Bihar Elections 2020 : बिहार की राजनीति का त्रिकोण, जो भी दो भुजाएं आईं साथ उसी की बनी सरकार
पटना। पढ़ाई के दौरान गणित के मास्टर साहब ने बताया था कि त्रिभुज की किन्हीं भी दो भुजाओं का योग तीसरी भुजा से बड़ा होता है। खैर हम आपको गणित पढ़ने को नहीं कह रहे। बस बिहार की राजनीति बताना चाह रहे हैं। बिहार की राजनीति में भी ऐसा ही त्रिभुज है जिनमें तीन पार्टियां तीन भुजाओं की तरह हैं। बिहार विधानसभा चुनाव (Bihar Assembly Elections) में इनमें से जो भी दो पार्टियां साथ आईं सरकार उसी की बनती है।
बिहार की राजनीति का त्रिकोण
हम बात कर रहे हैं बिहार की राजनीति (Bihar Politics) की तीन धुरी आरजेडी (RJD), जेडीयू (JDU) और बीजेपी (BJP) की। बिहार की राजनीति में इन तीन पार्टियों का चुनावी गणित ऐसा है कि इनमें से अकेले तो कोई सरकार नहीं बना सकता लेकिन जैसे ही कोई भी दो मिल जाती हैं तुरंत उनकी सरकार बन जाती है। कम से कम 2005 से लेकर अब तक हुए तीन विधानसभा चुनावों के नतीजे तो यही कहते हैं।
याद कीजिए इसी महीने की शुरुआत में डिप्टी सीएम और बिहार सरकार में सहयोगी भाजपा नेता सुशील का वो बयान जिसमें उन्होंने गठबंधन को बिहार की मजबूरी नहीं बल्कि हकीकत कहा था। सुशील मोदी ने कहा था कि "बिहार में गठबंधन की राजनीति वास्तविकता है। भारतीय जनता पार्टी, जनता दल यूनाइटेड और राष्ट्रीय जनता दल इसके त्रिकोण हैं। इसमें किसी को भी इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि वो अकेले दम पर सरकार बना सकता है।'
पिछले तीन विधानसभा चुनाव देते हैं गवाही
समाचार एजेंसी पीटीआई को दिए अपने इंटरव्यू में सुशील मोदी यही नहीं रुके। उन्होंने कहा कि "भाजपा को अपनी ताकत को लेकर कोई गलतफहमी नहीं है। हम मजबूत हैं, हमारा संगठन भी है लेकिन मिलकर लड़ेंगे तभी सफलता मिलेगी।" मोदी ने कहा था कि 2015 के विधानसभा चुनाव में भाजपा अलग लड़कर देख चुकी है जबकि नीतीश के नेतृत्व में 2014 का लोकसभा चुनाव जेडीयू अकेले लड़ चुकी है। नतीजे सामने हैं।"
अगर आंकड़ों को देखें तो सुशील मोदी की बात सच भी है। खासतौर से 2005 के अक्टूबर में हुए चुनाव को लेकर पिछले तीन चुनाव देखें तो नतीजे बताते हैं कि जब-जब इन तीनों पार्टियों में दो साथ आईं उसने सरकार बनाई है। इसे समझने के लिए पिछले तीन विधानसभा चुनाव का अध्ययन करना होगा।
2005 के चुनाव ने बदली बिहार की राजनीति
बिहार में जब भी चुनाव की बात होगी 2005 का चुनाव जरूर याद किया जाएगा। इस चुनाव में जेडीयू-बीजेपी गठबंधन ने न सिर्फ लालू के 15 पुराने राज को उखाड़ फेंका था बल्कि साफ-सुथरे चुनाव के लिए भी इसकी चर्चा होती है। राज्य के विभाजन के बाद एक ही वर्ष में दो चुनाव हुए। पहला चुनाव फरवरी में हुआ लेकिन 243 सीट के लिए हुए इस चुनाव में किसी भी दल को सरकार बनाने के लिए पर्याप्त बहुमत नहीं मिला। कोई भी दल सरकार बनाने का विकल्प पेश नहीं कर सका ऐसे में दोबारा चुनाव में जाने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं था।
अक्टूबर में राज्य में दोबारा चुनाव हुए तो राज्य की राजनीतिक परिस्थिति पूरी तरह से बदल गई। आठ महीने पहले जो जनता असमंजस में थी इस बार उसने अपना मन बना लिया था। जेडीयू-भाजपा गठबंधन को बहुमत मिल गया था। गठबंधन को 143 सीटें मिलीं। फरवरी में हुए चुनाव में आरजेडी को 75 सीट मिली थी जो कि अक्टूबर में घटकर 54 रह गई। जेडीयू की सीटें बढ़कर 55 से 88 हो गईं जबकि बीजेपी जिसे 37 सीट मिली थी इस बार 55 पर पहुंच गई। वहीं कांग्रेस 10 से घटकर 9 पर पहुंच गई। सबसे ज्यादा नुकसान उस लोजपा का हुआ जो बिहार में सत्ता की चाभी अपने पास होने का दावा किया करती थी। पार्टी को पिछली बार के 29 के मुकाबले इस बार मात्र 10 सीटें मिली थीं।
