ब्लॉग: ब्लड कैंसर ने मुझे एक बेहतर इंसान बना दिया
मैं उन लोगों में से था जो यह समझते हैं कि ज़िंदगी का मतलब काम है. मैं पूरे दिन में पांच घंटे से अधिक नहीं सोता था. हालांकि मुझे कसरत करने का वक्त तो मिल जाता था लेकिन मेरे खाने की आदत और 'वर्क-लाइफ बैलेंस' में बहुत सारी कमियां थी जो लगातार बढ़ती जा रही थीं.
शायद तनाव का हमारे शरीर पर जो असर होता है उसे हम लोग अक़्सर कम करके आंकते हैं.
तारीखः 15 मार्च 2017 - उस पूरे दिन मैं उत्तर प्रदेश के बागपत में भारतीय वायुसेना के बेस पर मौजूद उनके गरुड़ कमांडो की प्रोफ़ाइल पर डॉक्युमेंट्री बनाने में व्यस्त था.
जैसे ही शाम हुई मुझे याद आया कि दिन के वक़्त मेरे फ़ोन पर एक कॉल आई थी जिसे मैं रिसीव नहीं कर सका था. साथ ही मुझे याद आया कि मुझे अपनी एक मेडिकल रिपोर्ट भी लेनी थी.
मैंने उस नंबर पर वापस कॉल किया. यह एक अस्पताल का नंबर था.
दूसरी तरफ से किसी महिला ने फ़ोन उठाया और कहा कि वो फ़ोन पर कुछ नहीं बता सकतीं, वो मुझे ईमेल कर देंगी.
मेरी गर्दन की बाईं तरफ एक गांठ थी, जिसके इलाज के लिए मैं कई दिन से दवाइयां ले रहा था लेकिन वह ठीक नहीं हो रही थी.
मुझे ईमेल पर अपनी मेडिकल रिपोर्ट मिली. मैंने उसे पढ़ा और शक़ जाहिर करते हुए डॉक्टर से इसके बारे में जानना चाहा तो उन्होंने मुझे झिड़की लगाई कि ज़्यादा परेशान मत हो. लेकिन अब मेरा शक़ सही निकला.
नॉन हॉगकिन लिम्फ़ोमा
जैसा कि उन्होंने मुझे बताया, मुझे नॉन हॉगकिन लिम्फ़ोमा यानी एक प्रकार का ब्लड कैंसर था. मेरी हालत बुरी थी, दिमाग़ कुछ सोच नहीं पा रहा था.
जब मुझे यह अहसास हुआ कि यह सब सच है और आज के बाद मेरी ज़िंदगी सामान्य नहीं होगी, तो मैंने अपनी डायरी में लिखाः
"हम इससे निबटेंगे और वो भी अच्छे से. मैं अब एक वादा करता हूं- मेरा उत्साह, मेरा प्यार और मेरे अंदर की इंसानियत आज से और मजबूत होने जा रही है. मैं कसम खाता हूं कि इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा और मैं इससे बाहर निकल कर रहूंगा. चीयर्स."
मेरे दिमाग में ब्लड कैंसर के बारे में कुछ धुंधली-सी तस्वीर उभर रही थी. इसे पूरी तरह समझने के लिए अगले कुछ दिन मैं डॉक्टर के संपर्क में रहा.
मां को कैसे बताऊं इस बात को लेकर मैं सबसे ज़्यादा परेशान था. वो मुंबई में अकेले रह रहीं थीं, मैं उन्हें परेशान नहीं करना चाहता था. लेकिन जब मैंने उन्हें बताया तो जो साहस उन्होंने मुझे दिया उससे मुझे बहुत ताक़त मिली.
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टेलिवीज़न पत्रकार के रूप में हमारे परिचित अक्सर हमें देख लिया करते हैं, लेकिन हम उन्हें देख नहीं पाते.
मुझे नहीं पता था कि मैं कब इस बीमारी से उबर पाऊंगा. मेरे आस-पास के लोग, जो मेरी परवाह करते थे उन्होंने पूछना शुरू कर दिया था कि मैं कई दिनों से बाहर क्यों नहीं दिख रहा हूं.
