ब्लॉग: मोदी हों या मनमोहन इन 120 लोगों के 'अच्छे दिन' हमेशा
बात मुख़्तसर ये है कि बरसों से भारत के अमीर लगातार अमीर होते रहे हैं, उनका दबदबा सिर्फ़ आर्थिक नहीं, दूसरे क्षेत्रों में भी बढ़ता रहा. अमीर-ग़रीब के बीच की खाई जो पाटी जानी चाहिए, वो और चौड़ी होती चली गई.
देश के करोड़ों लोगों और कुछ अरबपतियों के हित एक हो ही नहीं हो सकते, दो वर्गों के हितों का हर क़दम पर टकराव होता है और ऐसे मौक़े अक्सर आते हैं जब सरकार को दोनों में से किसी एक को चुनना होता है. अगर सरकारों ने जनता को चुना होता तो ये खाई बढ़ने की जगह घटती.
भारत में इस वक़्त एक अरब डॉलर से अधिक दौलत वाले 120 लोग हैं. अमरीका और चीन के अलावा इतने अधिक अरबपति किसी एक देश में नहीं हैं, इसे ज़रा ग़ौर से देखा जाना चाहिए.
ये लोग 'भारत' नहीं, 'इंडिया' की ग्रोथ स्टोरी के ब्रैंड एम्बैसेडर हैं, भारत के लोगों से उम्मीद की जाती है कि वे हैरत से उनकी शानो-शौक़त को देखें, उनकी कामयाबियों को सराहें.
उनके घर की सगाइयाँ-शादियाँ टीवी पर लाइव दिखाई जाती हैं, बड़े-बड़े स्टार ठुमके लगाते हैं और देश के बड़े-बड़े नेता वर-वधू को आशीर्वाद देते हैं.
दौलत की चमक देखकर देश की जनता धन्य हो जाती है कि हम भी किसी से कम नहीं.
कुछ लोगों की निजी सफलता को पूरे देश की सफलता में तब्दील करना भारत में ख़ासा आसान रहा है.
कारोबार ही नहीं, हर क्षेत्र में ये फ़ितरत दिखाई देती है और कुछ नहीं तो अमरीका की इंदिरा नूयी, ब्रिटेन के लक्ष्मी मित्तल या सिलिकॉन वैली के सत्या नडेला की कामयाबी को देश की सफलता की तरह पेश किया जाता है.
यह एक तरह से इस बात को भुलाने में मदद करता है कि दुनिया के ग़रीबतरीन 25 करोड़ से अधिक लोग भारत में रहते हैं, और ये भी जताने में इसकी मदद ली जाती है कि तरक्की हो तो रही है, देखो अंबानी या अडानी पिछले साल फलाँ नंबर पर थे, अब इतने ऊपर आ गए हैं.
इकॉनॉमी में सुधार एक भ्रम
हाल ही में भारत की इकॉनॉमी आकार में फ़्रांस से आगे निकल गई है, अब दुनिया में पाँचवें नंबर पर पहुँच चुकी है, कामयाबी की ये कहानी उन 25 करोड़ से ज़्यादा लोगों को कैसे समझाई जाएगी जो आज भी दाने-दाने को मोहताज हैं. दरअसल, ये देश की नहीं, पहले से ही कामयाब लोगों की कामयाबी है.
विजय माल्या इन्हीं अति-सम्मानित अरबपतियों में से एक थे. यहाँ तक कि जब उनका मन चाहा वो सांसद बन गए, उन जैसे कई और अरबपति राज्यसभा में हैं. पैसा कमाना उनके लिए चाहे जितना मुश्किल रहा हो, संसद में पहुँचना या अपने चुनिंदा लोगों को संसद में पहुँचाना उनके लिए बहुत आसान रहा है.
कहने का मतलब ये नहीं है कि सभी अरबपति भ्रष्ट हैं या 'किंग ऑफ़ गुड टाइम्स' कहे जाने वाले माल्या की तरह उड़नछू हो जाएँगे, लेकिन देश में बमुश्किल एक हज़ार लोग होंगे जो दुनिया की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था की तक़रीबन हर हरकत को नियंत्रित करते हैं या कर सकते हैं.
ये वही लोग हैं जो हर राजनीतिक पार्टी को चंदा देते हैं, इनके काम बनते रहते हैं चाहे कांग्रेस सत्ता में हो या बीजेपी. नेता और दौलतमंद लोगों की इस जुगलबंदी को ही 'क्रोनी कैपिटलिज़्म' कहते हैं. जब तक ये जुगलबंदी है तब तक 'सबका साथ, सबका विकास' एक जुमला भर ही रहेगा.
जिस तरह रिलायंस को राफ़ेल का ठेका दिया गया, जिस तरह 'जियो' और पेटीएम को सरकार बढ़ावा देती दिखी, गौतम अडानी और प्रधानमंत्री की नज़दीकियों पर विपक्ष लगातार बातें करता रहा, लेकिन विपक्ष भी दूध का धुला नहीं है, अंबानी कांग्रेस के राज में अंबानी बने और विजय माल्या, सुब्रत रॉय भी.
पूरी दुनिया में, और ख़ास तौर पर भारत में नेता ये माहौल बनाते रहे हैं कि इन लोगों को सस्ता लोन, सस्ती ज़मीन और टैक्स में रियायतें इसलिए दी जा रही हैं क्योंकि यही देश की इकॉनॉमी को आगे बढ़ाएँगे, लोगों को रोज़गार देंगे इसलिए देश को इनका एहसानमंद होना चाहिए.
