ब्लॉग: वीएस नायपॉल के साथ बंद कमरे में डेढ़ घंटा
मैंने नायपॉल को विस्तार से बताया कि नक्सली छापामारों में ज़्यादातर आदिवासी मर्द और औरत बेहद वंचित लोग हैं और कम से कम बस्तर के जंगलों में उन्होंने भारतीय राज्य को पीछे धकेल दिया है. वो बारीक से बारीक जानकारी हासिल करना चाहते थे. मसलन, मैंने नक्सलवादियों से कैसे संपर्क किया, कैसे मैं उनसे मिला, किन परिस्थितियों में हम लोग जंगलों में रहे और वहाँ क्या किया.
कुछ बेचैन सी नज़र आ रही नादिरा नायपॉल धड़धड़ाती हुई कमरे में घुसीं और शिकायती लहजे वाली आभिजात्य अँग्रेज़ी में अपने पति से बोलीं - "विदिया, ही इज़ वेटिंग आउटसाइड."
"टैल हिम टु वेट फ़ॉर सम मोर टाइम"- कुर्सी पर बिना पहलू बदले विदिया ने जवाब दिया.
विदिया यानी साहित्य के नोबेल पुरस्कार विजेता सर विदियाधर सूरजप्रसाद नायपॉल. एक ऐसे लेखक, जिनके पुरखे ज़रूर भारत के थे लेकिन जिन्होंने ख़ुद को कभी हिंदुस्तानी नहीं माना. हिंदुस्तान के बारे में लिखते हुए या किसी भी विषय पर लिखते हुए, जो कभी भावुक नहीं हुए.
नायपॉल ने जब भारतीय सभ्यता को जख़्मी सभ्यता बताया या भारत को अँधेरा कोना बताया, तो उन्हें इस बात की परवाह नहीं थी कि उन्हें भारत-विरोधी कहा जाएगा. इसी तरह उन्होंने बस्तर में छापामार लड़ाई चला रहे माओवादियों को अरुंधति रॉय की तरह भावुक होकर ब्यूटीफ़ुल पीपुल नहीं कहा, बल्कि माओवादी आंदोलन को भारतीय मध्यमवर्गीय बेवक़ूफ़ों का दिमाग़ी फ़ितूर कहा.
मैं दिल्ली के मैरेडियन होटल के एक बड़े से एक्सक्लूसिव सुइट में अकेला सर विदिया के सामने रखी कुर्सी पर बैठा था.
मैं एक रिपोर्टर की हैसियत से एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त लेखक से इंटरव्यू लेने नहीं गया था, बल्कि वीएस नायपॉल ने मुझे मेरा इंटरव्यू करने के लिए बुलाया था. यही उनका तरीक़ा था और उनकी लेखन-यात्रा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भी.
नायपॉल को उनकी पाकिस्तानी पत्नी नादिरा बाहर इंतज़ार कर रहे जिन सज्जन के बारे में बताने आई थीं, वो थे आउटलुक मैगज़ीन के मैनेजिंग एडिटर तरुण जे तेजपाल. मैं तब आउटलुक में रिपोर्टर था.
न तरुण को पता था कि जिस शख़्स के कारण उन्हें बाहर के कमरे में कुछ और देर इंतज़ार करने को कहा गया है, वो उन्हीं के साथ काम करने वाला रिपोर्टर है और न मुझे पता था कि जिस सज्जन से पोलाइट बातचीत करते-करते शायद थक चुकीं नादिरा अपने पति से उलाहना करने कमरे के अंदर आईं, वो मेरे ही संपादक तेजपाल हैं.
मेरा एक सवाल
नायपॉल के हाथ में एक नोटपैड और पेंसिल थी और धैर्य से मेरी बात सुनते हुए वो बीच-बीच में नोट्स ले लेते थे.
पहला सवाल मैंने ही उनसे पूछा और तुरंत ताड़ गया कि सामने बैठा विश्व-प्रसिद्ध लेखक अपने लेखन के बारे में बहुत गोपनीयता बरतता है. मैंने उनसे पूछा- क्या आप किताब लिख रहे हैं? मुझे अंदाज़ा तो था कि नायपॉल अपने प्रोजेक्ट्स के बारे में आम तौर पर बात नहीं करते, लेकिन फिर भी चूँकि उन्होंने मुझे बातचीत के लिए बुलाया था, इसलिए मैंने सवाल पूछ ही लिया.
