बिहार बाढ़: इंसान और साँप दोनों साथ-साथ सड़क पर जी रहे
बाढ़ आती है और कई ज़िंदगियां बहा ले जाती है. बिहार के लोगों के लिए बारिश वरदान हुआ करती थी लेकिन सिस्टम ने बारिश को बाढ़ में तब्दील कर दिया और लोग डूबने पर मजबूर हैं.
"हम लोगों सा मजबूर तो यहां कोई भी नहीं. सच कहती हूँ, कोई लालसा या खुशी से तो सड़क पर रहने नहीं आता!"
ऐसा कहते कहते पचास वर्षीय नगीना देवी की आंखों से बहते आंसू जैसे आसमान से गिरते पानी के साथ लय बिठा लेते हैं.
उत्तर बिहार के पश्चिमी चंपारण ज़िले के मंझौलिया ब्लॉक के बाढ़ प्रभावित मटियार गाँव में आज शाम की दस्तक उनकी उस सिसकी के साथ होती है, जो गहरी पीड़ा के कारण जैसे आधी उनकी कंठ के भीतर ही अटक गई थी.
नगीना देवी मटियार की जिस सड़क पर रह रही हैं, वहां अभी-अभी एक साँप को मारा गया है. बूढ़ी गंडक के पानी को गाँव में घुसे पंद्रह दिन से ऊपर हो गए.
'बूढ़ी गंडक', जिसे स्थानीय लोग सिकरहना नदी के नाम से भी पुकारते हैं. हर बार बाढ़ के पानी के साथ साँपों की एक लहर भी यहां के घरों में ले आती है.
तरह तरह के आकार-प्रकार और ज़हर वाले यह साँप फिर लोगों के पानी भरे घरों में रहने के साथ-साथ पास की सड़क पर मौजूद उनके राहत टेंटों में भी घुस आते हैं.
मटियार के इस अस्थायी राहत शिविर में रहने वाले 24 दलित और 17 मुस्लिम परिवार भी आज शाम यहां मारे गए साँप को लेकर कौतुक तो दिखाते हैं, लेकिन हैरान बिल्कुल नहीं हैं.
साँपों का निकलना और साँपों को मारना उनके लिए कोई नई बात नहीं. पूरे इलाक़े में साँप भरे पड़े हैं - जो बाढ़ का पानी मिट्टी में बने अपने बिलों में घुसने की वजह से बिलबिला कर बाहर आने को मजबूर हो गए हैं.
साँपों की वजह से मटियार के लोग रात में सो नहीं पाते हैं. लेकिन घर पानी में डूब जाने और यूं इस तरह अनिश्चित काल के लिए सड़क पर खिंच आने के बाद के इन कष्टप्रद क्षणों में भी नगीना देवी साँपों के बारे में जिस करुणा से बात करती हैं, उसने एक पल को मुझे चौंका दिया.
दो ईंट के अस्थायी चूल्हे पर 6 लोगों के अपने परिवार के लिए आलू-टमाटर की सब्ज़ी बनाते हुए वह कहती हैं, "हमें सारी रात कुर्सियों पर ऊँघते हुए बितानी पड़ती हैं. क्योंकि साँपों का कुछ पता नहीं चलता न. अगर पन्नी (टेंट) में सोने जाएँ तो वह वहीं घुस आते हैं. कभी सिरहाने आ जाते हैं तो कभी पैरों के ऊपर रेंगने लागते हैं. ऐसे में बच्चों की जान के लिए डर लगता रहता है और हम रात भर साँपों पर पहरा ही देते रह जाते हैं. एक पल को भी आंख नहीं मूँद पाते. लेकिन साँप भी बेचारे कहाँ जाएँगे? इस बाढ़ में जितने बेपानाह हम हैं, उतने ही बेपनाह साँप भी".
दरिया से लाकर पोखरा में फेंक दिया
मंझौलिया ब्लॉक के रामपुर महानवा ग्राम पंचायत में आने वाले मटियार गांव की यह कहानी जुड़ती है तक़रीबन 3000 वोटरों और 4500 की जनसंख्या वाले इसी ग्राम पंचायत के बढ़ीयार टोला गांव से. और मटियार से लगभग पाँच किलोमीटर दूर बसे बढ़ीयार टोला को आपस में जोड़ता है सिकरहना नदी में आने वाली बाढ़ का धागा.
