ब्लॉग: मुसलमानों का तुष्टीकरण बंद, हिंदुओं का पुष्टीकरण तेज़
भाजपा के मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों में होड़ लगी है कि कौन ज़्यादा हिंदू है, इस होड़ में वे केवल मोदी से हारने को तैयार हैं
भारत सांस्कृतिक दृष्टि से एक धर्मपरायण देश है और ठोस राजनीतिक कारणों से संवैधानिक तौर पर सेकुलर है, अभी तक तो है, आगे का पता नहीं. धर्म को व्यक्तिगत आस्था मानने वाले फ़िलहाल सियासी लड़ाई हारते दिख रहे हैं.
हज की सब्सिडी का ख़ात्मा और इंस्टेंट तीन तलाक़ को दंडनीय अपराध बनाने की कोशिश, दो ऐसे ताज़ा मामले हैं जब देश की सरकार ने यह जताने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि वह मुसलमानों के तुष्टीकरण के ख़िलाफ़ सिर्फ़ बोलती ही नहीं, क़दम भी उठाती है.
मगर इसी सरकार ने यह जताने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी है कि वह इस देश को हिंदू रीति-नीति से चलाना चाहती है, सरकार हर क़दम पर हिंदू धर्म का उत्सव मनाती दिख रही है जो संवैधानिक तौर पर उसकी भूमिका क़तई नहीं है.
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नए पर्वों का आविष्कार
जनता की धार्मिक भावनाओं का राजनीतिक दोहन कोई नई बात नहीं है, कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता मंदिरों में पूजा की फोटो अख़बारों में छपवाते रहे, दक्षिण के नेता तिरूपति-सबरीमला में सिर मुँडाते रहे और इंदिरा गांधी सहित शायद ही कोई नेता हो जिसके सिर पर देवराहा बाबा ने पैर न रखा हो.
लेकिन मौजूदा सरकार जिस तरह धर्म को राजनीति के केंद्र में लाई है वैसा पहले कभी नहीं हुआ, जो हिंदू धार्मिक अनुष्ठान पहले से हो रहे थे उनका आकार-प्रकार अचानक ओलंपिक-एशियाड जैसा होने लगा, ऊपर से 'नर्मदा यात्रा' और 'शंकराचार्य प्रकटोत्सव' जैसे अनेक नए पर्वों का आविष्कार भी हुआ.
भाजपा के ज़्यादातर मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों में होड़ लगी है कि कौन अधिक धार्मिक दिख सकता है, इस होड़ में वे एक ही व्यक्ति को नहीं हराना चाहते, वो व्यक्ति हैं इस देश के प्रधानमंत्री. राहुल गांधी ने गुजरात चुनाव के दौरान जनेऊ दिखाते हुए ये मान लिया कि भाजपा ने सेकुलर राजनीति के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी है.
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यजमान की भूमिका में सरकारें
ऐसा पहली बार हुआ है कि राज्य सरकारें हिंदू धार्मिक आयोजनों में बंदोबस्त करने की जगह यजमान की भूमिका में आ गई हैं, वे जनता को दिखाने-जताने की कोशिश कर रहे हैं कि सरकार हिंदू धर्म के लिए क्या-क्या कर रही है.
तो इसमें क्या बुराई है?
इस देश में बहुसंख्यक आबादी हिंदुओं की है, कई लोग ये मासूम सवाल पूछते हैं कि देश अगर हिंदू धर्म-परंपरा-संस्कृति के अनुरूप चलाया जा रहा है तो इसमें क्या बुराई है?
इसका सीधा जवाब है कि वही बुराई है जो पाकिस्तान या ईरान के इस्लामी धर्म-परंपरा-संस्कृति के हिसाब से चलने में है. ज्यादातर हिंदू ये मानकर चलते दिखते हैं कि दिक्कत इस्लाम में है, हिंदू धर्म तो बहुत अच्छा है. यह समझना ज़रूरी है कि ये धर्म की अच्छाई या बुराई का मसला है ही नहीं, बल्कि उसकी राजनीति का है. ये रहीं छह बुराइयाँ, अगर आप समझना चाहें.
