बलराज मधोक, जिन्होंने वाजपेयी को 'असल में कांग्रेसी' कहा था: विवेचना
एक ज़माने में बलराज मधोक की गिनती भारत के शीर्ष दक्षिणपंथी नेताओं में होती थी. 1966 -67 में वो भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष बने लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी के पार्टी में आगे आने की वजह से वो धीरे-धीरे पार्टी में नेपथ्य में चले गए. 25 फरवरी 1920 में जन्मे बलराज का देहान्त 2 मई 2016 में हुआ था.
एक ज़माने में बलराज मधोक की गिनती भारत के शीर्ष दक्षिणपंथी नेताओं में होती थी.
1966 -67 में वो भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष बने लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी के पार्टी में आगे आने की वजह से वो धीरे-धीरे पार्टी में नेपथ्य में चले गए.
25 फरवरी 1920 में जन्मे बलराज का देहान्त 2 मई 2016 में हुआ था.
अटल बिहारी वाजपेयी के सबसे बड़े प्रतिद्वंदी थे बलराज मधोक
1961 की बात है. नई दिल्ली से लोकसभा का उपचुनाव जीतने के बाद बलराज मधोक सेंट्रल हॉल में बैठ कर ज़ोर-ज़ोर से नेहरू की चीन नीति की बखिया उधेड़ रहे थे.
तभी अटल बिहारी वाजपेयी जो कि उन्हीं की पार्टी जनसंघ के युवा नेता थे और नेहरू के नज़दीक माने जाते थे और नेहरू उनमें अपार संभावनाएं भी देखते थे, उनके पास आए और कहा कि अगर आप नेहरू को इस तरह भला बुरा कहेंगे तो कभी भी कोई चुनाव नहीं जीत पाएंगे.
तभी आचार्य कृपलानी ने जो एक ज़माने में नेहरू के बहुत करीबी हुआ करते थे और बाद में उनसे दूर हो गए थे कहा, "अटल की बातों की परवाह मत करो, क्योंकि ये नेहरू के चमचे हैं और उनके रहमो -करम पर रहते हैं. आप अपनी बात कहना जारी रखिए."
बलराज मधोक और अटल बिहारी वाजपेयी की प्रतिद्वंदिता की शुरुआत शायद तभी से हुई थी.
वाजपेयी के बारे में उन्होंने एक से अधिक बार कहा था, "वाजपेयी असल में कांग्रेसी हैं."
सबसे पहले रखी थी बाबरी मस्जिद हिंदुओं के हवाले करने की माँग
बहुत कम लोगों को पता है कि मधोक दलित नेता भीमराव आंबेडकर के काफ़ी नज़दीक थे और उनके अंतिम दिनों में अक्सर उनके 26, अलीपुर रोड वाले निवास पर उनसे मिलने जाते थे.
भारत पर गौहत्या पर प्रतिबंध लगाने की माँग करने वाले बलराज मधोक पहले शख़्स थे. उन्होंने पूरे भारत में घूम कर गौ हत्या विरोध का माहौल बनाने की कोशिश की थी.
1968 में वो पहले नेता थे जिन्होंने अयोध्या में बाबरी मस्जिद हिंदुओं के हवाले करने की माँग उठाई थी. उसके बदले में उन्होंने हिंदुओं द्वारा मुसलमानों के लिए उसके बदले एक भव्य मस्जिद बनाने की पेशकश की थी.
जनसंघ का पहला घोषणापत्र लिखा था मधोक ने
नई पीढ़ी के लोगों ने शायद ही बलराज मधोक का नाम सुना हो, लेकिन किसी दौर में वो भारत की दक्षिणपंथी राजनीति के सिरमौर हुआ करते थे.
वो भारतीय जनता पार्टी के पुराने रूप भारतीय जनसंघ के संस्थापकों में से एक थे.
बलराज मधोक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक रहे और भारतीय जनसंघ का पहला घोषणापत्र उन्होंने खुद अपने हाथों से लिखा था.
