BBC INVESTIGATION: निर्भया के नाम पर मदद देने वाले ख़ुद मदद के मोहताज
निर्भया कांड के बाद बनाए गए 'वन स्टॉप सेंटर्स' की पड़ताल बताती है कि ये सेंटर अपने मक़सद हासिल नहीं कर पाए हैं.
"उस महिला का हाथ टूटा हुआ था. वहां उसके पति को फ़ोन करके बुला लिया गया. पति कई लोगों के साथ आया और कहा कि वो घर ले जाने को तैयार है. पति को ही निर्देश दिया गया कि ले जाएं और इलाज करवाएं. आख़िरकार उस महिला को वहीं भेज दिया गया जहां से वो बच कर आई थी."
ये अनुभव है हिंसा से पीड़ित महिलाओं की मदद के लिए बने केंद्र का.
महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए केंद्र सरकार ने तकरीबन तीन साल पहले एक योजना शुरू की थी जिसके बारे में लोग कम ही जानते हैं.
इस योजना का नाम है- 'वन स्टॉप सेंटर'.
यह योजना महिला एवं बाल विकास कल्याण मंत्रालय की है जिसे निर्भया कांड के बाद ठोस पहल करने की कोशिश के तहत लाया गया था ताकि हिंसा की शिकार महिला को एक ही छत के नीचे हर तरह की मदद मिल सके.
इस योजना के मुताबिक़, घरेलू हिंसा, बलात्कार, मानव तस्करी या तेज़ाब हमलों की शिकार महिलाओं को वन स्टॉप सेंटर में एफ़आईआर, मेडिकल, कानूनी और मनोचिकित्सक की मदद मिल जानी चाहिए और वहां पीड़ितों के ठहरने की भी व्यवस्था हो ताकि वे सुरक्षित रह सकें.
देश भर के 166 ज़िलों में ये सेंटर खोले गए हैं लेकिन ज़मीन पर हालात ये हैं कि महिलाओं को ही इसके बारे में पता नहीं है.
साथ ही ये सेंटर ख़ुद कई परेशानियों और कमियों से जूझ रहे हैं.
बीबीसी हिंदी ने पड़ताल की कि आख़िर केंद्र सरकार की फ़ंडिंग से शुरू हुए इन सेंटरों की क्या हालत है और बेसहारा महिलाओं की वे कितनी मदद कर रहे हैं?
'मदद तो दूर की बात है'
हिसार के वन स्टॉप सेंटर में स्टाफ़ से जब पूछा गया कि पीड़ितों की मदद कैसे की जाती है तो जवाब मिला कि "हम उन्हें होटल से मंगाकर खाना वग़ैरह खिला देते हैं."
'मल्टीपर्पस स्टाफ' के तौर पर काम कर रहे युवक से कई बार पूछे जाने पर उसने इतना ही कहा कि वो ज़्यादा नहीं जानता क्योंकि उसके सामने कोई पीड़िता नहीं आई. उन्होंने कहा, "सब रात को ही आती हैं, तब मैं यहाँ नहीं रहता."
सुबह 11 बजे का समय. महिला पुलिस थाने के परिसर में ही एक प्राथमिक चिकित्सा केंद्र है जिसके सन्नाटे को देखकर लग रहा था कि यहां शायद ही कोई मरीज़ आता है.
इसी केंद्र में एक क़मरा 'वन स्टॉप सेंटर' को दे दिया गया है.
इस क़मरे में दो कुर्सी और दो मेज रखे हुए थे. 4-5 बिस्तर थे. उनमें से एक पर चिकित्सा केंद्र की महिला कर्मचारी सो रही थीं.
अगर कोई पीड़िता आए तो वहीं ठहरेगी. कोई और व्यक्ति आए तो वो भी वहीं बैठेगा.
दिशा-निर्देशों के अनुसार, वहां एक प्रशासक मौजूद होना चाहिए था लेकिन बताया गया कि वो आई नहीं हैं.
स्टाफ के दो लोग वहां मौजूद थे जिन्हें विभिन्न कामों (मल्टीपर्पस स्टाफ) के लिए रखा गया था.
प्रशासक सुनीता यादव से फ़ोन पर बात की तो उन्होंने बताया कि वो रेड क्रॉस दफ़्तर में हैं.
दरअसल, उनके पास तीन जगहों का चार्ज है और किसी एक जगह मौजूद रहना उनके लिए मुमकिन नहीं है.
