सत्ता में वापसी के लिए बीजेपी ने छोटे दलों के सामने घुटने टेके
नई दिल्ली- बीजेपी हर हाल में सत्ता में वापसी चाहती है। लोकतंत्र में यह बहुत ही स्वाभाविक भी है। लेकिन, 2014 के मुकाबले 2019 में उसके लिए परिस्थितियां काफी बदल चुकी हैं। मौजूदा सियासी माहौल में बीजेपी के सामने तीन बड़ी चुनौतियां हैं। विपक्ष का मुखर विरोध, तीन राज्यों में जीत से उत्साहित कांग्रेस और पांच साल की सत्ता के चलते पैदा हुई एंटी इनकंबेंसी। बीजेपी नेतृत्व को पूरा इल्म है कि इन सभी चुनौतियों से राष्ट्रीय स्तर पर अकेले दम पर निपटना आसान नहीं है। हाल के दिनों में बिहार, महाराष्ट्र और सबसे अंत में तमिलनाडु में क्षेत्रीय दलों के साथ हुए सीटों के समझौतों को उसी व्यवहारिक नजरिए से देखा जाना चाहिए। इन सभी राज्यों में कहीं न कहीं पार्टी को झुकना पड़ा है, तभी वह एक मजबूत गठबंधन बना सकी है।
तमिलनाडु में पीएमके से भी कम सीट लेकर संतुष्ट
जो भी हो तीनों राज्यों में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की कड़ी मेहनत रंग लाई है। हालांकि, बीजेपी को अपनी चाहतों से समझौता जरूर करना पड़ा है। सबसे ताजा मामला तमिलनाडु का है, जहां मंगलवार को बीजेपी,एआईएडीएमके और पीएमके के बीच गठबंधन की घोषणा की गई। पहले कहा जा रहा था कि यहां की 39 सीटों में से बीजेपी 15 सीटों पर चुनाव लड़ने के मूड में है। लेकिन, जो तालमेल हुआ उसके मुताबिक 27 सीटों पर एआईएडीएमके, 7 सीटों पर पीएमके और बीजेपी सिर्फ 5 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। अब कहां 15 और कहां 5? जाहिर है कि बीजेपी के पास इसके अलावा कोई उपाय भी नहीं था। वैसे पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने यहां केवल कन्याकुमारी सीट पर जीत हासिल की थी। उधर जयललिता के निधन से एआईएडीएमके के प्रदर्शन को लेकर भी आशंका जताई जा रही थी,लेकिन नए गठबंधन से एक उम्मीद जरूर जग गई है। क्योंकि, उत्तरी तमिलनाडु में मजबूत आधार वाली पीएमके पर डोरे डालने के लिए डीएमके-कांग्रेस गठबंधन भी खूब जोर लगा चुकी थी। बीजेपी के ताजा रवैये पर बीएसपी अध्यक्ष मायावती ने ट्विटर के जरिए निशाना भी साधा है।
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महाराष्ट्र में शिवसेना की सारी 'गुस्ताखियां' नजरअंदाज
वहीं महाराष्ट्र की बात करें तो बीजेपी की ओर से ये तो प्रचारित किया जा रहा है कि राज्य की 48 में से ज्यादा यानि 25 पर वो लड़ेगी, जबकि उससे दो सीट कम यानि 23 पर शिवसेना। यहां यह बता देना जरूरी है कि प्रदेश में बीजेपी के अन्य सहयोगियों में इस समझौते को लेकर विरोध के सुर भी फूटने लगे हैं। खबरों के मुताबिक उनका कहना है कि बीजेपी-शिवसेना गठबंधन की घोषणा उन्हें अंधेरे में रखकर की गई है। गौरतलब है कि वहां आरपीआई, आरएसपी और शिव संग्राम जैसे दलों के साथ भी बीजेपी का तालमेल रहा है। आरपीआई के रामदास आठवले तो मोदी सरकार में मंत्री भी हैं। यानि अगर बीजेपी को ये गठबंधन बरकरार रखना है, तो उन्हें अपने ही कोटे से सीटें देनी पड़ेगी। अब समझना होगा कि जब बीजेपी गठबंधन के लिए शिवसेना से मिलने वाली कड़वी घूंट की डेली डोज को स्वीकार कर चुकी है, तो बाकी दलों को भी नाराज नहीं ही करना चाहेगी। खासकर जब कांग्रेस और एनसीपी गठबंधन के तहत चुनाव लड़ने के लिए ताल ठोक चुकी है।
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बिहार में बड़ी मुश्किल से मानी एलजेपी, जेडीयू बराबरी पर राजी
तमिलनाडु और महाराष्ट्र के बाद बिहार तीसरा राज्य है, जहां बीजेपी को मजबूरन अपने सहयोगियों को ज्यादा तबज्जो देना पड़ा है। बीजेपी को न सिर्फ रामविलास पासवान की एलजेपी को 6 लोकसभा सीटें देनी पड़ी हैं, बल्कि खुद पासवान को राज्यसभा की पहली वैकेंसी में सदन तक पहुंचाने का वादा भी करना पड़ा है। खास बात ये है कि जब वहां सीटें तय नहीं हुईं थीं, तो चुनावों के मौसम वैज्ञानिक के रूप में चर्चित पासवान की पार्टी की ओर से तरह-तरह की बयानबाजी करके बीजेपी नेतृत्व को आगाह भी किया जा रहा था। उसी तरह बीजेपी को नीतीश कुमार की जेडीयू के साथ 17-17 सीटों पर लड़ने के लिए राजी होना पड़ा है। गौरतलब है कि 2014 के आम चुनाव में बिहार में बीजेपी गठबंधन को 31 सीटें मिली थीं, जबकि जेडीयू के खाते में मात्र 2 सीटें ही आई थीं।