बलराज मधोक को नज़दीक से जानने वाले और संडे गार्डियन के कार्यकारी संपादक पंकज वोहरा बताते हैं, "बलराज मधोक हिंदुत्व राजनीति के असली संस्थापक थे. उन्होंने अक्तूबर, 1951 में श्यामाप्रसाद मुखर्जी के साथ मिल कर भारतीय जनसंघ की स्थापना की थी लेकिन श्यामा प्रसादजी ज़्यादा रहे नहीं और जल्दी ही उनका निधन हो गया."
"इन्होंने विभाजन से पहले ही हिंदुत्व राजनीति की कई चीज़ें लिख दी थीं. हिंदुत्व पर उनका अपना 'वर्ल्ड व्यू' था और उन्होंने कई पीढ़ियों पर जिसमें आडवाणी, सुब्रमण्यम स्वामी और नरेंद्र मोदी शामिल थे, अपनी छाप छोड़ी थी, चाहे ये लोग इसे आज मानें या न मानें."
मधोक के नेतृत्व में 35 सींटें जीती थीं जनसंघ ने
1967 में बलराज मधोक के अध्यक्षकाल में ही भारतीय जनसंघ ने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए लोकसभा में 35 सीटें जीती थीं.
यही नहीं पंजाब में जनसंघ की संयुक्त सरकार बनी थी और उत्तर प्रदेश और राजस्थान सहित आठ प्रमुख राज्यों में जनसंग मुख्य विपक्षी दल बनने में 1कामयाब हुआ था.
पंकज वोहरा बताते हैं, "भारतीय जनसंघ या भारतीय जनता पार्टी के ग्रोथ पैटर्न को देखा जाए तो दिल्ली उनकी राजनीति का केद्रबिंदु था. यहाँ पर पाकिस्तान से आए शर्णाथियों की बहुत बड़ी तादाद थी और उनका स्वाभाविक झुकाव जनसंघ की तरफ़ बढ़ गया था."
"बलराज मधोक के समय में जनसंघ ने दिल्ली में सात में से छह सीटें जीती थीं. उन्होंने उन जगहों पर जीत हासिल की थीं जहाँ कोई उम्मीद नहीं कर सकता था. ये मधोक के करियर का 'पीक' था."
आडवाणी को जनसंघ में लाने में मधोक की भूमिका
मधोक 1961 में नई दिल्ली और 1967 में दक्षिण दिल्ली से चुनाव जीत कर लोकसभा में पहुंचे थे. वो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के संस्थापक सचिव थे.
उन्होंने एक दर्जन से अधिक किताबें लिखीं और 1947-48 में ऑर्गनाइज़र और 1948 में वीर अर्जुन का संपादन किया.
कहा जाता है कि जनसंघ में लाल कृष्ण आडवाणी को लाने में बलराज मधोक की बहुत बड़ी भूमिका थी.
उस समय दीनदयाल उपाध्याय को एक ऐसे युवा की तलाश थी जो अच्छी अंग्रेज़ी लिख सके और प्रेस वक्तव्यों का अंग्रेज़ी में अनुवाद कर सके.
मधोक ने ही आडवाणी का परिचय दीनदयाल उपाध्याय से करवाया था और उनके बाद आडवाणी ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा.
बलराज मधोक से कई बार मिल चुके इंदिरा गाँधी सेंटर ऑफ़ आर्ट्स के प्रमुख राम बहादुर राय बताते हैं, "बलराज मधोक को एक प्रतिभासंपन्न राजनेता के रूप में याद किया जाएगा. लेकिन उनके नाम के साथ 'यदि' हमेशा लगा रहेगा. वो लगातार अपना महत्व स्वयं घटाते गए."
"उन्होंने पहले अपने मित्रों और फिर सहयोगियों को नाराज़ किया और नाराज़गी का ये दायरा बढ़ता चला गया और अंतत: वो अलगथलग पड़ गए. मेरा अपना ख़याल है कि दीनदयाल उपाध्याय की हत्या के बाद वो मानते थे कि जनसंघ का नेतृत्व करने की क्षमता सिर्फ़ उनमें ही है, दूसरे किसी में नहीं है."