तब नायपॉल भारत में नक्सलवादी आंदोलन की थाह लेने के लिए आए थे. कुछ ही समय पहले मैं बस्तर में अबूझमाड़ के घने जंगलों में पीपुल्स वॉर ग्रुप (पीडब्ल्यूजी) के हथियारबंद छापामारों के साथ लगभग दो हफ़्ते बिताकर लौटा था. तब नक्सलियों ने माओवादी पार्टी नहीं बनाई थी और एके-47, 303 राइफ़लें, दस्ती बम, बारूदी सुरंगों और साधारण भरमार बंदूक़ों से लैस पीडब्ल्यूजी के छापामार दण्डकारण्य के जंगलों में काफ़ी तेज़ी से अपना प्रसार कर रहे थे.
"नहीं, अभी कुछ भी तय नहीं है"- नायपॉल ने मेरे सवाल को टाल दिया और बातचीत की शुरुआत में ही मुझसे मेरे बारे में तमाम निजी सवाल पूछ डाले- कहाँ पैदा हुआ, पारिवारिक स्थिति कैसी थी, घर-परिवार में कौन-कौन हैं, स्कूल-कॉलेज कहाँ था, सामाजिक समझ कैसी है, सामाजिक समझ कैसे बनी.
नायपॉल के लेखन का यही तरीक़ा था. कहानी-उपन्यास के अलावा उन्होंने जो भी लिखा उसके लिए लंबी-लंबी यात्राएँ कीं, साधारण और असाधारण लोगों से, पत्रकारों से, प्रोफ़ेसरों और अपराधियों से ख़ुद जाकर मिले, उनके बारे में जाना और उनकी विचार-प्रक्रिया को समझने के बाद अपनी समझ बनाई और लिखा.
मुंबई अंडरवर्ल्ड पर किताब लिखने से पहले नयपॉल ने मुंबई जाकर भाई लोगों के अड्डों पर माफ़िया डॉन्स से मुलाक़ात की. इस सिलसिले में उनकी मदद कर रहे पत्रकार और आउटलुक मैगज़ीन में मेरे साथी अजित पिल्लै ने अपनी किताब 'ऑफ़ द रिकॉर्ड' में लिखा कि नयपॉल मानकर चल रहे थे कि मुंबई के तमाम अंडरवर्ल्ड डॉन मुसलमान ही हैं.
लेकिन, अजित ने उन्हें बताया कि दाऊद इब्राहीम के गिरोह में कई गैंग्स्टर हिंदू भी हैं, जैसे छोटा राजन. इसके अलावा अमर नाइक, अरुण गावली, वरदराजन मुदलियार जैसे हिंदू माफ़िया गैंग्स्टर मुंबई में सक्रिय हैं.
अस्सी के दशक में दादर की गलियों में हिंदू गैंग्स्टरों से मुलाक़ात के बाद नायपॉल ने मुसलमानों के बारे में अपनी सोच बदली हो, ऐसा नहीं लगता.
'अमंग द बिलीवर्स' के लिए यात्रा
इस्लाम स्वीकार कर चुके प्राचीन समाजों पर अपनी विवादास्पद किताब 'अमंग द बिलीवर्स' लिखने के लिए नायपॉल ने छह महीने तक ईरान, पाकिस्तान, मलेशिया और इंडोनेशिया की यात्रा की और रास्ते में तमाम आम लोगों से बातचीत की. इसके बाद वो इस नतीजे पर पहुँचे कि इस्लाम लोगों को उनकी अपनी संस्कृति से काट देता है.
मैरेडियन होटल के उस आलीशान सुइट में नायपॉल भारत में माओवाद के असर पर मेरी थाह ले रहे थे. उनके मित्र और आउटलुक पत्रिका के संपादक विनोद मेहता ने नायपॉल को बताया होगा कि उनका एक रिपोर्टर बस्तर के जंगलों से लौटा है और नक्सलवादियों के बारे में जानकारी दे सकता है.
मैंने नायपॉल को विस्तार से बताया कि नक्सली छापामारों में ज़्यादातर आदिवासी मर्द और औरत बेहद वंचित लोग हैं और कम से कम बस्तर के जंगलों में उन्होंने भारतीय राज्य को पीछे धकेल दिया है. वो बारीक से बारीक जानकारी हासिल करना चाहते थे. मसलन, मैंने नक्सलवादियों से कैसे संपर्क किया, कैसे मैं उनसे मिला, किन परिस्थितियों में हम लोग जंगलों में रहे और वहाँ क्या किया.
