ब्लॉग: गुजरात और उत्तर प्रदेश की राजनीति कैसे अलग है?
राजनीति की दो अलग-अलग तस्वीरें पेश करते हैं गुजरात और उत्तर प्रदेश के मतदाता.
सुनसान और चौड़ी सड़क पर रात 10 बजे वे अंडे खा रहे थे. मैंने चुनाव का माहौल पूछा तो हत्थे से उखड़ गए.
'तुम हो कौन?' से बात शुरू की और फिर रासायनिक झौंक में मुझसे मेरा आईकार्ड मांग लिया.
यह इस साल फ़रवरी की बात थी और जगह थी उत्तर प्रदेश.
मैनपुरी के उस अधेड़ ने मुझे दोनों कंधों से पकड़कर बैठाया और राज़दाराना अंदाज़ में फुसफुसाते हुए ज़िले की सियासत पर ज्ञान दिया. वह सब यथार्थ के कितना क़रीब था, नहीं जानता.
लेकिन उस वक़्त यही लगा कि जो नहीं दिख रहा था वो 'अंकलजी' ने दिखा दिया.
जितनी देर में एक कप चाय ख़त्म होती है उतनी देर में आप यूपी में किसी से पूरे ज़िले का सियासी सूत्र समझ सकते हैं.
फ़ुरसत हो तो साथ बैठकर बीरबल की खिचड़ी पकाने के लिए भी लोग उपलब्ध हैं.
जबकि गुजरातियों की अदा बिल्कुल जुदा होती है. वे अपने धंधे की परेशानियां तो बताते हैं, लेकिन बखूबी जानते हैं कि बंदूक का मुंह किधर नहीं करना है. गुजरात में आपको कुरेदना बहुत पड़ता है और माल मिलता है ज़रा सा.
बीते महीने गुजरात में कुछ दिन बिताने और उससे पहले यूपी चुनावों में सत्ताइस ज़िलों में घूमने के बाद मैं कह सकता हूं कि दोनों प्रदेशों की राजनीतिक तासीर में कई बड़े फर्क़ हैं.
सरकार की आलोचना में दिलचस्पी नहीं
इस बार गुजरात में ग़ैरकांग्रेसी वोटरों का एक हिस्सा भाजपा से नीतिगत नाराज़गी जता रहा था, लेकिन वह 'समूची भाजपा' या प्रधानमंत्री की अतिरेकपूर्ण और लापरवाह आलोचनाओं में नहीं उलझ रहा था.
अहमदाबाद में जीएसटी से नाराज़ कई पुश्तैनी भाजपाई वोटर मिले जो इस बार मोदी पर प्रेम नहीं लुटा रहे थे, लेकिन तीर भी नहीं चला रहे थे.
जबकि उत्तर प्रदेश में माइक के आकर्षण में आए लोगों की एक भीड़ ने एक अदद खड़ंजे के लिए पूरी सियासी जमात को उनके नाम लेकर ज़लील कर दिया था.
कानपुर में चुनाव से आठ दिन पहले मैंने समोसा खाते हुए मोहम्मद शानू से महाराजपुर विधानसभा का हाल पूछा था.
उन्होंने निर्लिप्त भाव से शहर की छह विधानसभा सीटों का रिज़ल्ट सुनाकर कहा, "हमने जो आपको बताया, उसे आप लॉक कर दीजिए."
अल्पविराम और महाकाव्य का फ़र्क
पहला प्रकट अंतर नागरिकों के इस उत्साह का ही है जिसकी बुनी कालीन पर बैठकर सियासत पर बात की जाती है.
कुछ छूट लेते हुए उत्तर प्रदेश के बारे में यह बात कही जाती है कि वहां का हर पांचवां नौजवान एक समय राजनीति में अपनी संभावनाएं देखता है. गुजरात में इस बार नौजवान मुखर ज़रूर हुआ, लेकिन अंतत: वह धंधे में ही लौटना चाहता है.
उसके लिए सियासत एक अल्पविराम की तरह है जबकि यूपी वालों के लिए यह उस महाकाव्य की तरह है जिसमें बरसों-बरस नए श्लोक जुड़ते रहते हैं.
