भारतीय संविधान बनाने में बेनेगल नरसिंह राऊ की भी थी बड़ी
26 नवंबर को 1949 को भारत का संविधान पारित हुआ था. इस संविधान को बनाने में बेनेगेल नरसिंह राऊ की बहुत बड़ी भूमिका थी. उनके जीवन पर रोशनी डाल रहे हैं रेहान फ़ज़ल.
भारतीय संविधान को सात विशेषज्ञों की एक तदर्थ समिति ने लिखा था जिसका नेतृत्व कर रहे थे डाक्टर भीमराव आंबेडकर.
प्रशासनिक और क़ानूनी विशेषज्ञों की इस समिति में शामिल थे बेनेगल नरसिंह राव, के एम मुंशी, एन गोपालस्वामी आयंगर, अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर,सैयद मोहम्मद सादुल्लाह, मैसूर के दीवान एन माधव राऊ और डीपी खैतान.
सन 1948 में डी पी खैतान की मृत्यु हो गई थी. तब उनके स्थान पर टी टी के कृष्णामाचारी को शामिल किया गया था जो बाद में नेहरू मंत्रिमंडल के सदस्य बने.
आंबेडकर को इस समिति का प्रमुख इसलिए बनाया गया था क्योंकि वो पहले ही संविधान सभा की विभिन्न सलाहकार समितियों के सदस्य रह चुके थे.
भारत के संविधान को दुनिया के सबसे बड़े संविधानों में से एक माना जाता है जिसमें 448 अनुच्छेद, 25 खंड, 12 अनुसूची और 105 संशोधन शामिल हैं.
इस संविधान को लिखने में बेनेगल नरसिंह राऊ की बहुत बड़ी भूमिका रही जिन्हें संविधान सभा के सलाहकार के रूप में नियुक्त किया गया था.
उन्होंने अकेले ही फ़रवरी, 1948 तक संविधान का प्रारंभिक मसौदा तैयार कर लिया था जिसे लंबी चर्चा, बहस और संशोधन के बाद 26 नवंबर, 1949 को पारित कर दिया गया था.
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डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने राऊ के प्रति आभार व्यक्त किया
संविधान पर हस्ताक्षर करने से पहले संविधान सभा के अध्यक्ष डाक्टर राजेंद्र प्रसाद ने राऊ को धन्यवाद देते हुए कहा था कि उन्होंने न सिर्फ़ अपने ज्ञान और पांडित्य से संविधान सभा की मदद की है बल्कि दूसरे सदस्यों को भी पूरे विवेक के साथ अपनी भूमिका निभाने में मदद की है.
राऊ संविधान सभा के सदस्य नहीं थे, लेकिन वो मसौदा कमेटी के सबसे महत्वपूर्ण सलाहकार थे.
संविधान बन जाने के बाद 25 नवंबर, 1949 को डाक्टर राजेंद्र प्रसाद ने कहा था, 'संविधान बनाने का जो श्रेय मुझे दिया जा रहा है, वास्तव में मैं उसका अधिकारी नहीं हूँ. उसके वास्तविक अधिकारी बेनेगल नरसिंह राऊ भी हैं जो इस संविधान के संवैधानिक परामर्शदाता हैं और जिन्होंने मसौदा समिति के विचारार्थ संविधान का मोटे रूप में मसौदा बनाया.'
यह सुनने के लिए बेनेगल नरसिंह राऊ संविधान सभा में मौजूद नहीं थे क्योंकि तब तक उन्होंने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था और वो संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थाई प्रतिनिधि बन गए थे.
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दुनिया के संविधानों का गहन अध्ययन
बाद में सन 1960 में प्रकाशित बी शिवा राव की पुस्तक 'इंडियाज़ कॉन्स्टीट्यूशन इन द मेकिंग' के प्राक्कथन में डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने लिखा था -
"अपने ज्ञान और अनुभव के कारण बेनेगल नरसिंह राऊ संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार पद के लिए अपरिहार्य व्यक्ति थे. उन्होंने संविधान सभा के सदस्यों के लिए आवश्यक सहायक सामग्री खोजी और उसे साधारण आदमी की समझ के लिए आसान शब्दों में प्रस्तुत किया. संविधान सभा के अधिक्तर सदस्य स्वाधीनता सेनानी थे. उन्हें संविधान की जटिलताएं मालूम नहीं थीं."
डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने आगे लिखा-
"संविधान पर सामग्री की कमी नहीं थी, लेकिन उसका सही चयन और उसकी उचित व्याख्या का काम बहुत चुनौतीपूर्ण था."
