सबरीमला मुद्दे से मिले फ़ायदे को वोट बैंक में बदल सकेगी भाजपा?
भाजपा के एक अन्य वरिष्ठ नेता ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा, "निश्चित तौर पर हम देखते हैं कि लोगों में भावना है कि सिर्फ भाजपा ही भक्तों के पक्ष को आगे रख रही है. पूरे राज्य में उसे व्यापक समर्थन प्राप्त हो रहा है. हम पार्टी के नए सदस्य बनाने के लिए नहीं निकले हैं. लेकिन, इसका नतीजा अब केवल चुनाव में दिखेगा."
राज्य में विधानसभा चुनाव तीन साल बाद होने हैं और लोकसभा चुनाव छह महीने बाद हैं. सवाल यह है कि क्या बीते पांच दिनों के दौरान बनी स्थिति को भाजपा बरकरार रखने में कामयाब होगी?
सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी अयोध्या के राम मंदिर बनाने के मुद्दे को लेकर नब्बे के दशक में केंद्र में आई थी. हालांकि वो अपने इस वायदे को पूरा नहीं कर पाई, लेकिन ये बहस का अलग मुद्दा है.
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि मंदिर के मुद्दे ने पार्टी को उत्तर भारत में प्रचंड समर्थन हासिल करने में काफी मदद की और कुछ साल बाद ही पार्टी गठबंधन सरकार बनाने में कामयाब हुई.
लेकिन ऐसा लगता है कि काफी हद उत्तर भारत की पार्टी रही भाजपा को केरल के सबरीमला मंदिर में अयोध्या जैसा ही एक नया मुद्दा मिल गया है.
दो साल पहले, केरल जैसे राज्य में भाजपा को ऐसी राजनीतिक पार्टी माना जाता था जिसके साथ खुले तौर पर जुड़ने में कई लोग शर्मिंदा महसूस करते होंगे. यहां लोगों ने पिछले चार दशकों के दौरान भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और कांग्रेस को सत्ता में देखा है.
लेकिन बीते दो महीनों के दौरान हालात ने नाटकीय रूप से करवट बदली है और अब शायद ही कुछ ही लोग होंगे जो कहेंगे कि केरल में भाजपा का अस्तित्व नहीं है.
सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ के फ़ैसले ने 10 से 50 साल की महिलाओं (माहवारी होने की उम्र की महिलाओं) के सबरीमला के अयप्पा स्वामी मंदिर में प्रवेश करने से लगी रोक हटा ली थी. इसी के साथ भाजपा को परंपरा के समर्थन में और महिला अधिकारों के ख़िलाफ़ लोगों को एकजुट करने का एक बड़ा मौका मिल गया.
साल में एक बार आने वाले महत्वपूर्ण 64-दिवसीय मंडला-मक्करविलक्कू तीर्थाटन के लिए 17 नवंबर को सबरीमाला मंदिर के कपाट खुले. इसके बाद से ही भाजपा और सीपीएम और लेफ़्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) के नेतृत्व वाली सरकार के बीच तनाव लगातार बना हुआ है.
सीपीएम के ढुलमुल रवैये से मिला भाजपा का फ़ायदा
नए बनाए गए पुलिस नियमों का उल्लंघन करने के लिए एक भाजपा नेता और हिंदू संगठन से जुड़े एक अन्य नेता की गिरफ़्तारी के बाद यहां विरोध प्रदर्शन शुरू हुए. आश्चर्यजनक बात ये थी कि राज्य के छोटे शहरों में भी 200 से 300 लोग विरोध प्रदर्शन के लिए एकजुट हो रहे थे जबकि उनके सहयोगियों को नियमों के उल्लंघन के आरोप में जेल में बंद कर दिया गया था.
राजनीतिक विश्लेषक जो स्कारिया ने बीबीसी हिंदी को बताया, "बड़ी संख्या में लोग मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का खुल कर विरोध कर रहे हैं और इस पर ऐसा लग रहा है कि सीपीएम ढुलमुल नज़रिया अपना रही है."
इतिहासकार और फेमिनिस्ट जे देविका ने कहा, "राजनीतिक रूप से भाजपा तो बढ़ी ही है, लेकिन इससे भी महत्वपू्र्ण है कि इसका विकास सामाजिक रूप में भी हुआ है. यहां व्यापक स्तर पर रुढ़िवाद पसरा था जिसका वामपंथी और दक्षिणपंथी साझा तौर पर इस्तेमाल कर रहे थे. अब तक, वामपंथियों ने यहां राजनीतिक रूप से प्रगतिशील और सामाजिक रूप से प्रतिगामी (पीछे हटने वाले) होने का फ़ायदा उठाया है."
