ब्लॉग: #HerChoice 'गाली भी महिलाओं के नाम पर ही दी जाती है!'
बीबीसी की विशेष सिरीज़ #HerChoice में अपनी शर्त पर ज़िंदगी जीने वाली, रिश्तों से जूझती औरतों की कहानियों को पढ़ कर क्या कहा हमारे पाठकों ने.
वे गालियां इतनी अभद्र मानी जाती हैं कि उनका यहां क्या बखान करूं. पर जानते उन्हें आप भी हैं और मैं भी. देश के अलग-अलग इलाक़ों में उनका मतलब बदल सकता है पर उनकी भाषा नहीं बदलती.
गालियों की भाषा में औरत, उसके शरीर या उसके रिश्ते का ही इस्तेमाल होता है. अक्सर हिंसा में लपेट कर और 'सेक्शुअल' तंज़ के साथ.
ये गालियां इतने आम तौर पर इस्तेमाल होती हैं कि मर्द और औरत दोनों की भाषा का हिस्सा बन जाती हैं.
पर गाली भी एक तरीक़े से औरतों को मर्दों के सामने दूसरा दर्जा देती हैं और कई औरतों को यह बहुत परेशान करता है.
शायद इसलिए जब हमने औरतों की 'मर्ज़ी' और आज़ाद ख्याल होने पर विशेष सिरीज़ शुरू की तो औरतों के मन में दबी कई असहजताएं सामने आईं.
#HerChoice जब औरतें अपनी मर्ज़ी से जीती हैं?
'औरतों के पास भी दिल और दिमाग़ होता है'
अपनी मर्ज़ी से अपनी ज़िंदगी और रिश्ते निभाती औरतों की कहानियों की सीरीज़ #HerChoice, पर एक पाठक सीमा राय ने हमारे फ़ेसबुक पन्ने पर औरतों से जुड़ी गालियों पर टिप्पणी की.
साथ ही उन्होंने लिखा कि "औरतें हर मुद्दे पर अपना मत रख सकती हैं, उनके पास भी दिल और दिमाग़ होता है पर उनसे उम्मीद की जाती है कि वे न बोलें."
सीमा राय का इशारा ख़ास तौर पर हमारी पहली कहानी की तरफ़ था जहां एक औरत खुलकर अपनी 'सेक्शुअल डिज़ायर' के बारे में बता रही है.
अब यह तो आप भी जानते हैं कि ऐसे मुद्दे पर औरत की सोच को तरज़ीह नहीं दी जाती. अहमियत तो छोड़िए, आम धारणा ये है कि ऐसी इच्छाएं सिर्फ़ मर्दों में ही होती हैं.
ज़ाहिर है बहुत सी महिलाओं को उस औरत की कहानी में अपना अक्स नज़र आया. एक और पाठक, वीरासनी बघेल ने लिखा कि "यह जिस भी महिला की कहानी है, वो समाज का एक अलग आईना दिखाती हैं."
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महिलाओं की सच्ची कहानियां
वीरासनी आगे लिखती हैं कि "यह साबित होता है कि कमी हमेशा महिलाओं में नहीं होती, कमी पुरुषों में भी होती है और समाज को अपने ग़लत नज़रिए का चश्मा उतारने की ज़रूरत है."
हमारी कहानियां सच्ची हैं पर औरतों की पहचान गुप्त रखी गई है क्योंकि डर है कि समाज और जानने वालों की तरफ़ से न जाने कैसी प्रतिक्रिया आए.
पर इन गुमनाम कहानियों को पढ़नेवाली औरतें बेबाक़ी से लिख रही हैं.
पूनम कुमारी गुप्ता बड़ी साफ़गोई से अपनी बात कहती हैं. उनका कहना है कि "लोग कितना बदलेंगे ये तो पता नहीं, पर शायद औरतों की खुद की कुढ़न ही कम हो जाए."
ये कहानियां दुख और शिकायत की नहीं हैं. सामाजिक दबाव, पारिवारिक दायरों और औरत होने के नाते तय भूमिकाओं को तोड़कर अपने मन को सुनने की हैं.
इसीलिए इन्हें पढ़कर किसी की कुढ़न कम हो रही है तो किसी को ज़िंदगी अलग तरीक़े से जीने का हौसला मिल रहा है.
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महिलाओं के दिलो-दिमाग़ को जानने का मौक़ा
बिना किसी शारीरिक रिश्ते में बंधे, दो औरतों की साथ रहने की हमारी दूसरी कहानी पर एक पाठक मीनाक्षी ठाकुर लिखती हैं, "अपने तरीक़े से जीने की हिम्मत सब में नहीं होती, जो इन दोनों ने कर दिखाया!"
अतिया रहमान ने लिखा कि "जब आपको सच में पता होता है कि आप जो कर रहे हैं उसकी वजह क्या है और आप सचमुच चाहते क्या हैं, तब ऐसी कहानियां बनती हैं."
हमारे समाज में अक्सर औरतों को अपनी चाहत जानने, पहचानने और उसे अहमियत देने की सीख दी ही नहीं जाती.
शायद इसीलिए 12 आम औरतों की कहानियां बताने वाली हमारी इस सिरीज़ में पाठकों की इतनी दिलचस्पी है.
यह मौक़ा है औरतों के ख़ुद को और मर्दों के औरतों की दिल की बात जानने का.
आने वाले शनिवार और रविवार फिर लाएंगे बाग़ी तेवर की दो और बेबाक कहानियां. पढ़िएगा और बताइएगा कि उन्होंने आपके मन को डराया या हिम्मत बंधाई.