पहला--देश में अधिसंख्य लोग हिंदू हैं लेकिन उसी भारत में तकरीबन 25 करोड़ लोग ऐसे हैं जो हिंदू नहीं हैं, सरकार उनकी भी है, धार्मिक अनुष्ठानों में सरकारी धन और सरकारी तवज्जो का बढ़ना उन्हें एलिनियेट ही करेगा, अलग-थलग पड़े करोड़ों लोगों वाले देश में कोई बुराई नहीं है? मुसलमान, ईसाई, सिख, जैन, पारसी, आदिवासी और अन्य मतों के लोगों को यह एहसास दिलाना कि यह देश हिंदुओं का ज्यादा है, और उनका कम, कहाँ से शुभ हो सकता है?
दूसरा--धर्म का बोलबाला जिन देशों में सरकार के प्रश्रय से चलता है, वहाँ रोज़ी-रोटी-स्वास्थ्य-शिक्षा के बुनियादी मुद्दों को किनारे धकेलना बेहद आसान हो जाता है, आप देख सकते हैं कि जातीय-धार्मिक भावनाओं का उबाल भूख से मर रहे लोगों को एजेंडा पर नहीं आने देता, सरकार को ये स्थिति भला क्यों पसंद नहीं आएगा. उसके लिए करोड़ों भूखे लोगों का पेट भरना मुश्किल है, लेकिन जयकारे लगवाना आसान है. आप धर्म की राजनीति में शामिल होकर सरकार को भगवान की मूर्ति के पीछे छिपने का अवसर दे रहे होते हैं.
'अभी देश बदल रहा है, उसके बाद आगे बढ़ेगा'
अगर आपको याद हो, जब गोरखपुर के सरकारी अस्पताल में बच्चे मर रहे थे तो मुख्यमंत्री कुंभ मेले की तैयारी को लेकर मैराथन मीटिंग कर रहे थे. कुंभ मेले के आयोजन का बंदोबस्त सरकार की ज़रूरी ज़िम्मेदारी है लेकिन सारा सवाल सरकार की प्राथमिकताओं का है.
तीसरा--गाय, गोबर, गोमूत्र को लेकर बर्बाद किया जा रहा समय और धन, या फिर डार्विन पर सत्यपाल सिंह की टिप्पणी. कुल मिलाकर अब आप प्रगतिशील वैज्ञानिक सोच वाला समाज बनाना चाहते हैं तो धर्म को केंद्र में रखकर नहीं बनाया जा सकेगा, उसके लिए आपको विज्ञान और तर्क को केंद्र में रखना होगा, धर्म के केंद्र में आने पर इसकी संभावना समाप्त हो जाती है.
चौथा--भारत में हिंदू केवल एक तरह के हिंदू नहीं हैं, भले तादाद में कम हों लेकिन हिंदू धर्म के भीतर ही अनेक परस्पर विरोधी विचार मौजूद हैं, धर्म की राजनीति में जातीय टकराव के बीज ज्यादा तेज़ी से पनपते हैं, पाकिस्तान में शियाओं पर हमले और भारत में दलितों पर हो रहे हमले यही दिखाते हैं. आपको याद होगा कि जब ओणम के मौक़े पर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने वामन जयंती का पोस्टर ट्विट किया था तो केरल में कैसी प्रतिक्रिया हुई थी? जिस दिन ब्राह्मण ज़ोर-शोर से परशुराम जयंती मनाने निकलेंगे तब राजपूतों की प्रतिक्रिया कैसी होगी और उसमें सरकार की भूमिका क्या होगी?
पाँचवा--जब धर्म राजनीति के केंद्र में होगा तो क़ानून-संविधान के ऊपर धार्मिक आस्था-भावना रखी जाने लगेगी. धर्म के नाम पर क़ानून तोड़ने वालों का पक्का विश्वास होता है कि उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा क्योंकि किसकी मजाल है कि धर्मयोद्धाओं से टकराए. दूसरे ग़लत काम करते हुए भी उन्हें एहसास होता है कि उन्हें ईश्वरीय आशीर्वाद प्राप्त है, राजनीतिक आशीर्वाद तो है ही. चाहे श्री श्री रविशंकर की नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की अवहेलना हो या करणी सेना का बवाल, इन सबकी जड़ में धर्म की राजनीति है जिससे कानून का रुतबा गिरा है.
