बीबीसी विशेष: हैदराबाद विवि में वेमुला के बाद क्या कुछ बदल गया?
रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में अभी तक विरोध प्रदर्शन क्यों नहीं रुके. बीबीसी की विशेष सीरिज़ की कड़ी.
रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद शुरू हुए प्रदर्शनों के साथ ही हैदराबाद विश्वविद्यालय सुर्खियों में आया था.
इन प्रदर्शनों में छात्र संगठनों ने प्रशासन पर जाति के आधार पर भेदभाव का आरोप लगाया जबकि प्रशासन ने कैंपस में शांति भंग करने के लिए बाहरी राजनीतिक ताकतों के हस्तक्षेप को दोषी ठहराया.
लेकिन ये आरोप प्रत्यारोप लंबे समय तक विश्वविद्यालय की बहसों का केंद्र बने रहे.
हैदराबाद विश्वविद्यालय छात्र यूनियन के अध्यक्ष पी श्रीराग के मुताबिक, "घटना के बाद, यहां कैंपस में सबकुछ बदल गया है. विश्वविद्यालय जिस बात के लिए जाना जाता था, वो बहस मुहाबसों जगह सिकुड़ा है. छात्र समुदाय और प्रशासन के बीच भरोसा कम हुआ है."
शोध छात्र रोहित वेमुला की मौत के बाद जनवरी 2016 में कैंपस में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुए थे.
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बाहरी हस्तक्षेप
रोहित के दोस्त मानते हैं कि बीजेपी से छात्र संगठन अखिला भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के अध्यक्ष सुशील कुमार ने बीजेपी के तेलंगाना यूनिट के वरिष्ठ नेताओं के इशारे पर काम किया था.
वो अपने तर्क को इसलिए भी मजबूत मानते हैं क्योंकि तत्कालीन केंद्रीय श्रम मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने अगस्त 2015 को मानव संसाधन मंत्रालय को एक चिट्ठी लिखी थी.
मीडिया में आई रिपोर्टों के मुताबिक, इस चिट्ठी में उन्होंने लिखा था कि 'विश्वविद्यालय जातिवाद, चरमपंथ और राष्ट्रविरोधी तत्वों का गढ़' बन चुका है और आरोप लगाया गया था कि प्रशासन इसका 'मूकदर्शक' बना हुआ है.
वेमुला की मौत की घटना के बाद विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर अप्पाराव को हटाए जाने की मांग और तेज़ हो गई.
इसमें राजनीतिक दलों ने भी इस सुर में अपना सुर मिलाया. कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी, आम आदमी पार्टी प्रमुख अरविंद केजरीवाल, वामपंथी नेता और अन्य कई नेता भी प्रदर्शनकारी छात्रों का समर्थन करने कैंपस पहुंचे.
मानव संसाधन मंत्रालय की ओर से गठित जस्टिस रूपनवाला आयोग ने रोहित वेमुला की मौत के पीछे निजी कारण बताया और ये भी कहा कि रोहित वेमुला दलित नहीं थे.
विश्वविद्यालय के प्रवक्ता डॉ पावराला विनोद का कहना है कि इस मुद्दे पर कैंपस पूरी तरह विभाजित हो गया था,
"छात्रों में 'हम बनाम वे' की तर्ज पर इस तरह का विभाजन दिखा जिसमें विश्वविद्यालय प्रशासन को खलनायक मान लिया गया. हमें इस गतिरोध को कहीं न कहीं तोड़ने की ज़रूरत है. हमें यहां संवाद की ज़रूरत है. हमें पार्टी लाइन से हटकर खुले संवाद की ज़रूरत है."
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भगवाकरण के ख़िलाफ़ अम्बेडकरवादी-वामपंथी गठबंधन
1993 में अम्बेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन (एएसए) नाम का छात्र संगठन बना था. इसे विश्वविद्यालय में स्वाभिमान आंदोलन की शुरुआत माना जाता है.
वेमुला के दोस्त रहे प्रशांत आरोप लगाते हैं कि कैंपस में हर बार समाज के हाशिए से आए छात्रों के साथ भेदभाव होता है.
एएसए और एबीवीपी के बीच विचारधारात्मक भिड़ंत के पीछे मौजूद कारणों पर वो कहते हैं, "अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद भारतीय जनता पार्टी की छात्र शाका है. उसने कैंपस में अम्बेडकर का भगवाकरण करना शुरू किया. एसए ने इस कोशिश का विरोध किया."
इस साल छात्र यूनियन का चुनाव हुआ जिसमें अध्यक्ष पद पर अम्बेडकरवादी और वामपंथी छात्र संगठनों के गठबंधन एसोसिएशन फॉर सोशल जस्टिस (एएसजे) का उम्मीदवार 1,509 वोट पाकर जीता.
हालांकि एबीवीपी अध्यक्ष उदय कहते हैं कि उनके गठबंधन राष्ट्रीय राजनीति का प्रतिबिंब है, जहां 2019 में बीजेपी को हराने के लिए गठबंधन बनाने की कोशिश हो रही है.
वो कहते हैं, "यही फ़ार्मूला कैंपस में भी आजमाया गया. हालांकि अंतर बस इतना है कि छात्रों की चुनी हुई कमेटी, विश्वविद्यालय के छात्रों के मुद्दों के लिए संघर्ष करने वाले एक साझा प्लेटफ़ार्म पर सबको साथ लेने में नाकाम रही."
