बंगाल चुनाव में मौलवी अब्बास सिद्दीकी के ISF से गठबंधन की कांग्रेस की क्या है मजबूरी ? जानिए
कोलकाता: केरल से लेकर असम और पश्चिम बंगाल तक में भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस के खिलाफ 'मुस्लिम तुष्टिकरण' को लेकर मोर्चा खोल दिया है। केरल में तो मुस्लिम लीग के साथ वह पांच दशक से साथ है। लेकिन, असम में बदरदुद्दीन अजमल और बंगाल में मौलवी अब्बास सिद्दीकी से हाथ मिलाने के चलते वह अपने घर में भी घिरी हुई है। कांग्रेस के लिए इन कट्टर मुस्लिम विचारधारा की पैरवी करने वाले नेताओं की पार्टियों के साथ आना इसलिए चौंकाने वाला है, क्योंकि यह 2014 में लोकसभा चुनावों में पार्टी को मिली ऐतिहासिक हार पर आई एंटनी रिपोर्ट की चिंताओं के भी खिलाफ है और खुद सोनिया गांधी भी कह चुकी हैं कि बहुसंख्यक हिंदू वोट उनसे दूर चला गया है।
'मुस्लिम तुष्टिकरण' का आरोप झेलने को क्यों तैयार हुई कांग्रेस ?
कांग्रेस लीडरशिप ने पश्चिम बंगाल चुनावों में फुरफुरा शरीफ के मौलवी अब्बास सिद्दीकी के इंडियन सेक्युलर फ्रंट से सीपीएम के साथ मिलकर जो गठबंधन किया है, वह मोदी-शाह की अगुवाई वाली बीजेपी के राष्ट्रवाद के एजेंडे को बहुत अच्छी तरह से सूट करता है। पार्टी कांग्रेस पर मुस्लिम तुष्टिकरण का हमला तेज करेगी और बहुसंख्यक हिंदुओं के ध्रुवीकरण की कोशिश करेगी। कभी इसी डर के चलते राहुल गांधी ने मंदिरों और शिवालयों का चक्कर लगाकर खुद को शिव भक्त बताने की कोशिश की थी तो कभी पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता उन्हें 'जनेऊधारी कौल-दत्तात्रेय गोत्र' के कश्मीरी ब्राह्मण साबित करने का प्रयास किया था। हालांकि, कांग्रेस के चुनाव नतीजों पर उनकी 'चोला बदल' राजनीति का कोई असर नजर नहीं आया। वैसे भाजपा का सामना करने के लिए वह अभी भी तरह-तरह की कोशिशों में जुटे हुए हैं। कभी उनका पुशअप करने वाला वीडियो आ रहा है तो कभी समंदर में मछुआरों के साथ गोता लगाते दिखाई दे रहे हैं।
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सोनिया भी 'मुस्लिम पार्टी' होने की छवि पर चिंता जता चुकी हैं
तीन साल पहले की बात है। खुद सोनिया गांधी भाजपा के बढ़े जनाधार के चलते अपने अंदर के डर को सार्वजनिक तौर पर जाहिर कर चुकी हैं। तब उन्होंने मुंबई में कहा था, 'बीजेपी लोगों को समझाने में कामयाब रही है कि कांग्रेस पार्टी मुसलमानों की पार्टी है। मेरी पार्टी में ज्यादातर हिंदू हैं। हां, मुसलमान भी हैं। इसलिए मैं समझ नहीं पाती कि हमें मुस्लिम पार्टी क्यों बताया जाता है।' जब उनसे पूछा गया था कि राहुल गांधी ने अचानक मंदिर जाना क्यों शुरू कर दिया है तो उन्होंने कहा था, 'वह इसलिए क्योंकि हमें अलग-थलग कर दिया गया है।' पार्टी की छवि हिंदू-विरोधी ना बने इसलिए इसके कई नेताओं ने आर्टिकल-370 और ट्रिपल तलाक जैसे मुद्दों पर इसे संभलकर बोलने की नसीहत दी थी; और जब 2019 के नंबर में महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ सरकार बनाने का फैसला हुआ था तो पार्टी के नेताओं के एक वर्ग ने उसका खुलकर स्वागत किया था।