"राऊ ने दुनिया के लिखित और अलिखित संविधानों का गहन अध्ययन कर समय समय पर अपने दस्तावेज़ों में उपयोगी तथ्य और तर्क दिए और उसे सदस्यों के लिए उपलब्ध कराया. अगर डॉक्टर भीमराव आंबेडकर संविधान निर्माण के विभिन्न चरणों में एक कुशल पायलट की भूमिका में थे, तो बेनेगल राऊ वो व्यक्ति थे जिन्होंने संविधान की एक स्पष्ट परिकल्पना दी और उसकी नींव रखी. संवैधानिक विषयों को साफ़-सुथरी भाषा में लिखने की उनमें कमाल की योग्यता थी."
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केंब्रिज में जवाहरलाल नेहरू के सहपाठी
बी शिवाराव की संपादित पुस्तक 'इंडियाज़ कांस्टीट्यूशन इन द मेकिंग' में 29 अध्याय हैं जिसमें अधिकतर बेनेगल नरसिंह राऊ के वो दस्तावेज़ शामिल हैं जो उन्होंने संविधान निर्माण में मदद पहुंचाने के लिए लिखे थे. संविधान सभा की बहस में जब कभी विवाद के विषय उठे राऊ का परामर्श लिया जाता था जो हमेशा उनके गहरे अध्ययन पर आधारित होता था.
पुस्तक की प्रस्तावना में बी शिवाराव ने लिखा है कि 'बेनेगल नरसिंह राऊ को भावी पीढ़ियाँ संविधान के प्रधान निर्माता के रूप में याद करेंगी.'
बेनेगल नरसिंह राऊ का जन्म कर्नाटक के साउथ केनेरा ज़िले के कारकल में 26 फ़रवरी, 1887 को हुआ था. बीए की पढ़ाई के बाद वो केंब्रिज विश्वविद्यालय के ट्रिनिट्री कॉलेज में पढ़ने गए.
अरविंद इलैंगवान बीएन राऊ की जीवनी में लिखते हैं, 'उन दिनों जवाहरलाल नेहरू भी वहाँ के छात्र थे. उन्होंने अपने पिता मोतीलाल नेहरू को लिखे पत्र में लिखा था - यह लड़का अत्यंत चतुर है. मैं उसे सिर्फ़ कक्षा में आते-जाते ही देखता हूँ. मेरा विश्वास है कि वो अपना एक-एक क्षण अध्ययन में ही व्यतीत करता है. उनके निधन पर लोकसभा में श्रद्धांजलि देते हुए जवाहरलाल नेहरू ने अपने छात्र जीवन के इस प्रसंग को याद किया था.'
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जम्मू कश्मीर के प्रधानमंत्री बने
सन् 1909 में राऊ ने आईसीएस की परीक्षा पास की थी. 50 लोगों के बैच में वो अकेले भारतीय थे.
अंग्रेज़ सरकार ने उनकी पहली नियुक्ति मद्रास में की थी इस पर उन्होंने सिविल सर्विस कमिश्नर को एक पत्र भेजकर लिखा था, 'जिस प्राँत में मेरी नियुक्ति हुई है, वहाँ मेरे बहुत सारे मित्र और संबंधी हैं. मद्रास प्रेसिडेंसी में ही मेरे पिता की ज़मीन भी है. इन परिस्थितियों में मैं अपना काम शायद पक्षपात से परे होकर न कर पाऊँ. इसलिए आपसे अनुरोध है कि आप मेरी नियुक्ति कहीं और कर दें. आप मुझे बर्मा भी भेज सकते हैं.'
अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें बंगाल में पोस्ट किया. सन् 1938 में उन्हें 'नाइटहुड' की उपाधि दी गई.
सन 1944 में जब वो रिटायर हुए तो तेज बहादुर सप्रू ने उनसे जम्मू कश्मीर के प्रधानमंत्री का दायित्व संभालने का अनुरोध किया.
राऊ श्रीनगर गए लेकिन वहाँ अधिक दिनों तक नहीं रह सके. कश्मीर के महाराजा हरि सिंह की कार्यशैली से वो असहमत थे.
उन्होंने अपना इस्तीफ़ा भेज दिया जिसमें उन्होंने लिखा, 'आपके फ़ैसलों पर बिना यक़ीन किए उन्हें मानना ईमानदारी नहीं होगी.'
सन 1946 में बर्मा के प्रधानमंत्री यू आँग सान ने उन्हें देश के संविधान लिखने में मदद करने के लिए आमंत्रित किया. उन्होंने इस काम को भी बख़ूबी अंजाम दिया.
इसके बाद उन्हें कलकत्ता हाईकोर्ट में स्थायी जज बनाने का प्रस्ताव दिया गया. उन्होंने इसे अस्वीकार करते हुए वायसराय को पत्र लिखा, 'अगर मुझे मौका मिले तो मैं भारतीय संघ का संवैधानिक ढांचा बनाने में अपना योगदान दे सकता हूँ.'