अमीर लगातार अमीर
बात मुख़्तसर ये है कि बरसों से भारत के अमीर लगातार अमीर होते रहे हैं, उनका दबदबा सिर्फ़ आर्थिक नहीं, दूसरे क्षेत्रों में भी बढ़ता रहा. अमीर-ग़रीब के बीच की खाई जो पाटी जानी चाहिए, वो और चौड़ी होती चली गई.
देश के करोड़ों लोगों और कुछ अरबपतियों के हित एक हो ही नहीं हो सकते, दो वर्गों के हितों का हर क़दम पर टकराव होता है और ऐसे मौक़े अक्सर आते हैं जब सरकार को दोनों में से किसी एक को चुनना होता है. अगर सरकारों ने जनता को चुना होता तो ये खाई बढ़ने की जगह घटती.
भारत जाति, धर्म, क्षेत्र और वर्गों में हमेशा से बँटा रहा है. ग़ैर-बराबरी को ज़्यादातर लोग एक सामान्य बात मानते हैं, आर्थिक असमानता को भी लोगों ने आसानी से स्वीकार कर लिया है और उस पर सवाल उठाने वाले को व्यवस्था-विरोधी या वामपंथी कहा जाता है. अगर सरकार न्यूनतम मज़दूरी दस-बीस रुपए बढ़ाने से आगे क़दम नहीं उठाती तो हालात नहीं बदलने वाले.
2004 से 2014 तक देश के विकास के क़िस्से और आँकड़े लगातार आते रहे हैं, कांग्रेस दस प्रतिशत ग्रोथ रेट की बात करती थी तो बीजेपी रिकॉर्ड विदेशी निवेश की बात कर रही है. लेकिन यही देश है जहाँ रह-रहकर लोगों के भूख से मरने की ख़बरें आती रहती हैं. कहीं तो कुछ बहुत गहरे ग़लत है.
आँकड़े बहुत कुछ बताते हैं
'इकॉनॉमिक टाइम्स' में लेखक जेम्स क्रैबट्री ने लिखा है, "भारत में कमाई के मामले में शीर्ष पर मौजूद 10 प्रतिशत लोगों के कब्ज़े में देश की 55 प्रतिशत दौलत है. 1980 में यह आँकड़ा 55 की जगह 30 प्रतिशत था."
उनमें भी जो ऊपर वाले एक प्रतिशत हैं उनकी तो दसों उंगलियाँ घी में और सिर कड़ाही में है. इन एक प्रतिशत लोगों के पास देश की 22 प्रतिशत से अधिक दौलत है.
1991 में अर्थव्यवस्था के दरवाज़े खुलने के बाद से देश के अमीरों की अमीरी बढ़ी है, मध्यवर्ग की आय में भी बढ़ोतरी हुई है, ये भी सच है कि करोड़ों लोग ग़रीबी की रेखा से ऊपर आए हैं, लेकिन चिंताजनक बात ये है कि समृद्धि के साथ-साथ असमानता भी बढ़ी है और इससे निबटने के लिए कुछ हो रहा हो, ऐसा नहीं दिखता.
'वर्ल्ड इनइक्वॉलिटी रिपोर्ट' बताती है कि 1950 से 1980 तक देश के सबसे अमीर एक प्रतिशत लोगों की आय में कमी आई, लेकिन उसके बाद वह दौर शुरू हुआ जिसे उपभोक्तावाद कहते हैं. 1980 के बाद से सबसे अमीर एक प्रतिशत लोगों की आय में कभी कमी नहीं आई.
यही रिपोर्ट बताती है कि 2014 आते-आते भारत के 39 करोड़ निर्धन लोगों की कुल कमाई एक प्रतिशत सबसे अमीर लोगों की कमाई से 33 प्रतिशत कम हो गई. 1983 से 2014 के बीच इन एक प्रतिशत अमीरों में भी जो शीर्ष पर थे उनकी कमाई प्रतिशत में नहीं, पाँच गुना, दस गुना बढ़ रही थी.
पिकेटी और चैंशल ने गहन अध्ययन करके बताया है कि भारत में आर्थिक पिरामिड के सबसे निचले हिस्से पर मौजूद लोगों की आय 1960 और 70 के समाजवादी दशक में सबसे तेज़ी से बढ़ी. इन दो दशकों में अति निर्धन लोगों की कमाई एक प्रतिशत सबसे अमीर लोगों की तुलना में तेज़ी से बढ़ रही थी, लेकिन उसके बाद ऐसा फिर कभी नहीं हुआ. अगर ये ट्रेंड जारी रहता तो आज अधिक समता वाला भारत दिखाई देता.
अमीर-ग़रीब के बीच की खाई सिर्फ़ कमाई के स्तर पर नहीं है बल्कि शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं के स्तर पर इतनी गहरी है कि वो असमानता को बनाए रखने के पुख़्ता इंतज़ाम की तरह काम करती है.
भारत आज दुनिया की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भले बन गया हो, लेकिन उसमें 120 करोड़ लोगों की आय जब तक अरबपति 120 लोगों के मुक़ाबले अधिक तेज़ी से नहीं बढ़ेगी, तब तक भारत फ़्रांस जैसा कभी दिखाई नहीं देगा.
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