2010 के चुनाव में चली एनडीए की लहर
2005 के बाद अगले चुनाव 2010 में हुए तो फिर से वही समीकरण था। जेडीयू-बीजेपी साथ थे तो आरजेडी अपने सहयोगियों के साथ मुकाबरे में दूसरी तरफ थी। एक बार फिर त्रिभुज साथ आईं तो बिहार की जनता ने फिर उन्हें प्यार दिया। इस बार जेडीयू-बीजेपी गठबंधन की लहर चली और दो तिहाई बहुमत से सरकार बनाने का जनादेश मिला। इस बार के चुनाव में गठबंधन को पिछली बार के मुकाबले 63 सीटें ज्यादा मिली थीं। 2005 में गठबंधन को 143 सीटें मिलीं थी लेकिन इस बार 206 सीटों पर इसका कब्जा था। यानि गठबंधन ने 85% सीट पर जीत दर्ज की थी। इन आंकड़ों को याद रखिए आगे की कहानी इससे समझ में आएगी।
हालांकि वोट प्रतिशत में गठबंधन को मात्र 3 फीसदी की बढ़त हासिल हुई थी लेकिन चुनावी गणित ने सीटों में भारी उलटफेर किया। 2005 में जेडीयू (20.46) और बीजेपी (15.64) को कुल मिलाकर 36 प्रतिशत वोट मिले थे जबकि 2010 में गठबंधन को 39 फीसदी वोट हासिल हुए। जेडीयू ने 115 सीटों पर जीत हासिल की जबकि बीजेपी को 91 सीटें मिली थीं। आरजेडी 22 पर सिमटकर रह गई और कांग्रेस को मात्र 4 सीट मिलीं। लोजपा को 3 सीट से ही संतोष करना पड़ा। वैसे तो इस चुनाव को जनता द्वारा नीतीश के सुशासन का रिटर्न गिफ्ट कहा गया लेकिन अगले चुनाव में जब गठबंधन की दो भुजाएं बदलीं तो नतीजों की तस्वीर भी बदल गई।
2015 के चुनाव में बदल गए थे समीकरण
बिहार में 2015 का विधानसभा चुनाव सबसे दिलचस्प रहा था। 2014 के लोकसभा चुनावों के लिए नरेंद्र मोदी को बीजेपी ने पीएम चेहरा बनाया तो नीतीश कुमार ने एनडीए का पुराना साथ छोड़ दिया। ये तब था जब राज्य में 2010 में तीन चौथाई सीट के साथ दोनों ने सरकार बनाई थी। 2014 का लोकसभा चुनाव नीतीश ने अलग लड़ा। नतीजा हुआ कि जेडीयू को भारी नुकसान हुआ। इसके बाद 2015 के चुनाव के पहले जो हुआ किसी ने सोचा भी नहीं था। कभी जिन लालू के जंगलराज का विरोध कर नीतीश कुमार सत्ता में पहुंचे थे उन्हीं के साथ नीतीश ने हाथ मिलाया तो कई लोगों को लगा नीतीश ने पैर पर कुल्हाड़ी मार ली है। लोग सोच रहे थे कि लालू के साथ होकर नीतीश सुशासन के नाम पर कैसे वोट मांगेगे लेकिन नतीजे आए तो सारी शंकाएं निर्मूल साबित हुई।
समीकरण बदले तो बदल गई सरकार
2015 के चुनाव में जेडीयू और आरजेडी नीत महागठबंधन को दो तिहाई से अधिक सीटें मिलीं। भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा। ये तब था जब नरेंद्र मोदी की लहर में भाजपा को बंपर जीत की उम्मीद थी। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव में 30 रैलियों को संबोधित किया था लेकिन नतीजे आए तो भाजपा नीत एनडीए गठबंधन महज 58 सीट पर सिमट गया। महागठबंधन के खाते में 178 सीट गईं। जिस आरजेडी को पिछले चुनाव में मात्र 22 सीट मिली थी इस बार 80 सीट के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। हालांकि जेडीयू को नुकसान हुआ था। जेडीयू की सीट 115 से घटकर 71 पर आ गई थी लेकिन इस बार जेडीयू ने कम सीटों पर चुनाव भी लड़ा था। वहीं महागठबंधन की सहयोगी कांग्रेस को भी 27 सीटें मिली थीं जबकि पिछले चुनाव में कांग्रेस को मात्र 4 सीटें ही मिली थीं। नतीजों ने साबित किया था कि बीजेपी, जेडीयू और आरजेडी में जो दो दल साथ होंगे सत्ता का समीकरण उसी के पक्ष में होगा।
एक बार फिर समीकरण बदले हैं। 2015 का महागठबंधन 2017 में टूट गया। एक बार फिर जेडीयू-बीजेपी साथ आ गए और एक बार फिर एनडीए की तरफ से मैदान में ताल ठोक रहे हैं। हालांकि एनडीए अपनी जीत का दावा कर रहा है लेकिन ये तो नतीजे आने के बाद पता चलेगा कि क्या इस बार भी इन दोनों दलों का गठजोड़ पिछले तीन चुनावों वाला समीकरण चलेगा या नहीं।
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