वायसराय ने उन्हें सचिव पद का दर्जा देकर गवर्नर जनरल सचिवालय के रिफ़ॉर्म ऑफ़िस में नियुक्त कर दिया. जुलाई 1946 में लॉर्ड वेवेल ने उन्हें संविधान सभा का संवैधानिक सलाहकार बनाया.
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वेतन लेने से इंकार
बेनेगल नरसिंह राऊ ने प्रस्ताव रखा कि संवैधानिक सलाहकार पद पर अवैतनिक रूप में काम करेंगे. इसके लिए उन्होंने दो तर्क दिए.
पहला ये कि हर पक्ष उन्हें निष्पक्ष मानेगा और दूसरा कि अगर संविधान के बनने में देरी होती है तो उसका दोष संविधान सभा के कार्यालय पर न आए.
भारतीय संविधान के पहले 243 अनुच्छेद बेनेगल नरसिंह राऊ ने तैयार किए. उसके बाद भीमराव आंबेडकर की अध्यक्षता वाली मसौदा समिति ने इसे विस्तार दिया.
बेनेगल नरसिंह राऊ के मूल मसौदे में देश का नाम 'इंडिया' था उन्होंने एक संघ की परिकल्पना की थी जो 1935 के अधिनियम के आधार पर था. संविधान के तीसरे अध्याय में नीति निदेशक सिद्धांतों के लिए 41 प्रावधान थे.
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डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद की भूमिका पर उठे विवाद को निपटाया
डॉक्टर आंबेडकर ने ख़ुद सर राऊ को संविधान के बड़े भाग पर काम करने का श्रेय दिया.
बेनेगल थे तो संवैधानिक सलाहकार, लेकिन संविधान निर्माण की प्रक्रिया में उनके परामर्श का एक-एक शब्द, संविधान सभा के नेतृत्व के लिए महावाक्य बन जाता था.
15 अगस्त 1947 को संविधान से संबंधित एक समस्या उठ खड़ी हुई. भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम में व्यवस्था थी कि भारत के आज़ाद होते ही असेंबली भंग हो जाएगी और संविधान सभा उसका स्थान ले लेगी.
सवाल उठा कि राजेंद्र प्रसाद जो कि मंत्रिमंडल के सदस्य होने के साथ साथ संविधान सभा के अध्यक्ष की भूमिका साथ-साथ कैसे निभा सकते हैं?
मशहूर पत्रकार दुर्गा दास अपनी किताब 'फ़्रॉम कर्ज़न टू नेहरू एंड आफ़्टर' में लिखते हैं, 'नेहरू और पटेल दोनों चाहते थे कि राजेंद्र प्रसाद मंत्रिमंडल में रहें और संविधान सभा के लिए एक दूसरा अध्यक्ष चुना जाए. जब नेहरू ने अपना मत व्यक्त किया कि प्रजातंत्र में एक मंत्री के संविधान सभा की अध्यक्षता करने से उचित संदेश नहीं जाएगा तो बेनेगल नरसिंह राऊ से सुझाव दिया कि संविधान सभा के अध्यक्ष के नाम पर एक डिप्टी स्पीकर का चुनाव किया जाए जो कि असेंबली की अध्यक्षता कर सके..'
'इसकी वजह से सरदार पटेल और राजेंद्र प्रसाद के बीच तनाव पैदा हो गया और मंत्रमंडल में इन दोनों के बीच तीखी झड़प हुई. बाद में गाँधीजी की हत्या से एक सप्ताह पहले ये मामला उनके सामने उठाया गया.'
'राजेंद्र प्रसाद इस मामले में संविधान सभा में एक वक्तव्य देना चाहते थे, लेकिन गाँधीजी ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया. बाद में बेनेगल राऊ की सलाह पर बीच का रास्ता निकाला गया जिसके अनुसार राजेंद्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष बने रहे और जी वी मावलंकर ने असेंबली के स्पीकर की ज़िम्मेदारी सँभाली.'
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बेनेगल नरसिंह राऊ की अनदेखी
सन् 1949 से 1952 तक राऊ संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थाई प्रतिनिधि रहे.
इसके बाद उन्हें हेग में अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय की बेंच में जज बनाया गया. 26 फ़रवरी 1953 को जेनेवा में कैंसर से उनका निधन हो गया.
उन्होंने जज बनने का प्रस्ताव इस विचार से स्वीकार किया था कि इस दौरान वो भारतीय संविधान की 'असली कहानी' लिखेंगे. लेकिन उनका ये सपना अधूरा रह गया.
इसे एक विडंबना ही कहा जाएगा कि भारत के संविधान निर्माण में इतनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के बावजूद उनके योगदान को उतना महत्व नहीं मिला जिसके वो हक़दार थे.
लेकिन संविधान संबंधी दस्तावेज़ों में वो पूरी तरह अपनी अक्षर देह में मौजूद हैं.
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