वरिष्ठ राजनीतिक जानकार बी.आर.पी. भास्कर कहते हैं, "ई.एम.एस. नंबूदरीपाद (1957 में भारत में पहली बार कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार के मुख्यमंत्री) ईश्वर में विश्वास नहीं करने वालों में से थे लेकिन अपनी पत्नी के साथ वो हमेशा ही मंदिर जाया करते थे."
'सामाजिक रूढ़िवाद का इस्तेमाल'
ऐसा लगता है कि यह प्रचलन आज भी नहीं बदला. ऐसा नहीं है कि वामपंथी अब तक इससे अनजान थे. देविका कहती हैं कि जिन फेमिनिस्टों ने वामपंथियों को इसके बारे में चेतावनी दी थी, उन्हें झिड़क दिया गया था.
वे कहती हैं, "दक्षिणपंथी सक्रिय रूप से सामाजिक रूढ़िवाद को इस्तेमाल कर रहे हैं और स्पष्ट तौर पर ये वामपंथियों से अधिक दक्षिणपंथियों पर कहीं अधिक फिट बैठता है. इसलिए वो इसका फ़ायदा उठा रहे हैं."
देविका कहती हैं, "और वास्तव में वामपंथी इससे निपटने में इतने चतुर नहीं हैं."
एशियानेट टेलीविज़न नेटवर्क के एडिटर-इन-चीफ़ और राजनीतिक विश्लेषक एम.जी. राधाकृष्णन कहते हैं, "सरकार कम से कम (कोर्ट के फ़ैसले का विरोध कर रहे) विभिन्न संगठनों से बात कर सकती थी. वो इससे और अधिक कुशलता से निपट सकती थी. वो केरल की पुलेयार महासभा (सबसे बड़ा दलित सगंठन) के एक वर्ग को को बातचीत में शामिल कर सकती थी जो भाजपा से अलग हो गया था. उनके पास भाजपा का मुक़ाबला करने के लिए कोई राजनीतिक रणनीति नहीं थी."
क़ानूनी तौर पर, विश्लेषकों इस बात पर एकमत हैं कि एलडीएफ़ सरकार के पास सर्वोच्च अदालत के निर्णय को लेकर अपने फ़ैसले पर कायम रहने के सिवा कोई और "विकल्प नहीं" था.
केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने बार-बार कहा है कि राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को लेकर समीक्षा याचिका दायर नहीं करेगी, यहां तक कि कोर्ट के आदेश को लागू करने के लिए समय की मांग भी नहीं करेगी क्योंकि सरकार ने ही हलफ़नामा दायर किया था कि वो सबरीमला मंदिर में हर उम्र की महिलाओं के प्रवेश के पक्ष में है.
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'अलग लकीर पर होता है मतदान'
किसी भी विश्लेषक को इसमें शक नहीं है कि भाजपा को केरल में सबरीमला मंदिर के मुद्दे से फ़ायदा पहुंचा है. लेकिन, क्या यह मुद्दा पार्टी के वोट बैंक में भी तब्दील होगा?
बी.आर.पी. भास्कर कहते हैं, "मुझे नहीं लगता कि भाजपा को इससे वैसी मदद मिलेगी जैसा वो सोचती है. उन्हें लगता है कि यहां वो त्रिपुरा की तरह कुछ कर सकते हैं. लेकिन, ऐसा यहां नहीं हो सकेगा क्योंकि केरल में आंदोलन से हट कर मतदान अलग लकीर पर होता है."
2011 में 8.98 फ़ीसदी की तुलना में 2016 के विधानसभा चुनाव में भाजपा का वोट शेयर 15.20 फ़ीसदी हो गया है. पार्टी ने विधानसभा में एक सीट भी जीती.
यह सर्वविदित है कि केरल में राजनीतिक पार्टियों की सामाजिक उपस्थिति बहुत संकीर्ण है. उदाहरण के लिए, कांग्रेस एक ऐसी पार्टी है जिसे ईसाई और नायर समुदायों के बीच काफ़ी समर्थन हासिल है.
