बिहार चुनाव: लोजपा के रुख़ से बीजेपी और जेडीयू में बेचैनी
बिहार विधानसभा चुनाव में नामांकन से ठीक पहले एलजेपी का रुख़ बीजेपी और जेडीयू को बेचैन कर रहा है.
लोक जनशक्ति पार्टी ने बिहार में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की मुश्किलें बढ़ा दी हैं, क्योंकि वो इस गठबंधन में रहना चाहती है लेकिन जनता दल (यूनाइटेड) के साथ रहना नहीं चाहती.
मंगलवार को लोजपा के अध्यक्ष चिराग पासवान से भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की बातचीत हुई, जिसमें बीच का रास्ता निकालने की कोशिश भी की गई. लेकिन नामांकन भरने में सिर्फ़ एक दिन बचा है, ऐसे में लोजपा का रुख़ भारतीय जनता पार्टी और जनता दल (यूनाइटेड) को बेचैन कर रहा है.
पहले चरण की 71 सीटों के लिए नामांकन 1 अक्तूबर से शुरू होगा और भारतीय जनता पार्टी ने लोजपा को 27 सीटों पर उम्मीदवार खड़ा करने का प्रस्ताव दिया है.
एलजेपी के प्रवक्ता अशरफ़ अंसारी ने बीबीसी से कहा कि पार्टी के सारे नेताओं और कार्यकर्ताओं ने अपने विचार राष्ट्रीय अध्यक्ष के सामने पहले ही ज़ाहिर कर दिए हैं.
वे कहते हैं कि उनकी पार्टी 143 सीटों पर लड़ने की तैयारी कर चुकी है. लेकिन साथ ही ये भी कहते हैं कि आख़िरी फ़ैसला अध्यक्ष को ही लेना है.
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बिहार की चुनावी बिसात में चार ध्रुव
इस बीच बिहार की चुनावी बिसात में चार ध्रुव बन चुके हैं, क्योंकि राष्ट्रीय लोक समता पार्टी ने भी एक नए राजनीतिक गठबंधन की घोषणा कर दी है, जिसमें बहुजन समाज पार्टी के अलावा जनवादी सोशलिस्ट पार्टी और भारतीय समाज पार्टी शामिल हैं.
इस गठबंधन ने राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के अध्यक्ष उपेन्द्र कुशवाहा के नेतृत्व में चुनाव लड़ने की औपचारिक घोषणा कर दी है. कुशवाहा हाल ही में कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल और वाम दलों के महागठबंधन से अलग हुए हैं. कयास थे कि वो एनडीए में शामिल होंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के प्रवक्ता धीरज कुशवाहा का कहना है कि नया गठबंधन अपने दम पर सभी सीटों पर चुनाव लड़ सकता है और कई सीटें जीत सकता है. उनका कहना है कि नए गठबंधन ने दूसरे 'सामान विचारों' वाले दलों के लिए दरवाज़े खुले रखे हैं.
बिहार के एक अन्य नेता और जन अधिकार पार्टी (लोकतांत्रिक) के अध्यक्ष राजेश रंजन उर्फ़ पप्पू यादव ने भी नया गठबंधन बनाया है. इस गठबंधन का नाम प्रगतिशील लोकतांत्रिक गठबंधन रखा गया है, जिसमे चंद्रशेखर आज़ाद की आज़ाद समाज पार्टी, सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी और बहुजन मुक्ति पार्टी शामिल हैं.
वहीं बिहार में कई दिनों से कैम्प कर रहे आल इंडिया मजलिस इत्तेहादुल मुस्लीमीन के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने भी समाजवादी जनता दल (डेमोक्रेटिक) के साथ गठबंधन की घोषणा की है. उनका कहना था कि इस बाद विधानसभा के चुनाव उनकी पार्टी समाजवादी जनता दल (डेमोक्रेटिक) के देवेंद्र प्रसाद यादव के नेतृत्व में लड़ेगी.
पिछले विधानसभा के चुनावों में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी 6 सीटों पर लड़ी थी, लेकिन उसने खाता नहीं खोला था. लेकिन उप चुनाव में किशनगंज सीट पर पार्टी को जीत हासिल हुई थी.
पिछले विधानसभा चुनावों में दो ध्रुव थे. एक एनडीए और दूसरा महागठबंधन था. वर्ष 2015 में हुए विधानसभा के चुनावों में जनता दल (यूनाइटेड) महागठबंधन का हिस्सा था और उसने कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल और वाम दलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था.
लोक जनशक्ति पार्टी एनडीए में भारतीय जनता पार्टी के साथ थी. महागठबंधन को कुल 41.9 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि एनडीए को 29.2 प्रतिशत वोट मिल पाए थे.
इस बार जनता दल (यूनाइटेड) भारतीय जनता पार्टी के साथ है. इसलिए जानकारों को लगता है कि एनडीए पहले से ज़्यादा वोट ला सकती है.
क्या कहते हैं बिहार की राजनीति के जानकार
वरिष्ठ पत्रकार अलोक मेहता पटना से प्रकाशित नवभारत टाइम्स के संपादक रह चुके हैं. बीबीसी से बातचीत में वो कहते हैं कि बिहार के राजनीति में जातिगत वोट मायने ज़रूर रखते हैं लेकिन पिछले कुछ वर्षों में 'वोटिंग पैटर्न' में काफ़ी बदलाव देखने को मिला है.
इसलिए ये कहना ग़लत होगा कि विशेष जाति बहुल इलाक़ों में सिर्फ़ यही वोट डालने का एकमात्र आधार रहेगा.
उनका कहना था कि लोक जनशक्ति पार्टी बहुत सारी सीटों को प्रभावित नहीं कर सकती है, इसलिए एनडीए के लिए ये ज़्यादा परेशानी की बात नहीं होनी चाहिए. उनको लगता है कि इस बार एनडीए के लिए खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के कार्यकाल के मुख्य मुद्दे रहेंगे.
लेकिन बिहार में लंबे अरसे तक काम कर चुके वरिष्ठ पत्रकार दिवाकर कहते हैं कि चुनावों में देखा गया है कि जहाँ आमने-सामने का मुक़ाबला होता है, वहाँ एनडीए या भारतीय जनता पार्टी को मुश्किल का सामना पड़ता है. लेकिन जब वोटों में बिखराव की स्थिति आती है तो उसे इसका सीधा फ़ायदा होता है.
उन्होंने वर्ष 2015 के विधानसभा के चुनावों का उदाहरण देते हुए कहा, "पिछले विधानसभा के चुनाव में मुक़ाबला एनडीए और महागठबंधन में था और एनडीए को चुनावी नुक़सान हुआ. इस बार विपक्ष बिखरा हुआ है और अलग-अलग गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ने जा रहा है. तो ज़ाहिर सी बात है कि अगर नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ 'एंटी इनकमबेंसी' भी हो तो उसके ख़िलाफ़ मतदाता बँट जाएँगे."
बिहार में अगड़ी जाति 17 प्रतिशत के आसपास है, जबकि पिछड़े और अत्यंत पिछड़े वर्ग का हिस्सा 51 प्रतिशत के आसपास है. उसी तरह महादलित की आबादी 11 प्रतिशत है.
अलोक मेहता कहते हैं कि बिहार में जाति हमेशा से ही चुनावों में समीकरण बनाती और बिगाड़ती रहती है, लेकिन पिछले एक दशक में जिस तरह लोगों ने वोट डाले हैं, उससे संकेत मिलते हैं कि विकास और दूसरे मुद्दे भी अब अहमियत रखने लगे हैं.