बिहारः 'मेड इन मुंगेर' पर भारी अवैध हथियारों का धंधा
वहीं 7 अक्तूबर, 2018 को पश्चिम बंगाल पुलिस ने मालदा शहर में चल रहे एक ग्रिल फ़ैक्ट्री की आड़ में अवैध हथियारों की इकाई पर कारवाई कर 24 रिवॉल्वर, 200 अर्ध-निर्मित हथियार समेत मुंगेर के रहने वाले दो लोगों को गिरफ़्तार किया.
जून, 2018 में मालदा में पुलिस की एक अन्य कार्रवाई में अवैध हथियारों के साथ 9 लोग पकड़े गए. इन सभी को मुंगेर से हथियार बनाने के लिए अनुबंध पर मालदा लाया गया था.
बिहार की राजधानी पटना से क़रीब 200 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में स्थित मुंगेर एक बार फिर अवैध हथियारों की वजह से चर्चा में है.
मुंगेर के एसपी बाबू राम के अनुसार "29 अगस्त को मुंगेर के जमालपुर से तीन एके- 47, 30 मैगज़ीन, पिस्टन आदि के साथ एक युवक पकड़ा गया था."
एसपी बाबू राम का कहना है कि ये हथियार जबलपुर ऑर्डिनेंस डिपो से यहाँ लाये गए थे. मुंगेर से सटे बरदह गाँव में 28 सितंबर को एक कुएं से 12 एके-47 राइफ़लें बरामद की गई थीं.
"अब तक कुल 20 एके-47 राइफ़लें बरामद की गई हैं और इस सिलसिले में 21 लोगों की गिरफ़्तारी हुई है."
"हथियारों की मांग में भारी बढ़ोतरी और लाइसेंसिंग प्रक्रिया की जटिलता की वजह से अवैध हथियारों के कारोबार को बढ़ावा मिला है. बरहद गाँव के अलावा कई संदिग्ध पॉकेट्स की पहचान की गई है. "
"पुलिस के बढ़ते दबाव की वजह से यहाँ के अवैध हथियारों के कारोबार में लिप्त गैंग पश्चिम बंगाल के मालदा, कोलकाता, झारखंड और उत्तर प्रदेश का रुख़ कर रहा है."
गैंग मरते नहीं…
बिहार के पूर्व पुलिस महानिदेशक डॉक्टर देवकी नंदन गौतम की राय में "गैंग के सदस्य मरते हैं, गैंग कभी नहीं मरता है."
डॉक्टर गौतम साल 1986 में मुंगेर ज़िले के एसपी रह चुके हैं.
उन्होंने बीबीसी को बताया कि "साल 1986 के फरवरी महीने में दियारा इलाक़े में एक सर्च ऑपरेशन के दौरान चेकोस्लोवाकिया में बने एके-47 कैलिबर के लगभग 100 कारतूस बरामद किए गए थे. सभी कारतूस उसी साल के बने हुए थे."
ज़ाहिर है कि शस्त्र नगरी मुंगेर में वैध और अवैध हथियार बनाने-बेचने का सिलसिला कम से कम तीन दशक पुराना है.
वैध हथियारों का धंधा मंदा
शहर में वैध हथियारों के कारोबार में भारी गिरावट दर्ज हुई है जबकि अवैध हथियारों का धंधा तेजी से बढ़ा है.
मुंगेर की तंग गलीनुमा सड़कें रोशन हैं. शहर में बंदूक की 40 दुकानें हैं.
चौक बाज़ार पर एक बंदूक दुकान के मालिक 78 वर्षीय ठाकुर नरेश सिंह हर दिन की तरह ग्राहकों के इंतज़ार में बैठे हैं.
इनकी दुकान पर कभी ख़रीदारों की भीड़ जुटती थी, लेकिन अब सन्नाटा पसरा रहता है.
वे कहते हैं, "पहले हर साल मैं औसतन 100 या उससे अधिक सिंगल-डबल बैरल बंदूकें बेच देता था, लेकिन साल 2000 के बाद से ख़रीदारों की संख्या में बहुत गिरावट आई है. अब हर साल दो या तीन बंदूकें ही बेच पाता हूँ."