मटियार निवासी अमानुल्लाह मियाँ बताते हैं, "मटियार में रहने वाले सभी 41 परिवार पहले बढ़ीयार टोला में ही रहते थे. लेकिन 2003 की बाढ़ में हमारा घर बार सब बाढ़ में पूरी तरह ढह गया. फिर तो शरणार्थियों की तरह रहते-रहते कई साल निकल गए. लेकिन एक दिन मैंने बेतिहा रेलवे स्टेशन पर किसी को अख़बार में पढ़ते हुए सुना की बाढ़ विस्थापितों को घर बनाकर रहने के लिए पाँच डेसिमल ज़मीन दिए जाने का प्रावधान है. सुनकर मेरे कान खड़े हो गए".
रेलवे स्टेशन पर यूं अचानक बाढ़ विस्थापितों के लिए ज़मीन का प्रावधान 'सुनकर' अमानुल्लाह को लगा तो था कि उनके दिन बिसर जाएँगे लेकिन सिकरहना की बाढ़ सी उनकी नियति इतनी जल्दी उनका पीछा छोड़ने नहीं वाली थी.
वह कहते हैं, "जानकारी होते ही हमने ख़ूब भागदौड़ की. काग़ज़ पत्तर, लिखा पढ़ी सब हुआ. फिर 2010 में एक अच्छे कलेक्टर आए जिन्होंने हमें ज़मीन दिए जाने का आदेश पारित किया. 2014 से हम 41 परिवार के तक़रीबन 250 लोग यहाँ मटियार में रहने लगे. लेकिन बाढ़ ने यहां भी पीछा न छोड़ा. बाढ़ का पानी भर जाने पर साल में पाँच महीने सड़क पर रहते हैं, बाक़ी महीने घरों में. हर साल पानी लगने से घर भी कमज़ोर हो गए हैं. पता नहीं कब तक टिकेंगे. इतने साल की दौड़ धूप के बाद यह ज़मीन मिली थी तो सोचा था ठीक से गुज़र होगी. लेकिन अब तो लगता है- दरिया से उठाकर पोखर में फेंक दिया गया है".
रात भर बत्ती जलाकर तटबंद बांधते रहे
बातचीत के बाद अमानुल्लाह हमें अपने मूल गाँव दिखाने बढ़ीयार टोला ले आए. तलरीबन 4500 की आबादी वाला यह गांव हफ़्ते भर पहले तक चार फुट पानी में डूबा हुआ था. बीते कुछ दिनों में पानी थोड़ा उतरा तो गाँव वालों ने पंपिंग सेट से पानी खींच खींच कर आने जाने का रास्ता वापस चालू करने की कोशिश की.
तेज़ क़दमों से चल कर अपने घरों पर पानी की डूब के निशान दिखाते गाँव वालों की वेदना मेरे दिल पर भी क्षोभ की लकीरें खींच रही थी.
नेपाल में लकड़ी का काम करने वाले स्थानीय ग्रामीण फकरूद्दीन बताते हैं, "इस गाँव के ज़्यादातर लोग नेपाल में लकड़ी या जुड़ाई-पलास्तर का काम करते हैं. अभी कोरोना की वजह से सब गाँव में बंद हैं. न काम है, न रोज़गार है और न पैसा. बाक़ी बाढ़ तो सालों से है ही जीवन में. सरकार की तरफ से अभी तक कोई लाभ नहीं मिला है और हम लोगों की हालत बहुत ख़राब है".
नमीर असुल फकरूद्दीन की हां में हां मिलाते हुए जोड़ते हैं, "28 जुलाई को जब हमारे गाँव में पानी घुसा तो गांव के मुहाने पर बसा यह तटबंध टूट गया था. इसके बाद गांव के बीचों बीच पानी भर गया और दोनों तरफ़ रहने वाले लोगों का एक दूसरे से सम्पर्क टूट गया. फिर कोई रास्ता न देख रात-रात भर ख़ुद खड़े होकर हम लोगों ने इस तटबंध को बनाया. ख़ुद मिट्टी गारा ढो-ढो के लाए और बत्ती बार के (जला के) इसके टूटे हिस्से को किसी तरह खड़ा करने की कोशिश की. तब जाकर थोड़ा पानी रुका लेकिन अगर ज़रा भी और बारिश हुई तो यह फिर टूट सकता है".
दो किलो चूड़ा और एक तिरपाल
दो किलो चूड़ा, आधा किलो चना और एक तिरपाल के सिवा मटियार के लोगों को कोई राहत सामग्री नहीं मिली है. बढ़ीयार टोला के लोगों को तो यह तिरपाल और आनाज भी भी नसीब नहीं हुआ.
बिहार सरकार की ओर से बाढ़ प्रभावित लोगों को दिए जा रहे 6 हज़ार रुपए की मदद भी यहां अभी तक किसी को नहीं मिली है.
