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#BBCShe: गुजरात के विकास मॉडल में पेंशन को तरसती विधवाएँ

एक टूटा सा पलंग, कीचड़ से बजबजाती गली, और एक झोपड़ी. ये उस जगह का भूगोल है जो हसीना सोता का घर है. और जहां पहुंचने पर आपकी मुलाक़ात कई उदास चेहरों से होती है.

यहां पर न पानी का कनेक्शन है, न बिजली, न गैस सिलेंडर, न केरोसिन स्टोव और न ही खाने के लिए कोई चीज़ है.

सोता गुजरात की उन तमाम विधवाओं में शामिल हैं जो राज्य सरकार से उनके हिस्से की पेंशन हासिल 

By BBC News हिन्दी
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#BBCShe: गुजरात के विकास मॉडल में पेंशन को तरसती विधवाएँ

एक टूटा सा पलंग, कीचड़ से बजबजाती गली, और एक झोपड़ी. ये उस जगह का भूगोल है जो हसीना सोता का घर है. और जहां पहुंचने पर आपकी मुलाक़ात कई उदास चेहरों से होती है.

यहां पर न पानी का कनेक्शन है, न बिजली, न गैस सिलेंडर, न केरोसिन स्टोव और न ही खाने के लिए कोई चीज़ है.

सोता गुजरात की उन तमाम विधवाओं में शामिल हैं जो राज्य सरकार से उनके हिस्से की पेंशन हासिल करने का इंतज़ार कर रही हैं.

दो जून की रोटी भी नसीब नहीं

साल 2015 में हसीना सोता के पति की मौत होने के बाद किसी तरह की नियमित आय नहीं होने की वजह से उनके परिवार को अक्सर एक समय की रोटी के लिए भी लोगों के दान पर निर्भर रहना पड़ता है.

हसीना की मजबूरी का आलम ये है कि ज़िंदा रहने के लिए भी वह अपने पड़ोसियों की दया पर निर्भर हैं.

गुज़रात के मालिया क्षेत्र की समाजसेवी ज्योतसना जडेजा ने बीबीसी शी की टीम से बात करते हुए कहा, "अगर इन्हें (हसीना सोता को) राज्य सरकार की विधवा पेंशन योजना से फायदा नहीं मिलना चाहिए तो किसे मिलना चाहिए?"

जुम्मावादी गांव गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में मोर्बी ज़िले की मालिया तहसील में समुद्र तट के क़रीब स्थित है.

जब बीबीसी शी की टीम ने हसीना सोता के गांव में पहुंचकर उनसे बात की तो वह कहती हैं, "अगर मुझे पेंशन मिल जाए तो मैं अपने छोटे-छोटे बच्चों को खाना देने में सक्षम हूंगी."

आंखों में आंसू लिए वह बताती हैं कि अपने बच्चों को भूखे पेट सोते देखना बेहद कष्टप्रद होता है.

लाल फीताशाही में फंसी महिलाओं की पेंशन

राज्य सरकार के नियमों के मुताबिक़, 18 से 60 साल की सभी महिलाएं राज्य सरकार से एक हज़ार रुपए प्रतिमाह पेंशन के रूप में लेने की हक़दार हैं. इसके लिए उन्हें कलेक्ट्रेट में एक औपचारिक प्रक्रिया से होकर गुज़रना पड़ता है.

हालांकि, लाल फीताशाही के चलते ऐसी महिलाओं तक सरकारी मदद नहीं पहुंच पाती. लेकिन इसकी कोशिश में लगीं महिलाओं के हाथ सिर्फ़ इंतज़ार लगता है.

गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रुपाणी ने साल 2016 में घोषणा की थी कि उनके राज्य में विधवा पेंशन के तहत 1.52 लाख महिलाएं लाभान्वित होती हैं.

उदाहरण के लिए हसीना सोता के पति की मौत 19 नवंबर, 2015 को हुई. इसके कुछ दिन बाद उन्होंने विधवा पेंशन पाने के लिए आवेदन किया.

वह बताती हैं, "दो साल से ज़्यादा समय बीत चुका है और मैं अभी भी अपनी पेंशन का इंतजार कर रही हूं. हर बार जब भी मैं (सरकारी) ऑफिस जाती हूं तो वे लोग कहते हैं कि मुझे एक चिट्ठी भेजेंगे लेकिन अब तक मुझे कोई चिट्ठी नहीं मिली है."

हसीना के मामले को लेकर बीबीसी शी की टीम ने मोरबी ज़िले के मालिया तहसील के तहसीलदार एमएन सोलंकी से संपर्क किया.

सोलंकी कहते हैं, "जुम्मावादी गांव में ग्राम पंचायत नहीं होने की वजह से इनके आवेदन पर किसी सरपंच के हस्ताक्षर नहीं हुए थे जिसकी वजह से इन्हें इंतज़ार करना पड़ रहा था. लेकिन अब मैंने इनके आवेदन पर अपना साइन कर दिया है और सुनिश्चित करूंगा कि इन्हें पेंशन मिल जाए."