जब भी किसी ने मुझसे मेरे स्वास्थ्य के बारे में पूछा, मैंने उन्हें सब सच-सच बता दिया.
लोगों ने मुझे सलाह और सहायता की पेशकश की. कुछ ने अपनी व्यक्तिगत कहानियां बताई तो कुछ ने शुभकामनाएं दीं. लोगों ने तहे दिल से इतनी शुभकामनाएं दी कि इसने मेरे लिए इलाज का काम किया.
मैं बहुत भाग्यशाली था कि मुझे खुद में इस बीमारी से जुड़े एक भी लक्षण नहीं दिखे. जांच से पता चला कि मुझमें यह बीमारी अपने शुरुआती दौर में है.
लेकिन अब भी एक धीमा और कष्टदायक अनुभव शुरू होना बाकी था.
अप्रैल के मध्य तक मैं राजधानी दिल्ली स्थित राजीव गांधी कैंसर संस्थान एवं अनुसंधान केंद्र में एक डॉक्टर दिनेश भूरानी की देखरेख में छह बार कीमोथेरेपी से गुज़र चुका था.
क्या होगा अगर...
जिन लोगों का कीमोथेरेपी होता है उन्हें इसके कई साइड इफेक्ट्स के बारे में चेतावनी दी जाती है. इसमें दर्द, नींद का नहीं आना, मूड स्विंग और मितली शामिल हैं.
मेरे लिए, यह अपने शरीर को ध्यान से देखने का वक्त था. मेरे शरीर ने नियंत्रित और योजनाबद्ध तरीके से दी जा रही नियमित खुराकों की मात्रा का अच्छे से सामना किया. लेकिन इस दौरान 'क्या होगा अगर...' इन शब्दों ने कभी मेरा साथ नहीं छोड़ा.
मैं पढ़ता था, लिखता था. इस दौरान जो कुछ भी मैं सीख सकता था वो सब सीखा. बिना अलार्म लगाए सोता था और रोज़ाना मेडिटेशन करता था जिसने मेरी तबीयत सुधरने में मदद की.
इस दौरान, मैं अक़्सर कैंसर से होने वाली मौतों की ख़बरों से दो चार हुआ करता था. उन कहानियों से मेरा दिल बैठ जाता था, डर लगता था.
लेकिन मुझे कई ऐसे लोग भी मिले जिनकी स्थिति मेरे जैसी यानी शुरुआती स्तर की नहीं थी. हालांकि यह सुनना बहुत दुखद होता था कि कई लोगों ने इलाज तो शुरू किया लेकिन उसे पूरा नहीं कर सके.
मेरी पत्नी, मेरी मज़बूती
ठीक एक साल पहले और उसके बाद, मेडिकल परीक्षण कराने पर मेरे शरीर में कैंसर की कोशिकाएं नहीं मिली. उस समय मेरे डॉक्टर ने मुझे ट्रैवल करने की अनुमति दे दी.
लेकिन इससे पहले मैं करीब छह महीनों से मैं घर में था और यही मेरी दुनिया थी.
यह सब मेरी पत्नी के बिना संभव नहीं होता, जिसे मैं कैंसर होने से बहुत पहले से ही अपने 'मजबूती इरादे' की वजह मानता था.
वो एक पल के लिए मेरी प्यारी साथी थी तो अगले पल वो मुझे पुलिसिया अंदाज़ में डांट भी देती थी. उसने पागलपन की हद तक मेरी देखभाल की ताकि मैं सही खाना खाऊं और किसी भी तरह के इंफेक्शन से दूर रहूं.
हालांकि कई बार इसकी कीमत भी उसे चुकानी पड़ी है- उसके लिए तनाव बढ़ रहा था और यह दिखने भी लगा था. फिर मैंने अपने आप से वादा किया कि मैं अपने स्वास्थ्य का अधिक ध्यान रखूंगा ताकि वो चिंतित न हो.
कैंसर होने के पीछे अलग-अलग आदतों को जोड़ा जाता है लेकिन यह बीमारी किसी को भी प्रभावित कर सकती है.
