बिहार में चिराग पासवान और JDU-मांझी के बीच रार, क्या करें भाजपा के खेवनहार
नई दिल्ली- बिहार विधानसभा चुनावों की तारीखों की घोषणा होने वाली है। लेकिन, भारतीय जनता पार्टी की मुश्किल ये है कि राज्य में वह अपने घटक दलों की सियासी लड़ाई को ही शांत नहीं कर पा रही है। इसकी जड़ में है वह जातिगत राजनीति जिसकी वजह से खासकर बिहार की सियासत हमेशा से ही बदनाम रही है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जदयू और केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा में पहले से ही रस्साकशी चल रही थी। उसमें नीतीश कुमार ने एक और दलित नेता जीतन राम मांझी की पार्टी हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा को मिलाकर एनडीए के समीकरण में और भी उथल-पुथल मचा दिया है। भाजपा के रणनीतिकार समझ नहीं पा रहे हैं कि सबकी अपने-अपने हितों पर अटकी मुरादें कैसे पूरी की जाए।
बिहार में एनडीए के बीच रार, टेंशन में भाजपा के खेवनहार
रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा की कमान अब पूरी तरह से उनके बेटे और सांसद चिराग पासवान के हाथों में है। वह पहले से ही बिहार में अपनी यूवा छवि और दलित वोट बैंक की बदौलत अपनी एक अलग पहचान बनाने में जुटे थे। ऊपर से उन्होंने एनडीए में रहकर भी नीतीश कुमार और उनकी सरकार के 'सुशासन' की खिंचाई करने की कोई कसर नहीं छोड़ी। अलबत्ता केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी के साथ उन्होंने ताल्लुकात बहुत ही अच्छे बनाए रखे हैं। बिहार विधानसभा चुनाव की तैयारियों के मद्देनजर ही पार्टी ने उन्हें अध्यक्ष बनाया था। साल भर से वो घूम-घूम कर नीतीश सरकार पर भ्रष्टाचार और कानून-व्यवस्था से लेकर विकास तक के दावों पर हमला बोलते रहे। खासकर कोविड-19 को जिस तरह से वहां हैंडल किया गया, उसको लेकर भी नीतीश और जेडीयू उनके निशाने पर रहे। उनकी सक्रियता ने पार्टी कैडर में भी जोश बढ़ा दिया और उन्हें वो मुख्यमंत्री मैटेरियल समझने लग गए। इस बात की तस्दीक के लिए पार्टी 'बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट' का नारा लेकर आई। अंदरखाने सीटों के लिए जेडीयू के साथ खींचतान चल रही थी कि नीतीश ने अपने पुराने साथी और एक और दलित नेता जीतन राम मांझी को गठबंधन का हिस्सा बनाकर और तूफान मचा दिया। नीतीश के इस कदम ने भाजपा नेताओं का भी टेंशन बढ़ा दिया है।
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दलित वोट बैंक की लड़ाई
बिहार में दलित वोट बैंक लगभग 17 फीसदी के आसपास है। 80 के दशक के आखिर में राज्य से कांग्रेस की लुटिया डुबने के बाद से इस वोट बैंक पर लालू-राबड़ी ने राज किया। साल 2000 में रामविलास पासवान ने नई पार्टी बनाकर दलितों को लालू से अलग विकल्प दिया। पासवान ने अपना सियासी करियर ही दलित कार्ड खेलकर शुरू किया था, जिसके चलते उन्होंने कई बार रिकॉर्ड अंतर से जीत का परचम भी लहराया। 2005 में नीतीश कुमार को मौका मिला तो उन्होंने दलितों में से महादलितों को ढूंढ़ निकाला और रामविलास पासवान को सिर्फ पासवानों का नेता बना दिया। यहां से नीतीश ने कुर्मी-कोयरी और महादलितों को अपना पक्का वोट बैंक मानकर राजनीति आगे बढ़ाई और भाजपा के सहयोग से आगे बढ़ना शुरू किया तो 2013 तक उन्हें कोई रोकने वाला नहीं हुआ। पासवानों को महादलित में तबतक (2018 में एंट्री मिली) एंट्री नहीं मिली, जब नीतीश दोबारा लालू का साथ छोड़कर एनडीए में नहीं आ गए।
पासवान की काट में नीतीश की चाल