छठा--ये करदाता का पैसा है जिसे जनता की ज़रूरतों के लिए ख़र्च करना सरकार की ज़िम्मेदारी है, बजट पेश करते समय, संसद में या फिर लोकतांत्रिक मंचों पर सरकार ने कब इस बात पर चर्चा की या जनमत बनाया कि वह कितना पैसा धार्मिक प्रयोजनों पर ख़र्च करेगी. यह एक एथिकल सवाल है यानी नैतिकता का सवाल है, देश की जनता शिक्षा, सुरक्षा, आधारभूत सुविधाओं पर ख़र्च की बात तो समझती है लेकिन क्या उसने भजन-पूजन के लिए पैसा दिया है, क्या इस पर सबकी सहमति हो सकती है?
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किसकातुष्टीकरण ?
तुष्टीकरण केवल मुसलमानों का होता है?
अब लौटते हैं तुष्टीकरण के सवाल पर. हज के हवाई टिकट की सब्सिडी हटाने का आदेश सुप्रीम कोर्ट का था, सरकार ने इस पर थोड़ा जल्दी अमल किया, ज्यादातर मुसलमानों ने इस फ़ैसले का स्वागत ही किया, हालाँकि सरकार बहुत सफ़ाई से ये संदेश देने की कोशिश करती रही कि मुसलमानों को नाहक़ मिलने वाली अतिरिक्त सुविधा बंद कर दी गई है.
दूसरी ओर, भाजपा शासित राज्यों की सरकारें हिंदू धर्म की ध्वजा को ऊँचे से ऊँचा लहराने में लगी हैं, हर रोज़ छोटे-बड़े आयोजनों और फ़ैसलों की झड़ी लगी रहती है. कबी आदित्यनाथ इमारतों को भगवा पुतवाते हैं, कभी सरयू तट पर हज़ारों दिये जलवाते हैं, तो कभी नवरात्र में राज्य की राजधानी लखनऊ से नौ दिन के लिए गोरखपुर चली जाती है क्योंकि मुख्यमंत्री वहीं हवन-पूजन में जुटते हैं.
हरियाणा की सरकार अख़बारों को गीता सम्मेलन के विज्ञापनों से पाट देती है, झारखंड के मुख्यमंत्री गर्व से गायों के लिए चल रही एम्बुलेंस सेवा के बारे में बताते हैं जहाँ लोग इलाज की बात तो दूर भूख से मर रहे हैं, मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ने पाँच महीने तक नर्मदा सेवा यात्रा चलाई जो भारी सरकारी ख़र्चे पर धार्मिक रंग में किया गया चुनाव प्रचार ही था.
मध्य प्रदेश सरकार अपनी मुख्यमंत्री तीर्थ दर्शन योजना के तहत लोगों को एक लाख रुपये तक देती है, अगर कोई विदेश में स्थित किसी मंदिर की यात्रा करना चाहे तो भी सरकार पाकिस्तान में ननकाना साहेब और हिंगलाज देवी मंदिर, कंबोडिया में अंकोरवाट मंदिर, श्रीलंका के सीता देवी मंदिर और कैलाश मानसरोवर जाने के लिए मदद देती है.
शाहबानो, तीन तलाक से लेकर सोमनाथ तक...
वोटों का पुष्टीकरण?
उत्तर प्रदेश की योगी सरकार कैलाश मान सरोवर की यात्रा पर आने वालों को प्रति व्यक्ति के हिसाब से एक लाख रुपये कैश में देती है. राजस्थान सरकार भी कैलाश मानसरोवर की यात्रा पर जाने वालों को ये मदद दे रही है. इसके अलावा गुजरात, दिल्ली और आंध्र प्रदेश में भी ऐसी योजनाएं चल रही हैं.
सरकार पूरे आत्मविश्वास के साथ ऐसा कर रही है क्योंकि उसे अंदाज़ा है कि हिंदुओं का धर्मपरायण तबक़ा अगर उसकी इन गतिविधियों से खुश रहेगा चुनाव जीतने की गारंटी है, इस पर गंभीर एतराज़ करने वाले तादाद में हमेशा कम होंगे.
कांग्रेस की 'तुष्टीकरण' की नीति से मुसलमानों का कितना फ़ायदा हुआ ये तो सबने देखा ही है, हिंदुत्व की राजनीति हिंदुओं का तुष्टीकरण तो कर ही रही है, अपने वोटों का पुष्टीकरण भी.
मेरा चैलेंज है, मानसरोवर यात्रा की सब्सिडी ख़त्म करें: ओवैसी