इसमें हमारे शरीर में मौजूद ट्रिलियन कोशिकाओं में से एक ख़राब हो जाती हैं और न जाने कब काम करना बंद कर देती हैं.
यह कहा जाता है कि कैंसर अपने शुरुआती दिनों में कमज़ोर होता है और इस पर काबू पाया जा सकता है.
विज्ञान के पास जवाब नहीं
लेकिन आखिर क्या कारण था कि मुझे कैंसर हुआ? विज्ञान इसका जवाब नहीं देता. और मेरे मामले में इसकी बुनियादी मौजूदगी भी नहीं दिखती थी.
दूसरों की छोड़ें, मैं खुद को लेकर बहुत कठोर था. इससे कोई फ़़र्क नहीं पड़ता था कि मैंने क्या हासिल किया है. मैं हमेशा दुखी और असंतुष्ट रहा करता था.
और ज़्यादा पाने की इच्छा में मैं अपने शरीर और दिमाग को अनावश्यक तनाव में झोंक देता था.
मैं उन लोगों में से था जो यह समझते हैं कि ज़िंदगी का मतलब काम है. मैं पूरे दिन में पांच घंटे से अधिक नहीं सोता था. हालांकि मुझे कसरत करने का वक्त तो मिल जाता था लेकिन मेरे खाने की आदत और 'वर्क-लाइफ बैलेंस' में बहुत सारी कमियां थी जो लगातार बढ़ती जा रही थीं.
शायद तनाव का हमारे शरीर पर जो असर होता है उसे हम लोग अक़्सर कम करके आंकते हैं.
आज डेढ़ साल के बाद, मैं अपने शरीर और मन से गहराई से जुड़ा हुआ महसूस करता हूं और इस बंधन को और मज़बूत बनाने की मेरी इच्छा है.
मैं और ज़्यादा हंसना, गाना, नाचना चाहता हूं. जिन चीज़ों से मैं दूर था, आज उन्हें लेकर गंभीर हूं.
शुक्र है वो दौर गुज़र गया
मेरी बीमारी के दौरान, मैं अक्सर उन लोगों को देखा करता था जो स्वस्थ थे और सामान्य रूप से अपनी ज़िंदगी जी सकते थे.
उन्हें अपने प्रियजनों के साथ रेस्तरां जाते, पार्क में चलते, फ़िल्में जाते देखता था जो मैं इलाज की वजह से नहीं कर सकता था.
मैं रोगियों की देखभाल करने वाले लोगों के एक और समूह को भी देखता था.
किसी भी अस्पताल में अंदर कदम रखते ही आपको ऐसे कई लोग मिल जाएंगे जो दूसरों की मदद करते हैं. हमें अक्सर यह अहसास नहीं होता कि कष्ट कितना बड़ा है और दूर-दूर तक आपकी देखभाल करने वाले लोग भी मौजूद हैं.
चेहरे से हम यह नहीं जान सकते कि हमारे आस-पास कौन किस तरह की परेशानी से जूझ रहा है. हमारे बीच ही हज़ारों "गुमसुम रहने वाले हीरो" हैं. इस एहसास ने मुझमें हर किसी के प्रति संवेदना से भर दिया.
मैं अब क्रोध, कड़वाहट का लेशमात्रा भी अपनी या किसी और की तरफ नहीं आने देना चाहता हूं.
मेरे साथ गुज़रे इस दौर ने मुझे यह अहसास दिला दिया कि हमारे स्वास्थ्य की कुंजी खुद हमारे शरीर और आत्मा में मौजूद है. हमें केवल सही माहौल को विकसित करने की ज़रूरत है.
कैंसर एक पड़ाव के रूप में मेरे पास आया और शुक्र है कि मैंने ये पड़ाव सही-सलामत पार कर लिया. लेकिन इसने मुझे फिर एक बार नए सिरे से ज़िदगी जीने का मौक़ा दिया.
(लेखक बीबीसी में सीनियर ब्रॉडकास्ट जर्नलिस्ट हैं. ट्विटर अकाउंट @JUGALRP)
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