ब्लॉग: असल हार कांग्रेस की नहीं, चुनाव आयोग की हुई
क्यों चुनाव आयोग को टीएन शेषन से सीख लेने की ज़रूरत है? पढ़िए ज़ुबैर अहमद का ब्लॉग
गुजरात और हिमाचल प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी जीती. कांग्रेस पार्टी के मुताबिक, वो हारकर भी जीती. लेकिन चुनाव पर नज़र रखने वालों की मानें तो असल हार चुनाव आयोग की हुई.
इस बार आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठे, जिनका संतोषजनक जवाब नहीं आया.
राहुल गांधी ने चुनावी प्रचार के अंत में एक टीवी चैनल को इंटरव्यू दिया. इस इंटरव्यू को लेकर चुनाव आयोग ने ना केवल कांग्रेस अध्यक्ष को नोटिस भेजा बल्कि टीवी चैनल को इंटरव्यू ना दिखाने का आदेश भी जारी किया. कांग्रेस ने कड़े शब्दों में चुनाव आयोग पर भाजपा का साथ देने का आरोप लगाया.
दूसरे चरण के चुनाव के दिन प्रधानमंत्री के कथित रोड शो के ख़िलाफ़ कांग्रेस ने चुनाव आयोग से शिकायत कर कहा कि ये आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन है. लेकिन चुनाव आयोग ने इस पर कोई कार्रवाई नहीं की.
सच क्या है, ये तो चुनाव आयोग ही जाने. लेकिन इसकी निष्पक्षता पर सवाल उठना एक गंभीर मामला है, जिस पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया गया है.
टीएन शेषन, जिन्हें भूला नहीं जा सकता
चुनाव आयोग संवैधानिक तौर पर एक आज़ाद संस्था है जिसका काम निष्पक्ष तरीक़े से चुनाव कराना है. भारत का राष्ट्रपति मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) को नियुक्त करता है. सीईसी निर्वाचन आयोग का मुखिया होता है. नियुक्त होने के बाद मुख्य चुनाव आयुक्त राष्ट्रपति या सरकार के प्रति जवाबदेह नहीं होता.
चुनाव आयोग की निष्पक्षता को स्थापित करने में पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन का योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता. उनसे पहले चुनाव आयोग अफसरशाही विवरण के लिए अधिक जाना जाता था.
एक बार सुब्रमण्यम स्वामी और जनता पार्टी से जुड़े विवाद का केस चल रहा था. मामले की कई बार सुनवाई हुई और 1600 पन्नों का नोट्स भी लिया गया लेकिन आयोग किसी नतीजे पर नहीं पहुँच सका. शेषन ने एक बार की सुनवाई में इसे निपटा दिया.
आयोग के दूसरे अध्यक्षों की तरह टीएन शेषन पर भी राजनितिक दबाव भी बनाया जाता था लेकिन उन्होंने किसी की नहीं सुनी.
एक बार जब 1992 में उन्होंने बिहार और पंजाब में चुनाव रद्द कर दिया तो कुछ लोगों ने उनके खिलाफ दोषारोपण की कोशिश की लेकिन संसद के स्पीकर ने इस कदम को खारिज कर दिया.
40 हजार केस निपटाने वाले शेषन
शेषन ने अपने काल में फ़र्ज़ी मामलों के 40,000 केस निपटाए और सैंकड़ों उम्मीदवारों को अयोग्य ठहराया.
आखिर 1993 में केंद्रीय सरकार ने संविधान में संशोधन करके दो अतिरिक्त आयुक्त की नियुक्ति का फैसला किया, जिसके बाद शेषन ने कहा था कि इससे आयोग की आज़ादी पर असर पड़ेगा.
दो साल पहले खुद तत्कालीन चुनाव आयुक्त ने कहा था कि इसकी निष्पक्षता को क़ायम रखने के लिए कई तरह के बदलाव की ज़रूरत है.
इसके सुझावों में ये मुख्य बातें थीं:
- आयोग को वित्तीय स्वतंत्रता हासिल हो
- आयोग का अपना एक अलग सेक्रेटेरिएट हो
- स्टाफ की नियुक्ति खुद आयोग करे
- अतिरिक्त आयुक्त की नियुक्ति सरकार के बजाय आयोग करे
इन सुझावों पर अब तक कोई क़दम नहीं उठाए गए हैं. आने वाले महीनों में राजस्थान, मध्यप्रदेश और कर्नाटक जैसे अहम राज्यों में चुनाव होंगे और फिर 2019 में आम चुनाव होना है.
चुनाव आयोग पर भारी ज़िम्मेदारियाँ हैं. इन में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों में कथित गड़बड़ी को दूर करना एक अहम ज़िम्मेदारी होगी.
लेकिन इससे भी अहम ज़िम्मेदारी है मतदाताओं का चुनाव आयोग पर भरोसे को स्थापित करना. ठीक उसी तरह से जिस तरह से टीएन शेषन के दौर में था.
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