एंटनी रिपोर्ट की चिंताओं को नजरअंदाज कर रही है कांग्रेस
जब 2014 के मोदी लहर में कांग्रेस लोकसभा में 44 सीटों पर सिमट गई तो पार्टी ने हार के कारणों की समीक्षा की जिम्मेदारी वरिष्ठ नेता एके एंटनी को सौंपी। उन्होंने पार्टी को जो अंदरुनी रिपोर्ट दी उसके बारे में कहा गया कि 'बुहसंख्यक हिंदू समुदाय इससे छिटक चुका है, क्योंकि लोगों में उसकी पहचान मुस्लिम-समर्थक पार्टी की बन चुकी है।' जानकारी के मुताबिक रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि 'कांग्रेस यह समझाने में नाकाम रही है कि सांप्रदायिकता चाहे अल्पसंख्यकों का हो या बहुसंख्यकों का, वह दोनों ही खतरनाक है। कमिटी ने साफ कहा कि इसकी अल्पसंख्यक तुष्टिकरण वाली नीति का उलटा प्रभाव पड़ा है। यही नहीं पार्टी के कुछ नेताओं ने मुस्लिम कोटा की जो बात उठाई उससे भी बहुसंख्यकों ने पार्टी से मुंह मोड़ लिया।' तो सवाल है कि इतना सब होते हुए उसने गठबंधन के लिए मौलवी सिद्दीकी को क्यों चुना है?
'मुस्लिम तुष्टिकरण' का आरोप झेलकर भी बंगाल का किला बचाने की कोशिश
दरअसल, कांग्रेस नेतृत्व को लगा कि अगर इंडियन सेक्युलर फ्रंट के साथ हाथ नहीं मिलाया और अपने पुराने सहयोगी रही असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम को उसके साथ बंगाल में चुनाव लड़ने के लिए छोड़ दिया तो पार्टी का रहा-सहा मुस्लिम वोट बैंक भी हाथ से निकल जाएगा। असम में यही बात एआईयूडीएफ के साथ हुआ है। कांग्रेस लीडरशिप के फैसले से मतलब यही निकलता है कि उसने मुस्लिम वोट बैंक पूरी तरह से गंवाने की जगह उसके लिए 'मुस्लिम तुष्टिकरण' के आरोपों से समझौता कर लेना ज्यादा मुनासिब समझा है। क्योंकि, वह किसी भी सूरत में बंगाल का अपना बचा हुआ किला नहीं गंवाना चाहती है, जो प्रदेश अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी का भी गढ़ है।
मालदा-मुर्शिदाबाद इलाका बचाने की कोशिश
कांग्रेस को उम्मीद है कि आईएसएफ के साथ हाथ मिला लेने से वह अपना मालदा-मुर्शिदाबाद इलाका सुरक्षित कर लेगी। यह वही क्षेत्र है जो एबीए गनी खान चौधरी के जमाने से पार्टी का गढ़ समझा जाता है, लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में करीब 50 फीसदी मुस्लिम वोट के बावजूद यहां पर भी बीजेपी ने सेंध लगा दी है। इस इलाके ने अबतक ममता बनर्जी को भी ठंडा ही रेस्पॉन्स दिया है। ऊपर से एक फैसले से कांग्रेस ने फुरफुरा शरीफ के मौलवी से नेता बने सिद्दीको को भी हैदराबाद वाले ओवैसी से दूर कर दिया है। दूसरी तरफ पिछले लोकसभा चुनाव में सीपीएम के हाथ से उसका 20 फीसदी जनाधार निकल चुका है और उसे किसी तरह से प्रदेश में अपना वजूद बचाए रखना है। यानी मुस्लिम वोट बैंक को सिर्फ मुसलमानों की पार्टी में जाने से रोकने का यह बहुत ही बड़ा दांव है, जिसकी कीमत क्या होगी यह तो 2 मई को ही पता चलेगा।