रेड क्रॉस के दफ़्तर में उन्होंने बताया, "जब तक पूरा स्टाफ़ नहीं होगा, उनकी ट्रेनिंग नहीं होगी. तब तक तो हम ही काम चला रहे हैं. मेरे पास एक ही महिला स्टाफ़ है. उसे मैं दिन में रखूंगी तो रात को किसे रखूँ. किसी पीड़िता को सेंटर में रखना है तो किसके भरोसे रखा जाए. सुरक्षाकर्मियों को भी एजेंसी से लाया गया है. अभी केस वर्कर, काउंसलर, पैरा लीगल, पैरा मेडिकल, आईटी स्टाफ़ है ही नहीं."
सुनीता यादव की मुश्किलों की लिस्ट बहुत लंबी है. वो कहती हैं, "अथॉरिटी के पास ज़मीन की कमी है. हमने अप्लाई कर रखा है, लेकिन अभी तक मिली नहीं हैं."
ये सेंटर कागज़ों में 30 दिसंबर 2016 को शुरू हो चुका है लेकिन अभी तक 39 केस ही यहां आए हैं.
इनमें घरेलू हिंसा, पारिवारिक झगड़े ही ज़्यादा हैं. एक मामला मानव तस्करी का भी था जिसे सुलझाया गया और मुआवज़ा भी दिलवाया गया.
लेकिन ये महिला पुलिस थाना और वन स्टॉप सेंटर शहर के बाहरी क्षेत्र में है जिसकी वजह से महिलाओं को वहां तक पहुंचने में भी दिक्कत होती है.
कैसे हो मामले का निपटारा?
'प्रगति कानूनी सहायता केंद्र' हिसार में सक्रिय एक गैर-सरकारी संस्था है जिसे महिलाएं ही चलाती हैं.
वहां सहायता कर रही वकील नीलम भूटानी बताती हैं कि इन सेंटरों में बीच-बचाव और मध्यस्थता वाला माहौल रहता है जो वन स्टॉप सेंटर का मक़सद नहीं था.
प्रगति सहायता केंद्र के दफ़्तर में घरेलू हिंसा से परेशान पूनम से मुलाक़ात हुई जो बताने लगी कि पिछले तीन दिन से वो रोज़ सरसौध गांव से हिसार महिला पुलिस थाना आ रही हैं.
35 साल की पूनम की शादी 2002 में हुई थी. उनकी दो बेटियां हैं जो 12 और 14 साल की हैं.
घरेलू हिंसा से पीड़ित पूनम काफ़ी वक़्त से अपने मायके में बेटियों के साथ रह रही हैं.
पूनम ने बताया, "एक साल पहले जब मैं शिकायत लेकर महिला थाना गई थी तो वे बोले कि कोर्ट जाना होगा. अब पिछले तीन दिन से जा रही हूँ लेकिन कोई सुनवाई नहीं हो रही. मेरे पास बहुत पैसा तो है नहीं, सिलाई का काम करती हूँ. अब रोज़ किराया लगा कर शहर आती हूँ. या तो मुझे जवाब ही दे दें कि यहां नहीं होगा कुछ."
जब पूनम से पूछा गया कि थाने से किसी ने उन्हें साथ वाले वन स्टॉप सेंटर क्यों नहीं भेजा?
उन्होंने कहा कि वो नहीं जानती कि ये क्या है और ना किसी ने उन्हें इसके बारे में कुछ बताया.
प्रगति में काम कर रहीं शकुंतला जाखड़ कहती हैं कि दरअसल, किसी अनपढ़ गरीब की सुनवाई मुश्किल ही है.
शकुंतला पूछती हैं, "पुलिस और प्रशासन के अधिकारियों में संवेदनशीलता की कमी भी इस तरह की योजनाओं को बेअसर कर देती है. इन सेंटरों के बारे में प्रचार ही नहीं किया गया है तो महिलाएं पहुंचेंगी कैसे?"
घरेलू झगड़ा सुलझाने के सेंटर
मध्य प्रदेश के सागर में बनाए गए सेंटर का हाल हिसार वाले सेंटर जैसा ही है.
सागर के वन स्टॉप सेंटर की प्रशासक राजेश्वरी श्रीवास्तव से जब पूछा गया कि वे पीड़ितों की मदद कैसे करती हैं तो उन्होंने बताना शुरू किया, "एक महिला हमारे पास आई, वो सागर में अपने मायके में रह रही थी. वो चाहती थी कि भरण-पोषण दिलाया जाए. हमने पति के बुलाया तो उसने कहा कि मैं पत्नी को घर ले जाने को तैयार हूँ. हमने उसे समझाया कि तुम सुसराल में रहकर अपनी बेटियों का ध्यान रखो."
