BBC SPECIAL: 'जब बच्चे ही मर गए तो इन खिलौनों का क्या करूं?'
उस मां का पहला इंटरव्यू, जिसके ज़िंदा बच्चे को मैक्स अस्पताल ने मरा हुआ बताकर, पार्सल की तरह पैक कर दिया था.
21 साल की वर्षा की उम्र बीते 30 दिनों में अब ज़्यादा लगने लगी है. गड्ढों में धँसी आंखों के नीचे काले निशानों ने अपना घर बना लिया है. प्रेग्नेंट रहने के दौरान पेट में पल रहे बच्चों के लिए जो खिलौने खरीदे थे, वो मानो अब वर्षा को काटने को होते हैं.
ठीक 30 दिन पहले वर्षा दिल्ली के शालीमार बाग स्थित मैक्स अस्पताल में भर्ती हुई थीं. पेट में जुड़वा बच्चे थे और कभी भी डिलीवरी हो सकती थी. लेकिन गोद अब सूनी है.
ये वही वर्षा हैं, जिनके ज़िंदा बच्चे को मैक्स अस्पताल ने मरा बताकर पार्सल की तरह पैक कर दिया था.
इस मामले पर सबने बहुत कुछ कहा, लेकिन वर्षा ख़ामोश रहीं. एक महीने बीत गए लेकिन उनके वे आंसू और छटपटाहट किसी कैमरे में दर्ज नहीं हुए, जिसे वह अब एक कमरे में बैठकर ढो रही हैं.
इस हादसे के बाद पहली बार सामने आई वर्षा ने बीबीसी से ख़ास बातचीत में कहा, 'मीडिया से बहुत डर लगता है. पता नहीं क्या-क्या पूछेगी इसलिए कभी सामने नहीं आई.'
पढ़िए, वर्षा की ज़ुबानी उनकी कहानी
'पूरा घर खुश था. शादी के तीन साल बाद हमने फ़ैमिली प्लान की थी. मेरे पति चाहते थे कि उनका काम थोड़ा जम जाए तभी बच्चों का सोचें. ताकि उन्हें अच्छे से पढ़ा सकें.'
बहुत कुछ सोचा था. बच्चों के नाम भी सोच रहे थे. ससुर बोलते थे कि अगर दोनों लड़के हुए तो लव-कुश नाम रखेंगे. मेरे पापा मुझे छेड़ते थे. कहते थे वर्षा अगर तेरे बच्चे काले हुए तो उन्हें गोद में नहीं लूंगा. मज़ाक करते थे. उन्होंने दो छोटे-छोटे कम्बल खरीद रखे थे. मुलायम वाले.
प्रेग्नेंसी के पांचवें महीने में मेरे पति आशीष ज़बरदस्ती मेरे साथ अस्पताल गए. बोले- मुझे मेरे बच्चों के हाथ-पैर देखने हैं.
रिपोर्ट आई तो घर पर सब खुश हो गए. सास ने मेरी नज़र उतारी. हम ग़रीब लोग हैं लेकिन अपने बेटे और बेटी को हम पढ़ाना चाहते थे. नौकरी करे, इस क़ाबिल बनाना चाहते थे. आशीष मुझे कहते थे कि हम अपने बच्चों को उनकी मर्ज़ी का करने देंगे.
'बेटी नीली पड़ गई, लेकिन बेटा ज़िंदा था और गोरा था'
मेरे दोनों बच्चे ठीक थे. जितनी बार अल्ट्रासाउंड कराया था, सब नॉर्मल था. 27 नवंबर को थोड़ी परेशानी लगी. वॉटर बैग लीक होने लगा और थोड़ा ब्लड आ गया.
मेरी पहले वाली डॉक्टर ने कहा कि बड़े अस्पताल चले जाओ. हम 28 नवंबर को दोपहर में मैक्स आ गए. मुझे भर्ती कर लिया गया. शाम को डॉक्टर ने कहा कि इन्जेक्शन लगाना होगा, मुझे बहुत महंगे-महंगे इन्जेक्शन लगे.
उसके बाद भी अल्ट्रासाउंड हुआ. डॉक्टर निगेटिव नहीं थे. 29 नवंबर की रात से मुझे लेबर पेन शुरू हुआ. रातभर मैं चीख रही थी.'
मैं चाहती थी कि मेरा ऑपरेशन कर दिया जाए लेकिन घरवाले नहीं चाहते थे. ऑपरेशन के बाद दोबारा मां बनना और दूसरा सारा काम मुश्किल हो जाता है, शायद इसीलिए.