गुजरात में मैंने कोशिश की थी कि खान-पान पर बतकही के रास्ते गुजरातियों के सियासी विचारों में प्रवेश पाया जाए. लंबी बैठक में बहुत सारे लोगों ने भाजपा सरकार के बारे में ख़ासी तल्ख़ बातें भी कहीं, लेकिन मेरे रिकॉर्डर निकालते ही उन्होंने हाथ जोड़ लिए.
सामाजिक संरचना
गुजरात अपनी सामाजिक संरचना में मुझे अधिक जटिल लगा. उत्तर प्रदेश में सवर्ण, ओबीसी और दलितों की सियासत को लकीर खींचकर अलगाया सकता है.
लेकिन गुजरात में सब कुछ इतना सीधा नहीं है. गुजरात का राजपूत दो तबकों में बंटा है. दरबार और वाघेला सवर्ण हैं, जबकि परमार और ठाकोर ओबीसी हैं. लेकिन कोई दरबार प्रत्याशी खड़ा होता है तो 'ओबीसी राजपूत' भी 'क्षत्रिय एकता' के नाम पर उसे वोट दे आते हैं. यह पारंपरिक पैटर्न है, जो कभी-कभी टूटता भी होगा.
गुजरात के सवर्णों में एक पाटीदार जाति है जिसके हित बड़े ही व्यापक कैनवस पर फैले हुए हैं. खेतिहरों में भी उनकी गिनती होती है. सौराष्ट्र में खेतिहर ज़मीन का एक बड़ा हिस्सा उनके पास है. इसी जाति के लोग खूब व्यापार कर रहे हैं.
इसी जाति के लोग बड़े पैमाने पर सूरत में हीरे के कारोबार और कारीगरी में लगे हुए हैं. जबकि यूपी में ज़्यादातर वैश्यों को ही कुशल व्यापारी माना जाता है. गुजरात में तीनों काम पाटीदार कर रहे हैं.
गुजरात का दलित वोट निर्णायक नहीं
गुजरात की आबादी में दलितों की हिस्सेदारी 7.1 फ़ीसदी है जो राष्ट्रीय औसत से कम है और आदिवासियों की 14.8 फ़ीसदी है जो राष्ट्रीय औसत से ज़्यादा है.
उत्तर प्रदेश के सोनभद्र ज़िले की दुद्धी विधानसभा में रिपोर्टिंग करते हुए मैं बड़े उत्साह से अपने दर्शकों को बता रहा था कि पहली बार उत्तर प्रदेश विधानसभा में जनजाति वर्ग के लिए सुरक्षित सीट से जीते हुए विधायक बैठेंगे. जबकि गुजरात में 26 सीटें जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित हैं.
एकबारगी तो ऐसा भी लगता है कि गुजरात में दलितों की राजनीतिक प्रासंगिकता बहुत कम रह गई है. लंबे समय से यहां के राजनीतिक घटनाक्रम में दलित समुदाय ने कोई बड़ी भूमिका नहीं निभाई है और उसे लेकर चुनावों में बहुत खींचतान भी नहीं होती. दलित वोट कांग्रेस के पक्ष में ज़्यादा रहा है. बसपा यहां कभी बड़ी ताक़त नहीं बन पाई.
कोली कोली भाई भाई
सौराष्ट्र के कोली पटेल जो पिछड़ा वर्ग में आते हैं, उत्तर और मध्य में वही ठाकुर कहे जाते हैं. दोनों की गाड़ियों पर 'जय वीर मांधाता' लिखा मिल जाएगा.
कोली यह कहते हुए मिल जाएंगे कि उन्हें इससे मतलब है कि नाम के आगे कोली है या नहीं. वह कोली उपनाम लिखने वाले मछुआरों को भी भाई मानते हैं. हाल ही में राष्ट्रपति बने रामनाथ कोविद अखिल भारतीय कोली समाज के ही अध्यक्ष थे. उत्तर प्रदेश में कोली को कोरी जाति के क़रीब माना जाता है. यूपी में कोरी दलित हैं. गुजरात में कोली ओबीसी हैं.
