अपनी ही सरकार में लाए इलेक्टोरल बॉन्ड से बीजेपी हुई मालामाल, RTI से खुलासा
नई दिल्ली- इलेक्टोरल बॉन्ड्स (electoral bonds) से सबसे ज्यादा कमाई बीजेपी को ही हुई है। उसके बाद दूसरे नंबर पर कांग्रेस जरूर है, लेकिन बीजेपी की तुलना में वह बहुत ही पीछे है। गौरतलब है कि राजनीतिक दल को मिलने वाले डोनेशन में पारदर्शिता लाने के नाम पर मोदी सरकार ने चुनावी बॉन्ड ( electoral bonds) की व्यवस्था अपना आई है। लेकिन, अब पता चल रहा है कि इस तरकीब से सबसे ज्यादा फायदा सत्ताधारी पार्टी को फायदा मिल रहा है। एक आरटीआई (RTI) से हुए इस खुलासे ने इस प्रक्रिया पर पहले से ही उठ रहे सवालों को और भी धार दे दी है। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट भी इसकी पारदर्शिता पर विचार कर रहा है, जहां चुनाव आयोग ने भी इसको लेकर उठाई जा रही आशंकाओं पर हामी भरी है।
चुनावी बॉन्ड ने बीजेपी को किया मालामाल
केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने पिछले साल संसद में राजनीतिक पार्टियों को चंदे के रूप में मिलने वाले धन की पारदर्शिता बढ़ाने के लिए इलेक्टोरल बॉन्ड्स (electoral bonds) के रूप में नई प्रक्रिया अपनाए जाने के बारे में सदन को सूचित करते हुए कहा था- "यह एक स्वच्छ धन (clean money) होगा और इसमें मौजूदा अस्वच्छ धन (unclean money) की व्यवस्था की तुलना में पर्याप्त मात्रा में पारदर्शिता भी होगी।" एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ( Association for Democratic Reforms ) से पता चला है कि एक साल में इस इलेक्टोरल बॉन्ड्स (electoral bonds) की बिक्री में 62% का इजाफा हुआ है। इसके एकमात्र सप्लायर स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (SBI) के अनुसार 2018 में 1,056 करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बॉन्ड्स (electoral bonds) खरीदे गए, जो कि इस साल जनवरी से मार्च में बढ़कर 1,716 करोड़ रुपया पहुंच गया। एडीआर (ADR)के रिसर्च से पता चलता है कि 2017-18 में इलेक्टोरल बॉन्ड्स (electoral bonds) से आए पैसे का सबसे ज्यादा हिस्सा यानी 215 करोड़ रुपये राष्ट्रीय पार्टियों के खातों में गया, जिसमें बीजेपी का हिस्सा 210 करोड़ और कांग्रेस का सिर्फ 5 करोड़ रुपये रहा।
इलेक्टोरल बॉन्ड की पारदर्शिता पर सवाल
इस व्यवस्था की सबसे बड़ी खामी ये बताई जा रही है कि इसमें दान देने वालों के बारे में कुछ भी पता नहीं रहता, जबकि इलेक्टोरल बॉन्ड्स (electoral bonds) पर टैक्स से छूट मिली हुई है। सबसे बड़ा सवाल ये है कि दान कौन दे रहा है, इसके बारे में कोई जानकारी ही नहीं रहती। क्योंकि कोई भी गुमनाम शख्स एसबीआई (SBI) से 1 करोड़ रुपये तक का इलेक्टोरल बॉन्ड (electoral bond)खरीदकर अपनी पसंदीदा राजनीतिक पार्टी के खाते में डाल सकता है। जाहिर है कि इसे कोई साधारण आदमी नहीं खरीदता, बल्कि धनाढ्य व्यक्ति या बड़े-बड़े कॉर्पोरेट हाउस ही इसकी फंडिंग करते हैं। चिंता इस बात को लेकर जताई जा रही है कि इसके कारण सरकार उनके फायदे के लिए काम करेगी। एडीआर (ADR) ने ही सुप्रीम कोर्ट में इस बॉन्ड को चुनौती दी है। वहीं चुनाव आयोग ने भी सुप्रीम कोर्ट में इसी आधार पर इलेक्टोरल बॉन्ड्स (electoral bonds) के खिलाफ मत दिया है। जबकि, केंद्र सरकार का तर्क है कि इस व्यवस्था को राजनीति में बेहिसाब पैसों के आने से रोकने के लिए ही अपनाया गया है और अगर इसे खत्म किया जाता है, तो राजनीति में बेहिसाब पैसों की घुसपैठ रोकने के उसके मूल मकसद को ही झटका लगेगा।
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छोटी पार्टियों का बढ़ा टेंशन
इलेक्टोरल बॉन्ड्स (electoral bonds) के माध्यम से आने वाले चंदे की असलियत ने क्षेत्रीय दलों के कान खड़े कर दिए हैं। इंडिया टुडे के मुताबिक जेडीयू प्रवक्ता पवन वर्मा ने एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) की जांच के नतीजों पर चिंता जताते हुए कहा है कि इलेक्टोरल बॉन्ड्स (electoral bonds) भारतीय राजनीति को बिना हिसाब के पैसों से मुक्त करने के लिए आदर्श सुधार के तौर पर लाया गया था। लेकिन, अब पता चल रहा है कि इसका सबसे ज्यादा फायदा सत्ताधारी पार्टी ही उठा रही हैं। ये एक तरह से गैर-बराबरी वाली व्यवस्था है और ऐसे में क्षेत्रीय दलों का क्या होगा?