BBC Documentary: क्यों भारत में अपना एजेंडा चला पाते हैं विदेशी राजनयिक ?
पीएम मोदी के खिलाफ बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री के पीछे दो दशक पुराने एक ब्रिटिश राजनयिक की कथित जांच बताई जा रही है। दरअसल, यह एक तरह की कमजोरी हो सकती है कि विदेशी राजनयिकों को यहां शायद कुछ ज्यादा ही छूट मिल जाती है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को टारगेट करने वाली बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री की मंशा चाहे जो भी हो और चाहे इस मामले में किसी के भी इशारे पर काम किया गया हो। लेकिन, सवाल है कि इसके लिए जिस हथकंडे का इस्तेमाल हुआ है, उसके पीछे क्या कारण है? अगर इसकी वजह तलाशेंगे तो अपने देश में ही ऐसी परिस्थितियां पैदा की जाती रही हैं, जिसके चलते इन एजेंडावादियों को दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को, लोकतंत्र का पाठ पढ़ाने का हौसला मिल जाता है। अगर हम टटोलेंगे तो पाएंगे कि अपने देश में ही कुछ ऐसी कमजोर नसें रही हैं, जिनका फायदा विदेशी एजेंसियां उठा लेती हैं और वो अपने घरेलू परेशानियों से ध्यान भटकाने के लिए भारत-विरोधी नरेटिव को आगे बढ़ाने की कोशिश में लग जाते हैं।
बीबीसी डॉक्यूमेंट्री के पीछे की कहानी !
बीबीसी की जिस विवादित डॉक्यूमेंट्री को लेकर भारत से ब्रिटेन तक की राजनीति में घमासान मचा हुआ, उसके लिए वहां के स्टेट ब्रोडकास्टर ने तत्कालीन ब्रिटिश उच्चायोग के एक जूनियर राजयिक के कथित गुप्त जांच का हवाला दिया है। उसी के आधार पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गुजरात में हुए 2002 के दंगों को लेकर टारगेट करने की कोशिश की गई है, जिसपर सुप्रीम कोर्ट ने भी दूध का दूध और पानी का पानी साफ कर दिया है। हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक उस दौर के उस जूनियर ब्रिटिश राजनयिक को गुजरात को लेकर गुप्त जांच करने का आदेश यूके के तत्कालीन विदेश सचिव जैक स्ट्रॉ ने दिया था। तब वे ब्लैकबर्न के मीरपुरी मुस्लिम बहुल क्षेत्र के सांसद हुआ करते थे। माना जाता है कि उस समय फ्रांस के राजदूत ने यूरोपियन यूनियन के राजनयिकों के बीच बांटी जा रही, उस जहरीली रिपोर्ट के बारे में विदेश मंत्रालय को आगाह किया था, तब केंद्र सरकार हरकत में आई थी।
भारत में राजनयिकों को ज्यादा छूट ?
देश के तत्कालीन विदेश सचिव कंवल सिब्बल ने यूनाइटेड किंगडम के राजनयिक के प्रोटोकॉल तोड़कर भारत के आंतरिक मामलों में दखल देने की कोशिश के बारे में उस समय के विदेश मंत्री जसवंत सिंह को जानकारी दी थी और विदेशी मिशनों को इस तरह की हरकत के खिलाफ चेता भी दिया था। लेकिन, सवाल उठता है कि भारत में विदेशी राजनयिक इस तरह की हरकतें कैसे कर पाते हैं ? कैसे उनकी करतूत विदेश मंत्रालय से बची रह जाती है ? जबकि, खासकर चीन और पाकिस्तान में कार्य करने वाले भारतीय राजनयिकों पर वहां की सरकारें बड़ी पैनी नजर रखती हैं। भारतीय राजनयिकों के साथ वहां कई बार बुरे बर्ताव की भी खबरें आती हैं। भारत में तो कुछ समय पहले तक इन देशों के राजनयिकों का एक खास वर्ग के बीच में धड़ल्ले से उठना-बैठना चलता था। कुछ समय पहले तक यूके, अमेरिका, रूस और जर्मनी तक के राजदूतों और उच्चायुक्तों के साथ केंद्रीय कैबिनेट मंत्री जैसा बर्ताव होता था और वे विदेश मंत्रालय की जानकारी के बिना जहां चाहते, आते-जाते रहते थे।
विदेशी राजनयिक भारत में कहां से जुटाते रहे हिम्मत ?
तथ्य यह है कि भारत के विरोधी देशों के राजनयिक अपने देश के एजेंडा के तहत चुनिंदा ब्रिफिंग तक दे सकते थे। जो कि दूसरे देशों में तैनात भारतीय राजनयिकों को नहीं मिल पाता। एक बार तो तत्कालीन रक्षा मंत्री (देश के पूर्व राष्ट्रपति) प्रणब मुखर्जी का 1962 के युद्ध पर दिए बयान को लेकर मुंबई के काउंसल जनरल में तैनात एक जूनियर चीनी राजनयिक ने खुलेआम आपत्ति दर्ज करा दी थी। जबकि, बीजिंग और इस्लामाबाद में भारतीय राजनयिक वहां की इंटेलीजेंस की वजह से अपने दूतावास परिसरों में ही रहना पसंद करते हैं। ना ही उन्हें कभी पहले की तरह दिल्ली में होने वाली कॉकटेल पार्टियों में आमंत्रित होने का कभी मौका मिल पाता है।
बदलने लगे हैं हालात ?
दिल्ली में तो पाकिस्तानी उच्चायुक्तों और जूनियर राजनयिकों के साथ कुछ कार्यक्रमों में कबाब का स्वाद चखने के लिए कथित वामपंथी उदारवादियों में होड़ लगी रहती थी। जबकि, खासकर पाकिस्तान के बारे में यह तथ्य है कि पूरी दुनिया में उनके राजनयिकों को जब भी मौका मिलता है, वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि बिगाड़ने में कुछ भी बाकी नहीं रखते हैं। लेकिन, भारत में उन्हें देश के ही कुछ समूहों से भी समर्थन आसानी से मिल जाया करता है। हालांकि, अभी हालात में बदलाव जरूर महसूस किया जा सकता है।
क्यों भारत में अपना एजेंडा चला पाते हैं विदेशी राजनियक ?
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना के कार्यक्रमों में शामिल होना अपने देश के कुछ दलों के नेता अपनी शान समझते रहे हैं। जबकि, उसकी नीतियों और विचारों से भारत को कोई लेना-देना नहीं है। दिल्ली स्थित कई दूतावास और उच्चायोग आसानी से कुछ कथित ऐक्टिविस्ट और एनजीओ से संपर्क बना लेते हैं। जबकि, विदेशी जमीन पर भारतीय राजनयिक ना तो ऐसा करते हैं और ना ही उन्हें द्विपक्षी ताल्लुकातों को देखते हुए इसकी छूट दी जा सकती है। भारत में तैनात होने वाले चीनी राजनयिक तो 'वुल्फ वॉरियर' की भूमिका के लिए ही कुख्यात रहे हैं। 2017 में डोकलाम तनाव को लेकर अपनी कहानी सुनाने के लिए भारतीय राजनेताओं तक को बुला लिया था। लेकिन, क्या बीजिंग में तैनात भारतीय राजनयिक 2020 में लद्दाख की गलवान घाटी और 2022 की तवांग की घटना के लिए कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चीन के नेताओं को बुलाकर अपनी बात उनके सामने रख सकते हैं ?(तस्वीरें- प्रतीकात्मक)
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