जुम्मावादी एक ऐसा ख़ास तटीय गांव है जहां पर स्थानीय प्रशासन और ग्राम पंचायत नहीं है.

गांव ही नहीं शहरों में भी हालात ख़राब

लेकिन शहरी इलाकों पर नज़र डालें तो वहां भी स्थिति में कोई ज़्यादा परिवर्तन दिखाई नहीं देगा.

अहमदाबाद में रहने वाली एक महिला पुष्पादेवी रघुवंशी साल 2016 से अपनी पेंशन मिलना का इंतज़ार कर रही हैं.

वह कहती हैं, "वह मुझसे अलग-अलग दस्तावेज़ मांगते रहते हैं. मैंने उन्हें सभी ज़रूरी दस्तावेज़ दे दिए हैं. इसके साथ ही मैंने पेंशन लेने की कोशिश में तीन हज़ार रुपए से ज़्यादा ख़र्च कर दिया है. लेकिन मुझे अब तक पेंशन नहीं मिली है."

अहमदाबाद में एक साफ-सुथरी इलाके में रहने वाली रघुवंशी अपने 16 साल के लड़के और 14 साल की बेटी के साथ रहती हैं.

वह बताती हैं, "मेरे बेटे ने काम तलाशने की कोशिश की लेकिन बाल श्रम क़ानून की वजह से उसे कोई काम नहीं देता. अगर कोई काम पर रखता भी है तो ठीक से पैसा नहीं देता है."

रघुवंशी की बेटी इस समय 9वीं कक्षा में पढ़ती हैं और अक्सर फीस लेट होने की वजह से उसे अपने स्कूल में बेइज़्जती झेलनी पड़ती है.

रघुवंशी कहती हैं, "वह अगले साल दसवीं में पहुंचेगी, पर वो अभी ही मुझे कह चुकी है कि वह बिना ट्यूशन लिए मेहनत करके अच्छे नंबर लाएगी. वह बेहद होशियार और समझदार है."

बीबीसी शी से बात करते हुए रघुवंशी कहती हैं, "अगर मुझे पेंशन मिलती है तो मैं अपनी बेटी को पढ़ा पाऊंगी."

पुष्पा रेडीमेड कपड़ों पर मोती लगाने का काम करके 200 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से कमाती हैं.

पेंशन स्कीम बनीं सरकारी अधिकारियों की दया

अहमदाबाद में जीवनयापन के लिए इतनी कमाई पर्याप्त नहीं है.

ऐसे में उनकी बेटी कुमकुम साल 2016 में अपने पिता की मौत के बाद से आज तक टिफिन लेकर स्कूल नहीं गई है.

कुमकुम कहती हैं, "मेरे दोस्त मुझे अपना खाना खिलाते हैं."

आर्थिक तंगी की वजह से उनके लिए अहमदाबाद में रहना मुश्किल होता जा रहा है.

अहमदाबाद की एक समाजसेवी अंकिता पांचाल बताती हैं, "नियमों के तहत किसी विधवा महिला को आवेदन करने के 90 दिन के अंदर पेंशन मिलनी चाहिए. लेकिन यहां पर सरकारी अधिकारियों पर किसी तरह की निगरानी नहीं है. ऐसे में उन्हें किसी तरह का दंड मिलने का डर नहीं है. ऐसे में ये लोग विधवा पेंशन को गंभीरता से नहीं लेते जिसकी वजह से इतनी देरी होती है."

अहमदाबाद में रहने वाले समाजशास्त्री गौरंग जानी कहते हैं कि विकास का गुजरात मॉडल बस शहरी और बिजनेस के विकास पर केंद्रित है, जबकि सामाजिक ज़रूरतें जान बूझकर दरकिनार की गई हैं.

जानी कहते हैं, "विधवा पेंशन के लिए आवेदन करने वाली महिलाएं मुख्यता उन समुदायों से आती हैं जो हाशिए पर हैं. ऐसे में उनके पास अपने मुद्दे उठाने के लिए कोई आवाज़ नहीं है. इससे सरकार पर दवाब नहीं बनता और उनके आवेदनों को कभी गंभीरता से नहीं लिया जाता."

जानी मानते हैं कि विधवा पेंशन योजना महिलाओं की ताकत देने के लिए बनाई गई एक योजना से ज़्यादा एक चैरिटी स्कीम हो गई है.

वह बताते हैं, "मेरा अनुभव है कि सरकारी अधिकारी इन आवेदनों को दान-दया की नज़र से तरह देखते हैं न कि महिलाओं के अधिकार के रूप में."

बीबीसी शी की टीम ने गुजरात के सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण विभाग के मंत्री ईश्वर परमार से बात की.

परमार ने बताया है कि उनके विभाग को विधवा पेंशन के लेट होने से जुड़ी कई शिकायतें मिली हैं.

वह कहते हैं, "अब असेंबली सेशन ख़त्म हो चुका है. मैं जल्द ही दिशानिर्देश बनाने अधिकारियों के साथ बैठूंगा जिससे पेंशन को लेट करने वाले अधिकारियों की ज़िम्मेदारी तय की जा सके."

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English summary
#BBCShe Widows wanting pension in Gujarats development model
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