चार बेटियों की इस माँ को सेंटर से क़ानूनी, मेडिकल मदद या काउंसलिंग मिलनी चाहिए थी लेकिन उसे मिली ससुराल में रहने की सलाह, जहाँ बेटे को जन्म न देने के कारण उसके साथ बुरा सुलूक हो रहा था.
सागर का सेंटर अस्पताल के तो करीब था लेकिन अभी तक किराये की बिल्डिंग में चल रहा था. तीन क़मरे बने हुए थे जिनमें से दो पर ताला लगा हुआ था. एक क़मरे में प्रशासक राजेश्वरी श्रीवास्तव का दफ़्तर था.
उन्होंने बताया कि उनका स्टाफ़ 15 जनवरी को ही आया है.
हालांकि ये जानकारी भी उन्होंने ही दी कि बजट अप्रैल 2017 में आ गया था.
जब उनसे पूछा गया कि इस सेंटर के बारे में महिलाओं तक जानकारी पहुँचाने के लिए क्या किया जाता है तो उन्होंने बताया कि मध्य प्रदेश की सरकार के बनाए शौर्य दल और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को कहा गया है कि वे पीड़िताओं को यहाँ लेकर आएं.
सेंटर के बारे में लोगों को बताया ही नहीं गया
सागर के मकरौनिया क्षेत्र की एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता से मैंने इस बारे में विस्तार से बात की.
उन्होंने बताया कि वो किसी वन स्टॉप सेंटर या सखी सेंटर के बारे में नहीं जानती हैं. उन्हें बस निर्देश है कि किसी पीड़िता को परियोजना कार्यालय में लाना है और वो वहीं लेकर जाती हैं.
वहां से उसे क़ानूनी सहायता के लिए आगे भेज देते हैं.
अगर कोई महिला इस हालत में है कि वापस अपने घर नहीं जाना चाहती तो फिर क्या करते हैं, इस सवाल पर आंगनवाड़ी कार्यकर्ता ने बताया कि उस मामले में कोई मदद नहीं मिलती. वो इंतज़ाम पीड़िता को ख़ुद ही करना पड़ेगा.
आंगनवाड़ी कार्यकर्ता भी महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के अंतर्गत ही आते हैं यानी मंत्रालय अपने ही विभागों की सेवा अपनी योजना के लिए नहीं ले पा रहा.
सागर की सावित्री सेन 2013 से घरेलू हिंसा की शिकार हैं. वो बात करते-करते रोने लगती हैं.
वे बताती हैं, "कोई ऐसी सुविधा नहीं मिल रही है जिससे मेरी मदद हो. जब मैं पहली बार पति की मार खाकर महिला पुलिस थाने शिकायत लेकर गई थी तो रात के साढ़े दस बजे तक थाने बैठी रही. मार की वजह से मेरा बच्चा भी कोख में मर गया था. अगले दिन सुबह एक वकील साहब की मदद से मेरी एफआईआर दर्ज हुई."
उन्होंने बताया कि उन्हें सखी सेंटर के बारे में तो नहीं पता है लेकिन हाल ही में राजेश्वरी जी से बात हुई है.
उनको पिछले 3-4 दिन से फ़ोन भी कर रही हैं लेकिन राजेश्वरी जी फ़ोन नहीं उठा रहीं.
बीबीसी के वहां होने से सावित्री को उम्मीद बनी. वो हमें आस-पास की महिलाओं से मिलाने की बात करने लगीं ताकि उनका दर्द भी सुना जाए. लेकिन सुनवाई की ज़िम्मेदारी सरकार ने किसी और को सौंपी है.
मंत्रालय से नहीं आया कोई जवाब
केंद्र सरकार की वेबसाइट पीआईबी (प्रेस इन्फ़ॉरमेशन ब्यूरो) के मुताबिक़ इस योजना को 18 करोड़ के सालाना बजट के साथ 2015 में शुरू किया गया था.
साल 2016-17 के लिए इसे 75 करोड़ दिए गए. 2018-19 के लिए 105 करोड़ दिए गए हैं.
ज़मीन पर दिखी वन स्टॉप सेंटर की हक़ीकत को लेकर मैंने महिला एवं बाल विकास मंत्रालय का पक्ष जानना चाहा.
उनसे ये भी पूछा गया कि इन दोनों सेंटर में कितना बजट ख़र्च हुआ और कितना बचा रहा.
इसके लिए 5 फ़रवरी को हमने मंत्रालय को एक ई-मेल लिखा लेकिन ख़बर छपने तक उनका जवाब नहीं आया.