बिहार चुनाव 2020: रामविलास पासवान के निधन से क्या LJP के चुनावी भविष्य पर असर पड़ेगा
नई दिल्ली- बिहार चुनाव के पहले चरण में दो हफ्ते से थोड़ा ही ज्यादा वक्त बचा है। ऐसे समय में केंद्रीय मंत्री और लोक जनशक्ति पार्टी के सर्वेसर्वा राम विलास पासवान की मौत की खबर चिराग पासवान के लिए निजी सदमा तो है ही, उनके सियासी भविष्य के लिए भी बहुत बड़ा झटका है। राम विलास पासवान करीब बीते एक साल से चिराग को भविष्य की राजनीति के लिए तैयार कर रहे थे। हाल में उन्होंने जिस तरह से एनडीए से अलग एलजेपी के अकेले चुनाव लड़ने का फैसला लिया है, वह बहुत ही साहसी सियासी कदम है। लेकिन, इसके पीछे भी उनके पिता की सहमति जरूर रही होगी। खुद चिराग के हाल के बयानों से जाहिर होता है कि उनकी पीठ पर हर वक्त पिता का हाथ रहता था। लेकिन, किसी को नहीं पता था कि उनके सामने अचानक इतना बड़ा शून्य आ जाएगा। अब सवाल है कि पिता की छत्रछाया के बगैर चिराग पासवान और उनकी लोजपा का सियासी भविष्य क्या होगा?
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चिराग पासवान पिछले साल से लोजपा की कमान संभाल रहे हैं, लेकिन बिहार की जनता में उनकी पहचान बॉलीवुड में काम कर चुके अभिनेता और उससे भी ज्यादा रामविलास पासवान के बेटे के रूप में ही रही है। 1989 के लोकसभा चुनाव के बाद बिहार की राजनीति में रामविलास पासवान से बड़ा कोई दलित नेता नहीं हुआ। चिराग की सियासी समझदारी की तो मौजूदा बिहार चुनाव में परीक्षा अब शुरू हुई है। उनके सिर पर अब पिता और मंजे हुए राजनेता का ना तो हाथ है और ना ही तीन दशक से ज्यादा समय से रैलियों में भीड़ खींचने वाला रामविलास पासवान जैसा कोई सियासी शख्सियत।
रामविलास पासवान वही शख्सियत थे, जिनके नाम आज भी हाजीपुर लोकसभा क्षेत्र से रिकॉर्ड मतों से जीतने का इतिहास कायम है। उतना बड़ा रिकॉर्ड सिर्फ दलित वोटों का नतीजा नहीं हो सकता। उनकी लोकप्रियता समाज के अधिकतर तबके में थी। उन्होंने साइकिल पर चलकर अपना जनाधार तैयार किया था। 2015 के विधानसभा चुनाव में जब चिराग पासवान कुछ रैलियों में प्रचार के लिए पहुंचे थे तो उनके पीछे बॉलीवुड का ताजा-ताजा बैकग्राउंड भी था। लेकिन, कुछ रैलियों में जहां वो अकेले चुनाव प्रचार के लिए पहुंचे वहां मुश्किल से 500 से 1000 या उससे भी कम लोग उनको सुनने पहुंचते थे। हालांकि, इस बात में भी दो राय नहीं है कि बीते पांच वर्षों में चिराग ने खुद को बहुत निखारने की कोशिश की है और उनकी बात आज पासवानों से आगे निकलकर ज्यादातर बिहारियों तक पहुंच रही है।
चिराग पासवान लोजपा को नई धार देने के लिए एक साल से काफी मेहनत कर रहे हैं। लेकिन, यह बात भी उतना ही सच है कि पार्टी अभी भी उनके पिता के नाम पर ही संगठित है। चिराग पासवान कोई फैसला लेते थे तो उसमें उनके पिता की सहमति मान ली जाती थी। लेकिन, अब उन्हें बदली हुई परिस्थितियों का सामना करना होगा। इस बात पर अभी प्रश्नचिन्ह है कि पार्टी के नेता-कार्यकर्ता आगे भी उसी तरह उन्हें हाथों-हाथ लेते रहेंगे, जैसे पहले लेते थे। इस आशंका के पीछे कई वजहे हैं। लोजपा मूलरूप से एक पारिवारिक पार्टी है। परिवार में भी रामविलास पासवान सबसे बड़े थे। सारे लोगों ने उन्हीं के संघर्ष की फसल अबतक काटी है। सवाल है कि क्या अब हाजीपुर के सांसद और उनके मंझले भाई पशुपति कुमार पारस उसी तरह चिराग का नेतृत्व स्वीकार करते रहेंगे, जैसा अबतक करते आए हैं। पिछले रविवार को जब लोजपा ने अलग चुनाव लड़ने का फैसला किया तो पार्टी की उस संसदीय बोर्ड की बैठक से भी वो गायब थे।