लेकिन पश्चिमी चंपारण के कलेक्टर कुंदन कुमार बीबीसी से बातचीत में कहते हैं कि प्रशासन उस दिन से बाढ़ से निपटने की सतत तैयारी कर रहा है जिस दिन से गंडक और सिकरहना में बाढ़ की पहली आशंका जताई गई थी.
"सम्पूर्ण और आंशिक क्षति को मिलाकर देखें तो पश्चिमी चंपारण में तक़रीबन 1.43 लाख लोग बाढ़ से प्रभावित हैं. हम बाढ़ की स्थिति की लगातार निगरानी कर रहे हैं. इंजीनियर, होम गार्ड और स्थानीय प्रशासन की टीमों ने पीपी तटबंध पर 187 और चंपारण तटबंध को 55 जगहों पर सुधारा. तटबंधों में यह ऐसी गैप थे जो भरे न जाने पर विकराल रूप ले सकते थे. यह हमारी बड़ी सफलता है. सिकारना से प्रभावित पंचायतों के लिए समुदयिक रसोई, कोविड टेस्ट सेंटर और अन्य स्वास्थ्य से जुड़ी सुविधाओं की व्यवस्था की गई थी."
लेकिन मटियार गांव में रहने वाली रमावति देवी की आपबीती प्रशासन के सारे दावों पर प्रश्नचिन्ह लगाती है. आठ महीने की गर्भवती रामवती तिरपाल के अपने अस्थायी 'घर' में रोटी सेंकती हुई बताती हैं कि उन्हें देखने या उनकी जांच पड़ताल करने आज तक कोई भी आशा कार्यकर्ता नहीं आई है. वो कहती हैं, "तबीयत ठीक नहीं रहती, जी अच्छा नहीं रहता. लेकिन किससे कहूँ? आशा तो कभी आई नहीं और अब तो यहां वैसे भी बाढ़ है."
प्रसव से सिर्फ़ एक माह दूर रमावती आज तक एक भी बार जांच के लिए अस्पताल नहीं गई हैं और न ही मटियार में इस साल किसी ने स्वास्थ्य कार्यकर्ता को देखा है. प्रशासन की याद के नाम पर मटियार निवासी सुधी राम को सिर्फ़ चूड़ा और तिरपाल बांटने आए प्रशासनिक अधिकारी से पानी की माँग करना याद आता है.
"मैंने उनसे कहा कि हमारे पास पीने का पानी नहीं है. अगर ज़्यादा कुछ न हो तो यहां थोड़ी उंचाई पर के चापाकल (हैंडपम्प) लगवा दें ताकि हमारी गुज़र हो सके. लेकिन उन्होंने नहीं लगवाया. दो हफ़्तों से हम लोग पानी पका पका के उसको ठंडा करके पीने को मजबूर हैं. तबीयत भी ठीक नहीं रहती".
साँपों को मारना भी साँपों का होना ही है
बिहार में बाढ़ और कोरोना की स्थिति की पड़ताल करती बीबीसी की इस विशेष कवरेज यात्रा की शुरुआत यूं तो दिल्ली से हुई थी. लेकिन पहला पड़ाव तब आया जब आज सुबह उत्तर प्रदेश के कुशीनगर ज़िले में दहाड़ती नारायणी नदी को पीछे छोड़ हम पश्चिमी चंपारण के ज़िला मुख्यालय बेतिया आए. फिर बेतिया से मटियार.
रास्ते भर पानी में डूबे धान के बड़े-बड़े बर्बाद खेत और सूखे हुए गन्नों की ठूठें नज़र आती रहीं. साँझ ढले मटियार से लौटते वक़्त मैंने देखा कि गाँव के युवा एक दूसरे को फ़ोन पर मारे गए साँपों की तस्वीरें दिखा रहे हैं.
लौटते वक़्त मुझे हिंदी के मूर्धन्य साहित्यकार फणीश्वर नाथ रेणु के बाढ़ पर लिखे संस्मरणों में सतत आता साँपों का ज़िक्र याद आया. और साथ ही याद आई साँपों के बहुत सपने देखने और उनको लिखने वाली अमरीकी लेखक जॉन डीडियन की- जो कहती हैं कि साँपों को मारना भी दरअसल, उनका हमारे बीच होना ही है. बेतिया वापसी के दौरान सड़क के दोनों ओर नष्ट खड़े खेतों की लम्बी क़तारें देखते हुए मुझे लगा कि वाक़ई मरने के बाद भी सिकरहना के साँप हमारे बीच मौजूद हैं.