"उनकी इस धारणा को न तो उनके सहयोगियों ने माना और न ही आरएसएस ने. यही कारण है कि उनमें असंतोष और निराशा बढ़ती गई और वो अपने सहयोगियों के बारे में अनाप - शनाप बोलने लगे. वह संगठन कौशल और लोगों को जोड़ने की कला को सीख नहीं पाए और यही उनके पतन का कारण बना."
जूनियर होने के बावजूद पार्टी और आरएसएस ने वाजपेयी को दी तरजीह
1968 में जनसंघ अध्यक्ष दीनदयाल उपाध्याय की मुग़लसराय में हुई हत्या के बाद जब भारतीय जनसंघ ने उनकी जगह अटल बिहारी वाजपेयी को अपना अध्यक्ष चुना, तभी से बलराज मधोक के राजनीति में हाशिए में जाने का सिलसिला शुरू हो गया.
ओपेन पत्रिका के संपादक एन पी उल्लेख अटलबिहारी वाजपेयी की जीवनी 'द अनटोल्ड वाजपेयी - पॉलिटीशियन एंड पेरॉडॉक्स' में लिखते हैं, "बलराज मधोक वाजपेयी से सीनियर थे और उन्होंने दिल्ली में आरएसएस की शाखाएं खड़ी करने और भारतीय जनसंघ को एक राजनीतिक शक्ति बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. लेकिन जब वरिष्ठ पद देने की बात आई तो पार्टी ने उनके बजाए वाजपेयी को चुनना पसंद किया. तर्क दिया जाता है कि वाजपेयी को इसलिए चुना गया, क्योंकि वो प्रभावशाली भाषण दे सकते थे. लेकिन गोविंदाचार्य ने मुझे बताया था कि वाजपेयी को तरजीह देने का सिर्फ़ यही एक कारण नहीं हो सकता."
"मधोक वाजपेयी से उम्र चार साल बड़े थे और जनसंघ में अंग्रेज़ी में भाषण दे पाने वाले सबसे सक्षम व्यक्ति थे. इस पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है कि किस तरह उन्होंने दिल्ली और उत्तर भारत में जनसंघ की नींव मज़बूत की और 60 के दशक में गौहत्या विरोधी आँदोलन का नेतृत्व किया. उनका दोष ये था कि पुराने विचारों वाले, जल्दी आपा खो देने वाले मुंहफट शख़्स थे."
गुरु गोलवलकर से वाजपेयी की शिकायत
मधोक और वाजपेयी के बीच प्रतिद्वंदिता इस हद तक गई कि उन्होंने आरएसएस के प्रमुख गुरु गोलवलकर से अटल बिहारी वाजपेयी के रहन-सहन के तरीके की शिकायत की.
अपनी आत्मकथा 'ज़िदगी का सफ़र' में बलराज मधोक ने लिखा, "जब मैंने इस बारे में गोलवलकर को बताया तो वो थोड़ी देर चुप रहे और फिर बोले 'मुझे हर एक की कमज़ोरियों का पता है. लेकिन मुझे चूंकि संगठन चलाना है, इसलिए शिव की तरह मुझे हर रोज़ ज़हर का घूंट पीना पड़ेगा."
वाजपेयी के साथ लड़ाई में संघ ने बलराज मधोक से पूरी तरह से पल्ला झाड़ लिया.
लचीलेपन का अभाव
उस समय भारतीय जनसंघ के चोटी के नेताओं नानाजी देशमुख, लालकृष्ण आडवाणी और के आर मलकानी का मानना था कि पार्टी की हिंदुत्ववादी विचारधारा को थोड़ा और लचीला बना कर ही पार्टी को व्यापक और मज़बूत बनाया जा सकता है.