30 नवंबर की सुबह मेरी नॉर्मल डिलीवरी कराई गई. मेरी बच्ची मरी हुई पैदा हुई थी. शायद उसे इंफ़ेक्शन हो गया था. एकदम नीली-काली हो गई थी. सिर लटका हुआ था उसका. बेटा जिंदा था और बिल्कुल मेरी तरह था. गोरा था. बड़े-बड़े बाल थे. वो ज़िंदा था. कुछ मिनट के लिए ही उसे देखा था, लेकिन उसका चेहरा भूलता नहीं है. मुझे तो पता भी नहीं था कि उसके बाद क्या हुआ.
मेरी मां ने मुझे अगले दिन बताया कि अस्पताल ने मेरे ज़िंदा बच्चे के साथ क्या किया. उसके मरने का भी मुझे मां ने ही बताया. छह दिसंबर को मुझे मैक्स अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिया गया.
घर के अंदर पैर नहीं रख पा रही थी
अस्पताल से जब घर आ रही थी तो मीडिया वाले पीछे-पीछे आए थे. पूरे मोहल्ले को पता चल गया कि क्या हुआ लेकिन लोग थोड़ी देर रोते हैं और उसके बाद सिर्फ़ बातें बनाते हैं.
जब घर में पहला क़दम रखा था तो पेट पर हाथ रखकर खड़ी हो गई थी. 28 नवंबर को जब इस चौखट से निकली थी तो सपने थे, जब लौटी तो कंगाल हो चुकी थी. बच्चा जब अंदर आता है, तभी से औरत मां बन जाती है.
अपने कमरे में नहीं गई. ड्रॉइंग रूम में घंटों बैठी रही. आशीष ने भी मुझसे कई दिन बात नहीं की. खाना खाती थी तो याद आता था. जब बच्चे होने वाले थे तो सब कहते रहते थे ये खाओ-वो खाओ.
यहां रहना मुश्किल हो रहा था तो मम्मी के पास चली गई. वहां भी सबको पता था. मेरे भाई की शादी भी थी लेकिन मैं कमरे से बाहर ही नहीं निकल पाई.
'रोज़ उस दर्द को जी रही हूं'
सबके लिए एक महीना हो गया लेकिन मैं तो रोज़ उस दर्द को जी रही हूं. सपने आते हैं. मेरे और आशीष के बीच बात भी कम होती है. हम दोनों अपने-अपने दुख को बांधने की कोशिश करते हैं लेकिन ये बहुत मुश्किल है.
मैं पहले लालची नहीं थी लेकिन अब लालची हो गई हूं. दूसरों को देखती हूं तो दिल तिलमिला जाता है. मन करता है कि मेरी गोद में मेरा बच्चा होता तो उसको अंगीठी के सामने बैठकर तेल लगाती.
मैं सिर्फ़ अपने लिए न्याय चाहती हूं. अपने लिए नहीं अपने बच्चों के लिए.
दिल्ली सरकार ने अस्पताल का लाइसेंस रद्द किया था लेकिन अब वो फिर खुल गया है. डॉक्टरों को भी सज़ा नहीं दी गई है. मेरा परिवार पिछले दो सप्ताह से सड़क पर बैठा है. वहीं खा रहा है. वहीं सो रहा है. न घर संभल रहा है और न ही न्याय मिल रहा है.
हर कोई वादा कर देता है, पर न्याय कब मिलेगा ये नहीं बता पाता. बस यही है. मेरे ससुर कहते हैं कि मुझे भी धरने पर आना चाहिए लेकिन उस अस्पताल को दोबारा देखने की हिम्मत नहीं है मुझमें.
आस-पड़ोस की औरतें आती हैं और कहती हैं कि दोबारा हो जाएंगे बच्चे लेकिन मेरी हिम्मत टूट गई है. अगर उनके साथ भी ऐसा हो गया तो...
इतना कहकर वर्षा ने दुपट्टे से मुंह ढक लिया. कहा, अब और कुछ नहीं कह सकूंगी.
उस कमरे में कोने में दीवार से लगी एक आलमारी पर कुछ खिलौने थे. वर्षा कहती हैं, 'इन खिलौनों को भी छुपाना है. खेलने वाले ही मर गए तो इनको क्यों सहेज कर रखूं.'
इलाज के नाम पर अस्पताल 'लूटे' तो क्या करें?
'मेरे ज़िंदा बच्चे को मेरी मरी हुई बच्ची के साथ सुला रखा था'