फिर माहेर या मेड़ समाज के लोग हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि उनके पूर्वज ब्रिटिश उपनिवेशों से सबसे बाद में आए प्रवासी थे.
इनकी पोरबंदर ज़िले में ख़ासी आबादी है. इनके नैन नक्श और क़द काठी बाकी गुजरातियों से अलग हैं.
पोरबंदर से दोनों पार्टियां मेड़ समाज का प्रत्याशी ही उतारती हैं. अर्जुन मोडवाडिया और बाबूलाल बोखीरिया इसी समाज से ताल्लुक रखते हैं.
मछुआरों में खारवा समाज के लोग हिंदू और मुसलमान दोनों में हैं.
इन जटिलताओं में समर्थन और विरोध के सूत्र एकरेखीय होकर काम नहीं करते.
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चुनाव में जातीय प्रेशर ग्रुप
उत्तर प्रदेश में जो राजनीतिक प्रक्रिया पूरी होकर अब नए-नए संयोजनों में सामने आती है, उसकी गुजरात में अब शुरुआत हुई है.
यह प्रक्रिया है जाति संगठनों के एक 'प्रेशर ग्रुप' के तौर पर उभरने की. अपनी जातीय पहचान को वह माथे पर लेकर चल रही हैं और इस पर गौरवपूर्ण हक़ जमा रही हैं. कुछ मामलों में प्रतिनिधित्व और कुछ में प्रभुत्व के लिए वे खड़ी हुई हैं. इससे दोनों प्रमुख पार्टियों को इन आवाज़ों के मुताबिक अपनी पारंपरिक रणनीतियों को 'फ़ाइन ट्यून' करना पड़ा है.
उत्तर प्रदेश में भाजपा ने कुर्मी जनाधार वाले 'अपना दल' और राजभर वोटों वाली 'सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी' से गठबंधन किया है. संभव है कि 2022 तक ऐसी स्थितियां गुजरात में भी आकर खड़ी हो जाएं.
कारसेवा के दिन थे जब उत्तर प्रदेश अपने जनादेश में 'हिंदू' हुआ था, लेकिन फिर अपनी जातीय पहचान पर लौट आया था. इस बार यूपी का जनादेश हिंदू अस्मिता और सामाजिक समीकरणों का मिश्रण था.
पर गुजरात चुनाव से पहले उठे जातियों के मूवमेंट चुनाव तक सरकार विरोधी स्टैंड पर टिके रहे. भाजपा समर्थक यह शिकायत करते हुए मिले कि 'इस बार' जाति की राजनीति हो रही है.
जाति एक अहम किरदार बनकर तो उभरी, लेकिन अंतत: गुजरात का जनादेश ही तय करेगा कि जातियों ने डेढ़ दशक पुराने मज़बूत हिंदू स्फ़ियर से छिटकना तय किया या प्रधानमंत्री के आह्वान पर औरंगज़ेब के ख़िलाफ़ हिंदू होना स्वीकार किया.
क्या है विकल्प?
जिन राजनीतिक स्थितियों ने दोनों प्रदेशों के मतदाताओं को प्रभावित किया है, वे विकल्पों की उपलब्धता से भी जुड़ी हैं. एकाध बार के अपवादों को छोड़ दें तो गुजरात में ज़्यादातर दो दलों की व्यवस्था ही हावी रही है.
वहां वैसे विकल्प उभर नहीं पाए हैं जबकि उत्तर प्रदेश में कभी इसको, कभी उसको वोट देने वाले 'फ्लोटिंग वोटर' के पास चार बड़े विकल्प तो होते ही हैं. इसके अलावा जातीय पहचान पर टिके रहने वाली छोटी-छोटी पार्टियां हैं.
इसलिए 'फ्लोटिंग वोटर' अपेक्षाकृत रूप से निर्मम है और उसके मोहभंग का एक चक्र है.
मुख़ालिफ़ दलों से भी प्यार की पींगे बढ़ जाती हैं. यूपी का ब्राह्मण समुदाय अलग-अलग समय पर चारों पार्टियों को वोट कर चुका है.
