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ब्लॉगः अब अच्छी फ़िल्में ही बंद रोशनदान खोल सकती हैं

सौ करोड़ कमाने वाली हर फ़िल्म के प्रोडक्शन हाउस के लिए समाजी मुद्दों पर फ़िल्म बनाना ज़रूरी करना चाहिए.

By BBC News हिन्दी
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कैसी अच्छी बात है कि हिंदी-उर्दू फ़िल्में पिछले 104 बरस में जिन्नों, भूतों, परियों की दुनिया से निकलकर, जालिम और मज़लूम की लड़ाई करवाते-करवाते, अमीर लड़की और ग़रीब लड़की की प्रेम कहानी में विलेन के अड़ंगे से बचते-बचाते, विभाजन की ट्रेजडी से गुज़रकर दुश्मन देश को नाकों चने चबवाने के बाद अब लड़कपन से प्रौढ़ता की उम्र में दाख़िल हो रही हैं.

आमिर ख़ान ने पिछले दस बरस में थ्री इडियट्स, तारे ज़मीन पर, पीपली लाइव, पीके, दंगल और सीक्रेट सुपरस्टार तक जो फ़िल्में बनाईं और अक्षय कुमार और उनके सहयोगियों ने जिस तरह एयरलिफ़्ट, टॉयलेट एक प्रेम कथा और अब पैडमैन के रूप में खेल-खेल में जागरूकता को आम करने का जो बीड़ा उठाया है या फिर सुलगते मुद्दों को लेकर जिस तरह से मृणाल सेन, संजय काक, आनंद पटवर्धन, नंदिता दास, मीरा नायर और इन जैसे बीसियों लोगों ने जो अद्भुत काम किया है और उनकी रवायत को लेकर नई पीढ़ी के लड़के लड़कियां तीन से बीस मिनट की फ़िल्में और डोक्यू-ड्रामे बनाकर लोगों के दिलों में जिस तरह जगह बना रहे हैं और एक ख़ामोश इंक़लाब लाने की कोशिश कर रहे हैं, इन सब और इनकी कोशिशों को एक लंबा सलाम तो करना तो बनता है.

'शंभूलाल तुम्हारा तो मुमताज़ क़ादरी हमारा हीरो’

बस..हम ही सच्चे और अच्छे, यही है आज का क़ानून

अगर विशाल और हुसैन टीवी देखते तो....

देखा जाए तो फ़िल्म भी किसी और कारोबार की तरह ही है.

प्रोड्यूसर इसलिए पैसा लगाता है क्योंकि वो कमाना चाहता है.

लेकिन अब ये तय करने का समय आ गया है कि जो भी प्रॉडक्शन हाउस सौ करोड़ के क्लब में शामिल हो उसे हर ऐसी एक फ़िल्म के बाद किसी भी बड़े या मामूली समाजी मुद्दे पर कम से कम एक फ़ीचर फ़िल्म ज़रूर बनानी चाहिए.

जिसमें नफ़ा और नुक़सान को करारे बॉक्स ऑफ़िस नोटों के बजाए समाज पर उसके असर के तराजू में तौला जाए.

इंडिया हो या पाकिस्तान, यहां के करोड़ों लोगों की किताब पढ़ने या लंबे-लंबे समाज सुधारक भाषण हज़म करने में कोई ख़ास रूची नहीं है. अलबत्ता फ़िल्में सभी देखना चाहते हैं. ऐसी स्थिति में एक अच्छी फ़िल्म हज़ार किताबों और दस हज़ार भाषणों से बेहतर रोशनी पैदा कर सकती है.

आमिर ख़ान
Getty Images
आमिर ख़ान

मीडिया के घेरे में आया आज का समाज अगर कोई बात ध्यान से सुनता है तो किसी दिग्गज ख़ान टीवी एंकर की नहीं बल्कि अच्छे स्क्रिप्ट वाले फ़िल्ममेकर की.

वो फ़िल्ममेकर जो कहानी ऐसे सुनाए कि सिनेमा की सीट से उठने वाला हर व्यक्ति ये सोचता हुआ घर जाए कि यही तो मैं भी कहना चाहता था.

आज जो हालात हैं इनमें फ़िल्म की सॉफ़्ट पावर ही हार्ड पावर को नीचा दिखा सकती है और दिमाग़ के बंद रोशनदान खोल सकती है. बाकी सब तो आज़माए जा चुके हैं.

BBC Hindi
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English summary
Blog Now good movies can open off the skies
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