के आगे "हां" लिखा हुआ था. मेरे कोई ऐसे सवाल नहीं थे जिनके जवाब मुझे नहीं मिले.
जब यह लेख छपा तो मैं उसकी एक कॉपी लेकर उनके पास पहुंचा.
मैंने जो कुछ भी लिखा उससे खुश होकर उन्होंने फिर एक बार चाय की पेशकश की.
मैंने यह तय किया कि उनके पास इंटर्न के रूप में काम करके उन्हें बहुत क़रीब से देखूं.
वो कोस्टगार्ड वाली स्टोरी
बात करने में झिझक और काम के प्रति समर्पण के कारण जे डे दफ़्तर के कोने में बैठे होते जहां शायद ही कोई और काम करना चाहता. शाम 7 बजे दफ़्तर आने के बाद चाय की चुस्कियों के बीच वो अपनी ख़बर लिखा करते और डेडलाइन का हमेशा ख़्याल रखते.
कभी-कभी वो कुछ काग़ज़ात देते और कहते कि 'इन्हें पढ़ कर देखो कोई स्टोरी बन सकती है क्या.'
सालों बाद जब मैं मुंबई में 'मिड डे' अख़बार का संवाददाता था और कुछ वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के बार में रिपोर्ट कर रहा था तो उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया.
उन्होंने कहा कि 'वो यह जांचना चाहते हैं कि मैं वही जुगल पुरोहित हूं जिसे वो जानते रहे थे.'
उनके नेटवर्क से मैं हैरान था. हम समय-समय पर मिलते रहे.
एक बार, इंडियन कोस्ट गार्ड के एक कार्यक्रम में हम दोनों एक वरिष्ठ तटरक्षक से बात कर रहे थे. कुछ देर के बाद जब मैं दूर चला गया तो मैंने देखा कि वो अभी भी उसी तटरक्षक के साथ बात करने में मशगूल थे. इसके कुछ दिनों बाद मुझे इसका अहसास हुआ कि उस कोस्ट गार्ड की बातों पर तब मैंने पर्याप्त ध्यान नहीं दिया था.
तब वो कोस्ट गार्ड से क्या बात कर रहे थे उस दिन की उस जिज्ञासा का जवाब मुझे उनकी एक न्यूज़ रिपोर्ट से मिला जिसमें उस जहाज़ (जिसमें उस दिन हम सवार थे) की कुछ गंभीर कमियों को उजागर किया गया था.
इंडियन कोस्ट गार्ड के अधिकारी भौचक्के रह गए थे. वो कभी नहीं जान सके कि ये कहां से आया, लेकिन मुझे पता था.
यह उनकी विनम्रता और बहुत कम समय में लोगों का विश्वास जीत लेने की उनकी क्षमता थी.
जे डे से आख़िरी मुलाकात
आख़िरी बार मैं उनसे 'मिड डे' अख़बार के दफ़्तर में मिला. तब उन्होंने वहां ज्वाइन किया था.
यह मुलाकात उन्हें गोली मारे जाने से कुछ हफ़्ते पहले हुई थी.
तब वो मुंबई समुद्रतट पर तेल माफ़िया की गतिविधियों पर एक सिरीज़ कर रहे थे.
मुझे 'इंडियन एक्सप्रेस' में इंटर्नशिप के बाद उनके साथ काम नहीं करने का अफ़सोस था जो मैंने उन्हें बताया भी था. वो मुस्कुराए और उम्मीद जताई कि आगे ऐसा हो सके.
लेकिन ऐसा हो नहीं सका.
उस बारिश वाली शनिवार की दोपहर उन्हें गोली लगने के कुछ ही मिनटों के बाद उनके एडिटर टेलीविज़न पर थे. तब तक डे को मृत घोषित कर दिया गया था.
एडिटर ने कहा, "डे के सबसे बड़े योगदानों में से एक यह है कि उन्होंने पत्रकारों की एक समूची पीढ़ी को प्रशिक्षित किया."
उनकी मौत के बाद पुलिस सूत्रों और उनके प्रतिस्पर्धी संवाददाताओं ने बहुत बेतकल्लुफ़ होकर उनके निजी जीवन और तथाकथित ग़लत कामों के बारे में लिखा. उन्होंने सुझाव दिया कि जो कुछ भी हुआ उसके लिए वो ही ज़िम्मेदार थे.
एक बाइलाइन के लालच में उन्होंने उस आदमी के चिथड़े उड़ा दिए जो अपने बचाव के लिए मौजूद भी नहीं हो सकता था.
उनकी मौत के महीनों बाद तक भी मैं मुंबई के एक साधारण फ्लैट में रह रही उनकी बीमार मां और बहन के संपर्क में था. शुरू-शुरू में उनमें गुस्सा था जो बाद में उनके अंदर ही सिमट कर रह गया.
शायद बिगड़े माहौल से उन्हें यक़ीन हो गया था कि उन्हें सिर झुका कर और अपना मुंह बंद करके ही रखना चाहिए. उन्हें किसी तरह की परेशानी न हो, इसीलिए मैंने उनसे दूर रहने का फ़ैसला किया.
डे ने ऐसा क्या किया था?
इसका जवाब उस शाम को मिला जब मैं 'इंडियन एक्सप्रेस' में बतौर इंटर्न काम कर रहा था.
जब वो ऑफ़िस आए तो मैंने उनसे वाक़ई यह पूछने की हिम्मत की कि वो कहानियों और दस्तावेज़ों के लिए स्रोत कैसे मैनेज करते हैं.
उनका जवाब आज भी मेरे साथ बना हुआ है.
उन्होंने कहा, "हमारी सैलरी इतनी नहीं कि हम ख़बरें ख़रीद सकें. तो एक अच्छा और भरोसेमंद रिपोर्टर बन कर अपना काम करते रहो."