पिछले 15 वर्षों में नीतीश कुमार चाहे एनडीए में रहे हों या महागठबंधन में सत्ताधारी गठबंधन में सीएम की कुर्सी पर उन्हें किसी से चुनौती नहीं मिली। लेकिन, अबकी बार चिराग पासवान और उनकी पार्टी ने जिस तरह के मुद्दे उठाए हैं, वह एक तरह से नीतीश कुमार को खुली चुनौती है। चिराग पासवान जेडीयू और नीतीश को जिस तरह से घेर रहे हैं, वह बिना उनके पिता के समर्थन का नहीं हो सकता। रामविलास पासवान ने 2010 के विधानसभा चुनाव में ही मुस्लिम मुख्यमंत्री की मांग उठाकर मुस्लिम-दलित गठजोड़ को मजबूती देने में भी काफी सफल कोशिश की थी। यही वजह है कि बदली हुई सियासी परिस्थितियों में यही समीकरण नीतीश को भी खटक रहा होगा, जिसकी काट के तौर पर उन्हें मांझी का सहारा मिल गया है। चिराग तो उन्हें एनडीए का मानने के लिए तैयार ही नहीं हैं। उनका कहना है कि बिहार में एनडीए में किसी की एंट्री अकेले जेडीयू तय नहीं कर सकती। मांझी भी अपना मुख्य प्रतिद्वंद्वी पासवान को ही मानते ही हैं। लोजपा के नारे के जवाब में हिदुस्तानी आवाम मोर्चा के कैंपेन का नारा दिया गया है- 'फर्स्ट बिहार नीतीश कुमार'। यानी जेडीयू और मांझी की ओर से इशारा मिल रहा है कि एलजेपी एनडीए से जाए तो जाए। इस तरह से वह 2010 के चुनाव के हिसाब से सीटों के लिए बीजेपी पर भी दबाव बनाना चाहती है।
पासवान को भाजपा का साथ पसंद है
एलजेपी को जेडीयू से तो परहेज है, लेकिन भाजपा का साथ छोड़ने में उसे फायदा नजर नहीं आ रहा। इसीलिए उसने उन 143 सीटों पर अपना उम्मीदवार उतारने की बात उठानी शुरू कर दी है, जिसपर जदयू के उम्मीदवार होंगे। इसके ये मायने भी निकल रहे हैं कि जेडीयू भाजपा से इतनी ही सीटें मांग रही है, जबकि बीजेपी खुद के लिए आधी से ज्यादा सीटों पर दबाव बनाए रखना चाहती है। ऐसे में अगर एलजेपी ने जेडीयू के खिलाफ उम्मीदवार देने का फैसला कर लिया तो भाजपा भी और सीटों के लिए दबाव बढ़ा सकती है। पहले तो राजनीतिक गलियारों में 100-100-43 सीटों पर तालमेल की भी चर्चा हो रही थी, जिसपर आपसी सहमति शायद बनाई भी जा सकती थी। लेकिन, मांझी की एंट्री ने समीकरण को थोड़ा ज्यादा उलझा दिया है।
सहयोगियों की उलझन, भाजपा की टेंशन
ऐसे में भाजपा की भूमिका चिराग पासवान और जीतन राम मांझी के बीच की राजनीतिक लड़ाई में अंपायर की हो गई है, क्योंकि दोनों के कोच रामविलास पासवान और नीतीश कुमार पीछे से खेल रहे हैं। बीजेपी की मुश्किल ये भी है कि सहयोगियों का गणित फिट करने के चक्कर में अपने कैडर ना बिदक जाएं। क्योंकि, उनका हमेशा से आरोप यही रहा है कि संगठन के लिए मेहनत वो करते हैं और चुनाव के बाद मलाई दूसरे के हिस्सों में चला जाता है। अब सवाल है कि भारतीय जनता पार्टी चिराग पासवान को राजी कैसे करेगी, जिनके कार्यकर्ताओं ने उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में देखने का सपना बुन लिया है। क्योंकि, बीजेपी के लिए चुनाव से ठीक पहले गठबंधन में भारी उलटफेर भी ठीक नहीं है। ना ही पासवान को मुख्यमंत्री पद का सपना देखने देना, बीजेपी की अपनी सेहत के लिए भी ठीक है। ऐसे में एक चर्चा और खूब जोर मार रही है। इसके तहत अगर चिराग शांत हो जाते हैं तो उन्हें अगले साल मोदी सरकार में उन्हें जगह देने की बात हो सकती है। क्योंकि, रामविलास भी अगले साल के शुरू में 75 साल के हो रहे हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो सीमा तय कर रखी है, उसके बाद उनपर युवाओं के लिए रास्ता छोड़ने का नैतिक दबाव बढ़ सकता है। वैसे भी केंद्र में एलजेपी का मंत्रिपद बीजेपी की रहमोकरम पर ही टिका है।
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