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क्या अभी भी तनाव है?
अक्टूबर से अबतक दो बड़े प्रदर्शन हो चुके हैं.
एएसजे में शामिल रहे ट्राइबल स्टूडेंट फ़ेडरेशन (टीएसएफ़) के दस्यों ने रिले भूख हड़ताल किया. उनकी मांग थी उनके संगठन की ओर से नामित नरेश लुनावाथ को यूनियन को उपाध्यक्ष के रूप में स्वीकार किया जाए. उन्होंने एबीवीपी के ख़िलाफ़ जीत दर्ज की थी.
एबीवीपी ने शिकायत दर्ज कराई कि नियमों के मुताबिक ज़रूरी 75 प्रतिशत उपस्थिति, नरेश लुनावाथ की नहीं है.
विश्वविद्यालय प्रशासन ने इस मामले में जांच कमेटी गठित की और फिर हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त जज के पास राय के लिए इस मामले को भेज दिया.
अभी ये भूखहड़ताल चल ही रही थी कि तीन नवंबर की रात को एक नया प्रदर्शन शुरू हो गया, जब हॉस्टल के प्रशासनिक अधिकारियों ने एक छात्रा को दूसरे छात्र के कमरे में पाया.
हॉस्टल के क़ायदे क़ानून के मुताबिक़, छात्र और छात्रा एक दूसरे के कमरों में नहीं प्रवेश कर सकते.
छात्रों ने प्रशासन पर नैतिक पहरेदारी का आरोप लगाया. इसी दौरान छात्र और छात्र नेता उस छात्रा के समर्थन में हॉस्टल के सामने इकट्ठा हो गए.
प्रशासन ने पुलिस बुला लिया और बलपूर्वक छात्रों को वहां से हटा दिया गया.
विश्वविद्यालय ने दस छात्रों को निलंबित कर दिया. हालांकि प्रशासन बाद में नरम पड़ा और छात्रों को परीक्षा देने की इजाज़त दे दी.
निलंबित छात्र वेंकटेस्वरुलु येरुकाला कहते हैं कि टीएसएफ़ की ओर से प्रतिनिधित्व करने के लिए उन्हें निशाना बनाया गया.
विश्वविद्यालय में शोध करने वाले वेंकट चौहान कहते हैं, "हालांकि छात्र संगठन छात्रों और प्रशासन के बीच जुड़ाव का एक माध्यम होते हैं लेकिन दुखद है कि ऐसा नहीं हो रहा है और राजनीतिक ताक़तें छात्र आंदोलनों पर असर डाल रही हैं, जिसकी वजह से असल में मुद्दा कुछ का कुछ हो जाता है."
कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सवादी) की केंद्रीय कमेटी के सदस्य एस वीरिया कहते हैं कि राजनीतिक पार्टियों के प्रभाव को दोष देने की बजाय हैदराबाद विश्वविद्यालय में छात्रों के प्रदर्शनों के मूल कारणों को जानने की ज़रूरत है.
उनके मुताबिक, "हैदराबाद केंद्रीय विद्यालय किला बना दिया गया है, जहां आगंतुकों को रोका जाता है और छात्रों की एक एक गतिविधि पर निगरानी की जाती है. प्रशासन कहना कि छात्रों में बाहरी राजनीति के प्रभाव से अशांति फैल रही है, हास्यास्पद है. ऐसा इसलिए कहा जा रहा है ताकि छात्रों के प्रदर्शन के कारणों को छिपाया जा सके. जबकि छात्र जाति आधारित भेदभाव के ख़िलाफ़ एकजुट हो रहे हैं."
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अशांति नहीं है
विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर पोडिले अप्पा राव जबसे कार्यभार संभाला है, यहां सभी विरोध प्रदर्शनों के केंद्र में रहे हैं.
हालांकि वो कहते हैं कि यहां कोई अशांति नहीं है.
उनके मुताबिक, "अगर 30 छात्र, जिनमें हरेक के प्रभाव में चार से पांच छात्र हैं तो ये संख्या क़रीब 200 के आस पास पहुंचती है. अगर इनका प्रदर्शन करना अशांति है तो निश्चित तौर पर विश्वविद्यालय में कोई अशिंत नहीं है."
वो ये भी कहते हैं कि नेतृत्व को शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार पर ध्यान देना चाहिए, उस संस्थान के नाम को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहिए जिसने उन्हें शिक्षा दी और उनके नेतृत्व के फलने फूलने के लिए जगह मुहैया कराई.
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राजनीति के जानकार क्या कहते हैं?
विश्वविद्यालय में अशांति पर चिंतित लेखक और राजनीतिक चिंतक कांचा इलैया का कहना है कि ये प्रदर्शन छात्रों के अकादमिक कैरियर पर ही असर नहीं डालते बल्कि उनको आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक तौर पर भी प्रभावित करते हैं.
उनके मुताबिक, "चूंकि भारतीय विश्वविद्यालय आम तौर पर उच्च वर्ग को अंग्रेज़ी शिक्षा मुहैया कराते हैं इसलिए वो नहीं चाहते कि यही शिक्षा समाज के हाशिए के लोगों को भी दी जाए. इस पूरी समस्या की यही जड़ है."
वो कहते हैं, "पूरे देश में एक समान अंग्रेज़ी शिक्षा लागू करने से ग़ैरबराबरी और छुआछूत को कम से कम शिक्षण संस्थानों में कम किया जा सकता है."
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