इसी तरह उत्तर प्रदेश में ताक़तवर स्थानीय नेताओं की भरी-पूरी क़तार है जिनका एकाधिक ज़िलों में बड़ा असर है. वे छोटे-छोटे क्षत्रप हैं और कई बार अपनी ही पार्टी पर दबाव बनाए रखते हैं.
गुजरात में ऐसे नेताओं की संख्या बहुत कम हैं और अंतत: मुख्य चेहरा ही मतदाताओं के लिए मायने रखता है.
थोड़ी सी बात विकास की
मुझे लगा कि उत्तर प्रदेश में विकास जितने बहुआयामी शेड्स में उपलब्ध है, वैसा गुजरात में नहीं है.
यूपी के अलग-अलग शहरों के विकास में ज़मीन और आसमान का फ़र्क है. ग़ाज़ियाबाद स्मार्ट शहर होने वाला है, पर आप कभी चंदौली और मिर्ज़ापुर भी घूम आएं.
ये फ़र्क गुजरात में भी है लेकिन आदिवासी बहुल ज़िलों को छोड़ दें - जहां विकास बहुत देर से रिसा - तो यह फर्क़ उतना गाढ़ा नहीं है. कच्छ तक भी पानी और बिजली तो पहुंच ही गया है.
हालांकि स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में दोनों प्रदेशों की हालत हमेशा आलोचना के घेरे में रही है.
पर गुजरात की रगों में जो कारोबारी ख़ून है, उससे प्रदेश के नागरिकों में एक समृद्धि तो आई ही है.
आज भी उत्तर प्रदेश में लोगों की मांग है कि उनका राशन कार्ड बन जाए. कोई पुलिस-कचहरी हो जाए तो विधायक जी के दफ़्तर से थोड़ी मदद हो जाए.
लेकिन गुजरात में शिकायत इस मिज़ाज की होती है कि हमारे यहां औद्योगिक क्लस्टर नहीं खुला. हमें बड़े उद्योगों के लिए अपना ज़िला छोड़कर क्यों जाना पड़ता है?
राजनीतिमें दिलचस्पी
भक्ति गुजरात में आकर कुछ सौम्य हो गई है जो वहां के उत्सव-त्योहारों और देवी के रूपों में भी दिखती है. लेकिन इसी के समांतर, वैष्णव परंपरा के चलते एक शाकाहारी आग्रह भी है.
चिकन दिन में बारह घंटे उतनी आसानी से उपलब्ध नहीं है.
कुछ नौजवानों ने कहा कि गुजरात में पहले बहुत हिंदू-मुस्लिम बवाल होता था, जो मोदी के आने के बाद रुक गया. वे संभवत: 1985 और 89 के दंगों के बारे में कह रहे होंगे. एक परिवार से बात हुई तो लगा कि 2002 का 'सेंटिमेंट' पिता से पुत्र को ट्रांसफ़र हो रहा है.
अहमदाबाद में कुछ नौजवान मिले जो न माधवसिंह सोलंकी का नाम जानते थे, न चिमनभाई पटेल का. हमारे पास नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के दो आदमक़द कटआउट थे. साबरमती रिवरफ़्रंट पर साइकिल चलाने आए 12-14 साल के बच्चे राहुल गांधी के कटआउट को पहचान नहीं सके.
जबकि उत्तर प्रदेश में ऐसे राजनीति प्रेमी सहज ही उपलब्ध हैं जिनके दिमाग में ग्राम पंचायत के चुनावों तक का पूरा गणित रहता है.
मेरा कानपुर का एक मित्र मज़ाक में कहता है कि यूपी में या तो खेतिहर हैं या खलिहर हैं.
मुझे लगता है कि गुजरात का आदमी झूले पर बैठा हुआ दो का पहाड़ा 'दो दूनी सोलह' और 'दो तियां चौंसठ' के अंदाज़ में पढ़ रहा है.
बुनियादी फर्क़ यही है जो दोनों प्रदेश के वोटरों की सियासी प्रतिक्रियाओं को प्रभावित करता है.