Bihar elections 2020: क्यों चिराग के लिए मुश्किल है नीतीश के 'अभेद्य किले' को तोड़ना
नई दिल्ली- बिहार की राजनीति में चाहे जितने भी फैक्टर जोड़ दिए जाएं, लेकिन चुनाव परिणाम ज्यादातर जातीय गुना-गणित से ही तय होते आए हैं। खासकर विधानसभा चुनावों में राज्य में जाति एक बहुत ही ज्यादा प्रभावी मुद्दा रहता आया है। नीतीश ने बीते 15 वर्षों में क्या किया है और क्या नहीं किया है यह सियासी बहस का मुद्दा हो सकता है। लेकिन, इतना तय है कि उन्होंने लालू यादव के 'माय' समीकरण (मुस्लिम-यादव) की काट निकालने के लिए सोशल इंजीनियरिंग पर बहुत ज्यादा काम किया है। इसलिए, एनडीए से अलग होकर चिराग पासवान चाहे नीतीश को एक भी वोट नहीं देने की जितनी भी अपील करें, लेकिन उनकी जातीय 'किलेबंदी' को तोड़ने के लिए उन्हें अपने राजनीतिक धरातल की समझ रखना जरूरी है।
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जातीय
गुना-गणित
के
मास्टर
बन
चुके
हैं
नीतीश
बिहार
में
जब
यह
तय
हो
गया
कि
लोजपा
अलग
चुनाव
लड़ेगी
और
उसने
जदयू
को
हर
सीट
पर
हराने
के
लिए
ताल
ठोक
दी,
तभी
बिहार
की
राजनीति
के
माहिर
नीतीश
कुमार
ने
अपनी
पार्टी
और
गठबंधन
की
जातीय
किलेबंदी
को
और
मजबूत
कर
लिया।
उन्होंने
राजद
का
साथ
छोड़कर
आए
जीतन
राम
मांझी
को
7
सीटों
का
ऑफर
दिया।
उधर
भाजपा
भी
'सन
ऑफ
मल्लाह'
मुकेश
सहनी
को
अपने
कोटे
की
11
सीटें
देकर
उन्हें
'वीआईपी'
बना
दिया।
यहां
गौर
करने
वाली
बात
ये
है
कि
रालोसपा
के
उपेंद्र
कुशवाहा
ने
भी
राजद
से
ठुकराए
जाने
के
बाद
एनडीए
में
शामिल
होने
के
लिए
कम
जुगाड़
नहीं
लगाए,
लेकिन
नीतीश
को
लगा
कि
उनके
आने
से
फायदे
से
ज्यादा
नुकसान
ही
हो
सकता
है।
असल
में
यह
सारा
हिसाब-किताब
बिहार
की
जातीय
गोलबंदी
पर
आधारित
है,
जिसके
नीतीश
कुमार
अब
मास्टर
बन
चुके
हैं।
नीतीश
कुमार
का
आधार
वोट
बैंक
हैं
'लव-कुश'
जेडीयू
पूरी
तरह
से
नीतीश
कुमार
की
सियासी
हैसियत
पर
टिकी
रहने
वाली
पार्टी
है।
नीतीश
के
बिना
पार्टी
का
वजूद
ना
के
बराबर
है।
नीतीश
जब
से
बिहार
की
राजनीति
में
प्रभावी
हुए
हैं
'लव-कुश'
बिरादरी
पर
उनका
जादू
सिर
चढ़कर
बोला
है।
लव
यानि
कुर्मी
और
कुश
यानि
कुशवाहा
या
कोयरी।
ये
दोनों
ओबीसी
में
शामिल
हैं।
बिहार
में
कुर्मी
(करीब
4
फीसदी)
और
कोयरी
(करीब
6
फीसदी)
की
जनसंख्या
करीब
10
फीसदी
अनुमानित
है।
खुद
नीतीश
कुमार
अवधिया
कुर्मी
(कुर्मी
की
उपजाति)
हैं।
नीतीश
का
जितना
कुर्मियों
पर
प्रभाव
है,
उससे
जरा
भी
कम
कोयरी
पर
नहीं
है।
उन्हें
अपने
इस
10
फीसदी
आधार
वोटर
पर
इतना
यकीन
है
कि
उपेंद्र
कुशवाहा
को
भाव
देने
की
जरूरत
नहीं
समझी।
चिराग
के
लिए
मुश्किल
है
नीतीश
के
'अभेद्य
किले'
को
तोड़ना
इसके
बाद
नीतीश
कुमार
के
साथ
उनकी
राजनीतिक
कलाकारी
की
उपज
अत्यंत
पिछड़ी
जातियां
(EBC)
और
महादलितों
का
भी
एक
विशाल
वोट
बैंक
है।
ईबीसी
करीब
100
छोटी-छोटी
जातियों
का
समूह
है,
जिनकी
अनुमानित
आबादी
करीब
22%
है।
इनके
अलावा
महादलितों
की
आबादी
करीब
16%
है।
इन
दोनों
समुदायों
पर
बिहार
में
इस
वक्त
नीतीश
कुमार
से
ज्यादा
प्रभाव
किसी
एक
राजनेता
का
नहीं
है।
इनमें
से
करीब
2.5%
मुशहर
(दलित)
आबादी
के
प्रतिनिधि
होने
का
दावा
करने
वाले
मांझी
को
भी
उन्होंने
अपने
साथ
कर
लिया
है।
जबकि,
निषादों
या
मलाहों
(मल्लाह)
के
प्रतिनिधि
माने
जाने
वाले
मुकेश
सहनी
भी
एनडीए
के
साथ
हो
गए
हैं।
यह
जाति
भी
ईबीसी
में
शामिल
है
और
कुल
22
फीसदी
में
से
विभिन्न
पार्टियां
इनकी
सभी
उपजातियों
को
मिलाकर
इनकी
अनुमानित
जनसंख्या
करीब
6-7
फीसदी
तक
बताती
हैं।
इस
तरह
से
करीब
48%
वोट
बैंक
के
एक
बड़े
हिस्से
पर
नीतीश
का
प्रभाव
माना
जा
सकता
है।
पासवान
के
पास
अपना
आधार
वोट-बैंक
क्या
है
?