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गाँव में फैला अवैध हथियारों का धंधा
नरेश सिंह की दुकान से कुछ ही दूरी पर स्थित शहर के मुफ्फसिल और क़ासिम बाज़ार थाने के कई गाँवों में अवैध हथियारों का कारोबार फल-फूल रहा है.
नरेश सिंह सिंगल-डबल बैरल बंदूक की मांग में गिरावट की वजह लाइसेंस प्रक्रिया की जटिलता और आधुनिक और छोटे हथियारों के प्रति बढ़ते आकर्षण को मानते हैं.
वो कहते हैं कि मुंगेर अवैध हथियारों का गढ़ बन चुका है.
बंदूक निर्माता मेसर्स गिरिलाल एंड कंपनी के मालिक विपिन कुमार शर्मा के अनुसार, "मुंगेर शहर का हथियारों से ऐतिहासिक नाता रहा है. बंगाल के नवाब मीर क़ासिम अली (1760- 63) ने अपने शस्त्रागार के साथ मुर्शिदाबाद को छोड़कर मुंगेर को अपनी राजधानी बना लिया था. नवाब के शस्त्रागार में कुशल कारिगरों की भारी संख्या थी. उनका पारंपरिक कौशल पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ा."
ब्रिटिश सरकार ने स्थापित की गन फैक्ट्री
शर्मा बताते हैं कि "अंग्रेजों के भारत आने के बाद पहली बार आर्म्स एक्ट साल 1878 में बना और आर्म्स एक्ट मैनुअल को साल 1924 में तैयार किया गया."
"इसके तहत बिहार में मुंगेर सहित अन्य शहरों के 20 लोगों को उनके परिसर में हथियार बनाने का लाइसेंस तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने दिया."
"आज़ादी के बाद आर्म्स एक्ट 1948 में और आर्म्स रूल्स साल 1962 में वजूद में आये. इसके तहत मुंगेर में सभी बंदूक निर्माण इकाइयों को एक छत के नीचे लाया गया."
"भारत सरकार ने तब देशभर में 105 निजी बंदूक निर्माताओं को बंदूक निर्माण के लिए लाइसेंस दिया. बिहार में मुंगेर की 37 बंदूक निर्माता कंपनियों को लाइसेंस मिला."
साल 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान मुंगेर की इकाइयों ने ही सेना के लिए .410 मस्कट राइफ़ल का निर्माण किया था.
बंदी की कगार पर आठ कारखाने
क़रीब 10 एकड़ में फैले बंदूक निर्माण कारखानों में 12 बोर की डबल-सिंगल बैरल बंदूकें बनाई जाती हैं.
फ़ाइज़र गन मैन्युफ़ैक्चरिंग कंपनी के मालिक सौरभ निधि बताते हैं कि "यहाँ 35 बंदूक कारखानों को लाइसेंस जारी किया गया है. इनमें से 8 की स्थिति काफ़ी ख़राब है."
"जबकि, दो इकाइयां मेसर्स दास एंड कंपनी और मुंगेर बंदूक निर्माण सहयोग समिति लिमिटेड (एमजीएम) बंद हो चुकी हैं."
"एमजीएम देश की एकमात्र बंदूक निर्माण इकाई थी जिसका निबंधन सोसाइटी एक्ट के तहत जनवरी, 1954 में हुआ था. इस सोसाइटी के 211 सदस्य थे, लेकिन साल 2015 में भारत सरकार ने इसे बंद कर दिया."
"केंद्र सरकार ने बिहार की सभी 37 इकाईयों के लिए प्रति वर्ष 12,352 डबल और सिंगल बैरल बंदूक बनाने का कोटा 1958 में निर्धारित किया था. यही कोटा आज भी निर्धारित है."
"लेकिन, माँग में कमी के कारण प्रति वर्ष 2,000 बंदूकें भी नहीं बन पा रही हैं."
"एक बंदूक बनाने के लिए नौ अलग-अलग कुशल मजदूरों की ज़रूरत पड़ती है. अगर यही हाल रहा तो जल्द ही यहाँ की बची इकाईयां भी बंद हो जाएंगी."
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बंदूक कारीगरों की हालत पतली
कभी यहाँ के बंदूक कारखानों में 1,500 कुशल मजदूर कार्यरत थे, जिनकी संख्या आज घटकर 100 हो गई है.