एक बार फिर से दरवाज़े ठेलकर नादिरा नायपॉल अंदर आ गईँ. इस बार उनकी आवाज़ में बेसब्री और दबी हुई हैरानी भी थी. उन्होंने फिर कहा - विदिया, ही इज़ वेटिंग फ़ॉर यू!
पर वीएस नायपॉल की बेफ़िक्री फिर भी नहीं गई.
उन्होंने उसी लापरवाही से कहा - टैल हिम टु वेट. और वो फिर से मेरी ओर मुख़ातिब हो गए.
नक्सलवादी आंदोलन के बारे में नयपॉल की रिसर्च का ये शुरुआती हिस्सा था. इसके बाद वो आँध्र प्रदेश जाना चाहते थे. उन्होंने वहाँ के पुलिस अधिकारियों से संपर्क किया ताकि तेलंगाना के उन ज़िलों में वो जा सकें जहाँ नक्सलवादी आंदोलन अस्सी के दशक में अपनी राख से फिर निकल खड़ा हुआ था.
नक्सलियों पर नहीं लिखी किताब
लगभग दो महीने के बाद मुझे लंदन से वीएस नायपॉल के हाथ का लिखा एक फ़ैक्स मिला. उन्होंने बताया कि वो हिंदुस्तान आ रहे हैं और आँध्र प्रदेश जाएँगे. पर मैं इस फ़ैक्स का जवाब नहीं दे पाया. नायपॉल ने फिर मुझसे संपर्क नहीं किया लेकिन वो आँध्र प्रदेश गए और वहाँ शायद उनकी मुलाक़ात कुछ नक्सल नेताओं से हुई भी.
पर माओवाद का भारतीय संस्करण उन्हें प्रभावित करने में नाकाम रहा. शायद इसी वजह से उन्होंने भारतीय माओवाद पर किताब लिखने का विचार त्याग दिया था.
बरसों बाद लंदन में देर रात गए बीबीसी रेडियो फ़ोर पर मैंने सर विदिया की आवाज़ सुनी. वो आँध्र प्रदेश में नक्सलियों से अपनी मुलाक़ात के बारे में रेडियो रिपोर्ट सुना रहे थे. पूरे नक्सली आंदोलन को सिरे से ख़ारिज करते हुए उन्होंने कहा कि ये कुछ मध्यमवर्गीय लोगों के दिमाग़ का फ़ितूर है.
उन्होंने कहा, "मैं भारत गया और कुछ ऐसे लोगों से मिला जो गुरिल्ला युद्ध में लगे हैं. ये मध्यवर्गीय लोग हैं जो आत्ममुग्ध और बेवक़ूफ़ हैं. इसमें क्रांतिकारी विराटता जैसा कुछ भी नहीं है. कुछ भी नहीं."
न अंग्रेज़, न हिंदुस्तानी
लगभग डेढ़ घंटे तक बातचीत करने के बाद नायपॉल ने अपना नोटपैड और पेंसिल मेज़ पर रख दी. हम दोनों एक साथ कमरे से बाहर निकले. बाहर तरुण तेजपाल और मैं एक दूसरे के सामने 'तुम-यहाँ-कैसे-और-तुम-यहाँ-कैसे' की मुद्रा में खड़े थे.
हम चारों होटल की लॉबी में आए जहाँ सात फुटा पग्गड़धारी दरबान मेहमानों का स्वागत करने के लिए खड़ा होता है. और ऐन सबके सामने वीएस नायपॉल ने अपनी पाकिस्तानी पत्नी नादिरा नायपॉल को प्यार से चूम लिया.
इस सदी की शुरुआत में प्यार का ऐसा प्रदर्शन विदेशियों से जोड़कर देखा जाता था. पर नयपॉल ख़ुद को हिंदुस्तानी मानते कहाँ थे? उन्होंने कहीं लिखा भी है - "इंग्लैंड में मुझे अँग्रेज़ नहीं माना जाता, हिंदुस्तान में मैं हिंदुस्तानी नहीं हूँ. मैं 1000 वर्गमील के इलाक़े में क़ैद हूँ जिसका नाम त्रिनिदाद है."
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