जबकि,
चिराग
पासवान
की
लोक
जनशक्ति
पार्टी
के
पास
जिस
जाति
का
आधार
वोट
है,
वह
हैं
पासवान।
उनकी
जनसंख्या
करीब
5.5
फीसदी
है।
इसके
अलावा
मौजूदा
समय
में
लोजपा
कुछ
सवर्ण
वोट
बैंक
पर
भी
भरोसा
कर
रही
है।
हो
सकता
है
कि
कई
चुनाव
क्षेत्रों
में
जदयू
के
उम्मीदवारों
के
बजाय
सवर्ण
वोट
एलजेपी
को
भी
मिले,
लेकिन
यह
कहना
कि
इससे
चिराग
पासवान
नीतीश
के
तीर
में
चिंगारी
लगा
सकेंगे,
बहुत
ही
मुश्किल
लगता
है।
यही
नहीं
वह
भाजपा-लोजपा
सरकार
बनाने
की
बात
करते
हैं।
ऐसे
में
एक
दशक
पहले
बिहार
के
लिए
मुस्लिम
मुख्यमंत्री
की
मांग
उठाकर
राम
विलास
पासवान
ने
अल्पसंख्यकों
के
बीच
अपनी
जो
एक
खास
पैठ
बनाने
की
कोशिश
की
थी,
उसका
भी
चिराग
को
फायदा
मिलना
कठिन
है।
बात
यहीं
खत्म
नहीं
होती।
चिराग
के
मुकाबले
एडवांटेज
नीतीश!
अमित
शाह
और
जेपी
नड्डा
जैसे
भाजपा
के
बड़े
नेता
तक
नीतीश
कुमार
को
ही
मुख्यमंत्री
बनाने
का
अपील
कर
चुके
हैं।
खुद
प्रधानमंत्री
नरेंद्र
मोदी
ने
तो
उन्हें
बिहार
में
गठबंधन
का
नेता
घोषित
कर
ही
रखा
है।
ऐसे
में
भाजपा
के
भी
कुछ
कोर
वोटर
पर
नजर
मार
लेना
जरूरी
है।
बिहार
में
सवर्णों
की
आबादी
करीब
15%
अनुमानित
है।
इनके
अलावा
करीब
7
फीसदी
वैश्य
(कई
सारी
उपजातियां
ईबीसी
में
भी
हैं)
भी
हैं।
परंपरागत
रूप
से
ये
भारतीय
जनता
पार्टी
के
वोटर
माने
जाते
रहे
हैं।
यही
नहीं
कई
सारी
ईबीसी
जातियां
ऐसी
हैं,
जिनपर
कई
इलाकों
में
बीजेपी
का
हमेशा
से
प्रभाव
रहा
है।
इनमें
मल्लाह
भी
शामिल
हैं।
यानि
ये
सारे
मिलकर
नीतीश
कुमार
के
किले
की
ऐसी
किलेबंदी
कर
सकते
हैं,
जिनको
भेद
पाना
चिराग
पासवान
के
लिए
उतना
आसान
नहीं
लगता,
जितना
कि
चर्चा
हो
रही
है।
इसके अलावा जदयू को अपनी सीटों पर परिस्थितियों के हिसाब से मुसलमान वोटरों (17%) का भी समर्थन मिल सकता है। इस समुदाय के अति-पिछड़े तबकों (पसमांदा मुसलमान) के बीच भी नीतीश कुमार की अपनी मौजूदगी रही है। कुल मिलाकर जातीय गोलबंदी में नीतीश कुमार की तैयारी पूरी है। ऐसे में उनके गढ़ को हिलाने में चिराग किस हद तक कामयाब होते हैं इसके लिए 10 नवंबर का इंतजार रहेगा।
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