कांग्रेस के नेतृत्व वाले युनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ़) के अन्य सदस्यों जैसे कि मुस्लिम लीग को मुसलमानों का समर्थन हासिल है, वैसे ही कांग्रेस (मणि ग्रुप) को ईसाइयों का समर्थन प्राप्त है.
दूसरी ओर सीपीएम में राज्य में 55 फ़ीसदी आबादी वाले हिंदू बहुल सदस्यों की संख्या करीब 80 फ़ीसदी है, इनमें राज्य की सबसे बड़ी ओबीसी आबादी वाली इज़लावा भी शामिल है.
अल्पसंख्यकों तक पहुंच कर यह राज्य में अपनी उपस्थिति को और मज़बूत बनाने में लगी है. (मुस्लिम और ईसाई राज्य की कुल आबादी का लगभग 45 फ़ीसदी हैं.)
एम.जी. राधाकृष्णन कहते हैं, "भाजपा को निश्चित रूप से फ़ायदा पहुंचा है. लोगों का रुझान कांग्रेस हट कर से भाजपा की तरफ हुआ है. लेकिन इनमें से कितने लोग भाजपा के लिए वोट करेंगे यह तय करना मुश्किल है. लेकिन, राजनीतिक बदलाव इसी तरह होते हैं. और ऐसा हुआ तो कांग्रेस हार सकती है."
वोटर किसके पक्ष में जाएगा?
सीपीएम के एक नेता ने नाम नहीं बताने की शर्त पर कहा, "मंडला-मक्करविलक्कू के पहले दिन भाजपा ने हड़ताल की अपील की जो हमारे लिए उपयोगी रहा क्योंकि इससे हमें लोगों को यह बताने में मदद मिली कि भाजपा के एजेंडे के तहत काम कर रही है. हड़ताल की वजह से बस अड्डों पर बड़ी संख्या में भक्त फंस गए. हां, भाजपा को कांग्रेस से फ़ायदा पहुंचेगा क्योंकि वो इस आंदोलन का हिस्सा बन गई है. कांग्रेस के उच्च जाति वाले समर्थक भाजपा का रुख करेंगे."
कांग्रेस के एक नेता ने भी नाम नहीं छापने की शर्त पर इस तर्क को ख़ारिज किया कि कांग्रेस को इससे नुकसान पहुंचेगा. इसके विपरीत उनका मानना था कि कांग्रेस को इससे फ़ायदा ही पहुंचेगा.
बी.आर.पी. भास्कर कहते हैं कि अगस्त में आई बाढ़ से राज्य कठिन परिस्थितियों में पहुंच गया था. वो कहते हैं, "उस दौरान सभी अपनी जाति भूल कर एक साथ काम करने के लिए आगे आए. ऐसा महसूस हुआ कि केरल में एक बार फिर नवचेतना जागृत हुई. इसके बाद सबरीमला मामला आया. लेकिन इन सभी सामाजिक विकास की बातों के के बीच - जिनपर केरल गर्व करता आया था - यह दिखने लगा कि एक मजबूत धार्मिक भावना भी कहीं मौजूद थी."
उत्तर भारत के राज्यों के विपरीत, भगवान राम को लेकर दक्षिण भारतीय राज्य में अधिक खिंचाव देखने को नहीं मिला. यहां तक कि कर्नाटक में भी वहां की प्रमुख लिंगायत जाति का वोट ही था जिसने इसे सत्ता के क़रीब पहुंचाया.
भाजपा के एक नेता ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा, "भगवान राम केरल के लोगों की समझ में नहीं आते. लेकिन स्वामी अयप्पा का मुद्दा लोगों को अच्छी तरह समझ आता है."
भाजपा के एक अन्य वरिष्ठ नेता ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा, "निश्चित तौर पर हम देखते हैं कि लोगों में भावना है कि सिर्फ भाजपा ही भक्तों के पक्ष को आगे रख रही है. पूरे राज्य में उसे व्यापक समर्थन प्राप्त हो रहा है. हम पार्टी के नए सदस्य बनाने के लिए नहीं निकले हैं. लेकिन, इसका नतीजा अब केवल चुनाव में दिखेगा."
राज्य में विधानसभा चुनाव तीन साल बाद होने हैं और लोकसभा चुनाव छह महीने बाद हैं. सवाल यह है कि क्या बीते पांच दिनों के दौरान बनी स्थिति को भाजपा बरकरार रखने में कामयाब होगी?
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