अलबत्ता पासवान के सबसे छोटे भाई और पूर्व सांसद रामचंद्र पासवान के बेटे और चिराग के चचेरे भाई प्रिंस राज अभी पूरी तरह से उनके साथ हैं। प्रिंस राज समस्तीपुर के सांसद हैं। लेकिन, चिराग के खिलाफ हाल के दिनों में पार्टी में कुछ बगावत के स्वर भी सुनाई पड़े हैं। इस बात में कोई राय नहीं कि रामविलास पासवान बिहार में सबसे बड़े दलित चेहरा थे। लेकिन, तथ्य यह भी है कि इसका फायदा उन्हें केंद्र की राजनीति में जितना मिला, उतना बिहार में नहीं उठा पाए। वह 6 प्रधानमंत्रियों की सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे, लेकिन प्रदेश की राजनीति में उनकी या उनके परिवार की मौजूदगी बहुत ही सीमित दिखाई पड़ी। 2005 में जब से बिहार में लालू-राबड़ी की राजनीतिक ताकत में गिरावट दिखाई देने लगी, तब उन्होंने मुस्लिम मुख्यमंत्री बनाए जाने की बात कहकर दलित-मुस्लिम समीकरण बनाने का दांव भी चला था। लेकिन, फिर भी 2005 के फरवरी में हुए विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी 243 में से सिर्फ 29 सीटें ही जीत पाई और 8 महीने तक वह सिर्फ कहते ही रह गए कि सत्ता की चाबी उनके पास है। अक्टूबर में जब दोबारा चुनाव हुआ तो लोजपा 10 सीटों पर पहुंच गई और यह सिलसिला लगातार जारी रहा है। 2010 में पार्टी 3 सीटों पर सिमट गई और 2015 में विधानसभा में उसके केवल 2 विधायक ही जीत सके।
2019 के नवंबर में उन्होंने बिहार में पार्टी की संभावनाओं के विस्तार के लिए ही बेटे चिराग को अध्यक्ष बनवाया। शायद पासवान की मंशा थी कि बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर वह नहीं बैठ सके तो हो सकता है कि चिराग उनका सपना पूरा कर दें। एनडीए से अलग चुनाव लड़ने की रणनीति के पीछे भी उन्हें सीएम मटेरियल की तरह पेश करने की मंशा दिखाई देती है। पार्टी अभी खुलकर भाजपा की अगुवाई वाली लोजपा समर्थित सरकार की बात कह रही है। लेकिन, असल में पार्टी 2025 तक चिराग के लिए अपनी जमीन तैयार करना चाहती है।
वैसे अब लोजपा के हाथ सहानुभूति बटोरने का मास्टरस्ट्रोक लग गया है। यह सच्चाई है कि रामविलास पासवान ने ऐसी राजनीतिक जमीन तैयार की थी, जिसमें उनका कोई सियासी दुश्मन नहीं तैयार हुआ। यही वजह है कि उन्होंने वीपी सिंह से लेकर नरेंद्र मोदी तक विपरीत विचारधाराओं के 6 प्रधानमंत्रियों के साथ काम किया। उनका निधन बिहार चुनाव के समय में हुआ है। भारत में सहानुभूति लहर का सबसे बेहतर उदाहरण 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी का रिकॉर्ड सीटें जीतकर प्रधानमंत्री बनना है। पासवान के निधन से दलित वोटों के झुकाव का फायदा तो लोजपा को मिल ही सकता है, सवर्णो का एक वर्ग तो पहले से ही उसके पक्ष में झुका हुआ नजर आ रहा है। यही नहीं जिस जदयू के खिलाफ पार्टी ने मोर्चा खोल रखा है, उसके नेताओं के लिए भी अब पार्टी पर उस तरह से निशाना साधना आसान नहीं रह गया है, जैसा कि पहले हो सकता था। उदाहरण के लिए गुरुवार को ही बीजेपी के बिहार प्रभारी भूपेंद्र यादव ने एलजेपी के केंद्र में एनडीए के साथ और बिहार में एनडीए से अलग रहने पर सवाल उठाया था। लेकिन, आगे से इस तरह के बयान के बैकफायर करने का डर है।
चिराग पासवान को भी मौजूदा हालात का अंदाजा है। यही वजह है कि जबसे उनके पिता बीमार हुए थे, वह उनसे जुड़ी भावुक अपील को लोगों तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे थे। बिहार के लोगों को लिखी एक खुली चिट्ठी में उन्होंने लिखा था, 'आपने हमेशा पिता का समर्थन किया है, और उन्होंने मुझसे हमेशा कहा है कि जरूरी वजह के लिए हमेशा संघर्ष करो। यह मेरी लड़ाई नहीं है, यह बिहार के लिए लड़ाई है, इसकी खोयी हुई गरिमा और पहचान के लिए। मुझे उम्मीद है कि आप उसी तरह मेरा साथ देंगे, जैसे कि मेरे पिता का दिया है। '
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