कारखानों में काम करने वाले मजदूरों की स्थिति बिगड़ रही है.
बंदूक़ निर्माता कामगार संघ के प्रतिनिधि नागेंद्र शर्मा के पिता लगभग 30 साल तक यहाँ मजदूरी कर सेवानिवृत हो चुके हैं. उन्हें एक हज़ार रुपये प्रति माह पेंशन मिलती है.
वहीं क़रीब 40 साल के नागेंद्र पीस-रेटेड अग्रीमेंट यानी बनाई जाने वाली हर बंदूक पर दी जाने वाली तयशुदा रक़म की शर्त पर पिछले 25 साल से बंदूक फ़ैक्ट्री में काम कर रहे हैं.
यहीं की कमाई से नागेंद्र 6 जनों का परिवार चला रहे हैं.
वो बताते हैं कि "पहले हर महीने मेरी कमाई 10 से 12 हज़ार रुपये हो जाती थी, लेकिन अब ये घटकर दो-तीन हज़ार प्रति माह हो गई है."
"बंदूकों की माँग में कमी आने की वजह से कई मजदूर यहाँ की मजदूरी छोड़ या तो रिक्शा-ठेला चला रहे हैं या फिर दिहाड़ी कर रहे हैं."
"कुछ लोग बड़े शहरों में सिक्योरिटी गार्ड की भी नौकरी कर रहे हैं."
साल 2008 में यहाँ के मजदूरों ने सरकार से वेतनवृद्धि, बोनस, यूनिफ़ार्म, मजदूर कल्याण कोष के गठन, आश्रितों के लिए नुकसान भरपाई हेतु फंड आदि गठित करने की माँग की थी.
लेकिन, मजदूरों की कोई माँग आज तक पूरी नहीं हो पाई है.
कई गाँव में लगी अवैध इकाई
वैध बंदूक की मांग में भारी कमी ने इलाके में अवैध हथियारों की माँग को बढ़ा दिया है.
बीते कुछ सालों में मुंगेर अवैध हथियार बनाने का गढ़ बन गया है.
जानकार बताते हैं कि चुरंबा, बरदह, नया गाँव, तौफिर दियारा, मस्कतपुर, शादीपुर आदि गांवों में अवैध हथियार के कारखाने कुटीर उद्योग का स्वरूप ले चुके हैं.
यहाँ बनने वाले देसी पिस्टल, रिवॉल्वर, राइफ़लों की कमाई से कई घरों के चूल्हे जल रहे हैं.
पुलिस के सर्च ऑपरेशन
पिछले दो सालों में क़रीब 500 अवैध देसी-विदेशी कट्टे, राइफ़लें, पिस्टल आदि मुंगेर ज़िला पुलिस ने बरामद किए हैं.
साथ ही विभिन्न जगहों पर सर्च ऑपरेशन के बाद 50 से अधिक अवैध हथियार कारखानों पर कारवाई की गई जिससे भारी मात्रा में पूर्ण और अर्ध-निर्मित हथियार ज़ब्त किए गए.
वहीं 7 अक्तूबर, 2018 को पश्चिम बंगाल पुलिस ने मालदा शहर में चल रहे एक ग्रिल फ़ैक्ट्री की आड़ में अवैध हथियारों की इकाई पर कारवाई कर 24 रिवॉल्वर, 200 अर्ध-निर्मित हथियार समेत मुंगेर के रहने वाले दो लोगों को गिरफ़्तार किया.
जून, 2018 में मालदा में पुलिस की एक अन्य कार्रवाई में अवैध हथियारों के साथ 9 लोग पकड़े गए. इन सभी को मुंगेर से हथियार बनाने के लिए अनुबंध पर मालदा लाया गया था.
पूर्व डीजीपी डॉक्टर गौतम इसे कौशल कुप्रबंधन का नतीजा मानते हैं.
उनके अनुसार, "जब कौशल उपलब्ध है तो उसका इस्तेमाल ज़रूर होगा. अवैध हथियारों के धंधे से मोटी कमाई होती है. यह इलाक़ा कुशल बंदूक श्रमिकों से भरा पड़ा है. सरकार को इनके कौशल को ध्यान में रखते हुए इन्हें पुनर्नियोजित करने की व्यवस्था करनी चाहिए."