बवाना हादसा: 'पेट का सवाल नहीं होता तो आधी सांस लेकर कौन काम करता'
उन लोगों की कहानी जिन्होंने दिल्ली के बवाना में लगी आग में अपनों को हमेशा के लिए खो दिया.
सेंट्रल दिल्ली से क़रीब 35 किलोमीटर बवाना में शनिवार शाम को एक फैक्ट्री में आग लग गई. आग में 17 लोगों की मौत हो गई जिसमें 10 महिलाएं थीं और 7 पुरुष. मरने वालों में एक पांच महीने की गर्भवती भी थी.
जिस दिन ये आग लगी, उस दिन स्थानीय लोगों को पता चला कि फैक्ट्री में पटाखे पैक करने का काम होता था. इससे पहले तक तो सबको यही मालूम था कि फैक्ट्री में प्लास्टिक की गोलियां बनाने का काम होता है.
इस हादसे में अपनी मां को खोने वाले लक्ष्मण कहते हैं, ''मेरी मां को वहां काम करते हुए सिर्फ़ दो दिन हुए थे.
- मेरी मां ने दो दिन पहले ही काम करना शुरू किया था. पहले दिन जब वो काम से आ तो उसके हाथ पीले थे. हमने पूछा तो उसने कहा कि रंग से हो गए हैं.
- उसने ये भी बताया था कि वहां सांस लेने में परेशानी होती है. साफ़ हवा नहीं मिलती है. फैक्ट्री में एक ही गेट है. उसी से अंदर जाना होता है और उसी से बाहर आना होता है.
- हादसे वाले दिन गेट पर ताला लगा दिया गया था जिसके चलते कोई बाहर नहीं आ सका. हादसे के बाद हमें पुलिस ने फैक्ट्री के अंदर नहीं जाने दिया.''
फैक्ट्री में काम करने वाले ज़्यादातर लोग फैक्ट्री से आधे किलोमीटर दूर मेट्रो विहार इलाके में रहते हैं. यहीं पर लक्ष्मण के घर से ही लगे तीन घर और हैं जिन्होंने अपने घर के किसी न किसी सदस्य को खोया है.
हादसे में अपनी बहन को खोने वाली एक महिला ने बताया कि शनिवार रात 10 बजे उन्हें घटना की जानकारी मिली.
वो बताती हैं, ''मेरी बहन उसी फैक्ट्री में काम करती थी. रोज़ कहती थी कि फैक्ट्री में सांस लेने में परेशानी होती है. आंख, नाक और गले में जलन होती है. कई बार थूक भी पीली होती थी.
- कहती थी कि फैक्ट्री में न तो मुंह ढकने के लिए कुछ होता है और न हाथ में पहनने के लिए.
- खाना खाने के लिए भी ऊपर छत पर जाना पड़ता था. सुपरवाइज़र भी ऊपर छत पर ही खाना खाता था.
- वो अपने पीछे तीन बच्चे छोड़ गई है, अब इन बच्चों का क्या होगा. ''
मेट्रो विहार इलाके में रहने वाले ज़्यादातर लोग उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और झारखंड के रहने वाले हैं.
पास की ही एक दूसरी फैक्ट्री में काम करने वाले हवलदार सिंह का कहना है कि यहां किसी भी फैक्ट्री में काम बहुत आसानी से मिल जाता है.
- न तो कोई पहचान पत्र मांगा जाता है, न ही कोई दूसरा कागज़. सिर्फ अपना नाम लिखाना होता है और नौकरी मिल जाती है.
- नौकरी दो तरह की है. एक आठ घंटे वाली, जिसमें 6000 रुपये प्रतिमाह मिलते हैं और दूसरी 12 घंटे वाली, जिसमें 8000 रुपये प्रतिमाह मिलते हैं.
- यहां काम करने वाले लोग बहुत गरीब हैं. वरना 200 रुपये दिहाड़ी पर कौन काम करता है? सरकार ने जो मज़दूरी तय कर रखी है वो भी हमें नहीं मिलती है.
- शिकायत करने पर फैक्ट्री मालिक साफ़ कह देता है कि करना हो तो करो वरना काम करने वालों की कमी नहीं है.
- पेट का सवाल नहीं होता तो किसी को शौक नहीं है कि दिन भर आधी सांस लेकर काम करे.
वहीं मंजू देवी इस बात से खुश हैं कि उनकी बेटियां उस दिन फैक्ट्री नहीं गईं. मंजू की दो बेटियां उसी फैक्ट्री में काम करती हैं जहां ये हादसा हुआ. उस दिन घर में एक समारोह था जिसके चलते दोनों ने छुट्टी ले ली थी.
मंजू देवी कहती हैं, ''मैं भगवान को बहुत धन्यवाद करती हूं कि मेरी दोनों बेटियां बच गईं, वरना मेरा तो घर ही उजड़ जाता.''
रोहिणी के डीसीपी रजनीश गुप्ता ने बीबीसी को बताया, ''इस मामले में सेक्शन 304 के तहत केस दर्ज़ कर लिया गया है. मुख्य आरोपी को गिरफ्तार कर लिया गया है. अब ये मामला क्राइम ब्रांच देख रहा है.''
'द हिंदू' में प्रकाशित ख़बर के मुताबिक, एनडीएमसी का कहना है कि फैक्ट्री बिना लाइसेंस के ही चल रही थी. वहीं फैक्ट्री के प्लॉट को लेकर भी विवाद है. मसलन ज़मीन खरीदी गई उमा मित्तल के नाम पर है लेकिन फिलहाल यह ललित गोयल के नाम पर है.
एक ओर जहां पीड़ितों के घर मातम छाया हुआ है. वहीं दूसरी ओर राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का भी दौर शुरू हो गया है.
इस संबंध में सोशल मीडिया में एक वीडियो वायरल हो रहा है जिसमें भाजपा नेता को कहते सुना जा सकता है कि 'इस बारे में वो कुछ नहीं बोल सकतीं क्योंकि लाइसेंसिंग उनके पास है.'
हालांकि वीडियो सही है या नहीं इसकी जांच अभी बाकी है.
इस वीडियो के सामने आने के बाद से दिल्ली सरकार और भाजपा के बीच आरोपों का दौर शुरू हो गया है.
ग़ौरतलब है कि जहां दिल्ली सरकार चलाने का दायित्व आम आदमी पार्टी का है वहीं स्थानीय निकाय भाजपा के हाथों में है.
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