इस मामले में प्रोफ़ेसर मधोक की सोच वाजपेयी से बिल्कुल अलग थी. टाइम्स ऑफ़ इंडिया के स्थानीय संपादक और द सैफडरन टाइड - द राइज़ ऑफ़ बीजेपी के लेखक किंग्शुक नाग बताते हैं, "वाजपेयी और मधोक दोनों ही महत्वाकाँक्षी थे और दोनों ही आगे आना चाहते थे. वाजपेयी मधोक की तुलना में अधिक उदार थे, इसलिए दूसरे लोगों को अधिक स्वीकार्य थे. बहुत से लोग तो यहां तक कहते हैं कि ये यूपी और पंजाब के बीच की लड़ाई थी. मधोक पंजाबी थे. बहुत से लोगों का कहना है उस समय तक यूपी लॉबी का दबदबा हो गया था, इसलिए वाजपेयी आगे निकल गए. लेकिन मैं समझता हूँ कि वाजपेयी मधोक की तुलना में ज़्यादा डिपलॉमेटिक थे. मधोक विचारधारा में बहुत मज़बूत थे लेकिन बहुत अच्छे राजनीतिज्ञ नहीं थे, इसलिए पिछड़ गए."
मुसलमानों के भारतीयकरण की वकालत
बलराज मधोक ने भारतीय अल्पसंख्यकों के कथित भारतीयकरण की अवधारणा दी थी जिसका कई हल्कों में भारी विरोध हुआ था. उनकी अपनी पार्टी में भी उनको बहुत अधिक समर्थन नहीं मिला था.
1998 में मुझसे बात करते हुए बलराज मधोक ने कहा था, "मुसलमानों को भारत की मुख्यधारा में लाने की ज़रूरत है. उसके लिए दो क़दम ज़रूरी है. पहला क़दम ये है कि उनके दिमाग से निकालो कि मुसलमान बनने के कारण तुम्हारी संस्कृति बदल गई. संस्कृति तुम्हारी वही है जो भारत की है. भाषा तुम्हारी वही है जो तुम्हारे माँ बाप की थी. उर्दू हिंदी का एक स्टाइल है. मैं भी उसे पसंद करता हूँ, क्योंकि मेरी शिक्षा भी उर्दू मे हुई है. लेकिन उर्दू मेरी भाषा नहीं है. मेरी भाषा पंजाबी है."
"दूसरी बात उन्हें ये बताओ कि देश माँ की तरह है. सारे जापानी बौद्ध हैं. वो भारत आते हैं. उसे पुण्यभूमि मानते हैं लेकिन वो जापान से प्यार करते हैं. हिंदुस्तान में इस्लाम के मज़हब को पूजा विधि के रूप में कोई ख़तरा नहीं है. लेकिन यहाँ ये नहीं चल सकता कि जो मोहम्मद को माने वो भाई हैं और बाकी काफ़िर हैं."
भारत विभाजन के विरोधी
1947 में हुए भारत के विभाजन को मधोक ने कभी स्वीकार नहीं किया और ताउम्र हर मंच पर उसका विरोध करते रहे.
मधोक का कहना था, "दुर्भाग्य ये हुआ कि उस समय हमने विभाजन तो स्वीकार कर लिया लेकिन उससे निकलने वाले परिणामों को अनदेखा कर दिया. विभाजन ने दो बातें साफ़ कर दीं. ये जो साझा संस्कृति को जो बात थी वो ख़त्म हो गई. हर मुल्क की साझा संस्कृति होती है लेकिन कोई इसे साझा नहीं कहता."
"दुनिया में आज सबसे अधिक साझा संस्कृति अमरीका की है लेकिन वो भी उसे साझा नहीं कहते. वो इसे अमरीकन 'कल्चर' कहते हैं. गंगा के अंदर अनेक नदियाँ मिलती हैं , लेकिन मिलने के बाद गंगा जल हो जाता है. ये गंगा - जमुनी की बात ग़लत है. जब जमुना गंगा मे मिल जाती है तो कोई गंगा के पानी को गंगा -जमुनी पानी नहीं कहता. वह गंगाजल कहलाता है."
कानपुर अधिवेशन के बाद जनसंघ से निकाले गए
अपनी विचारधारा से प्रतिबद्ध होने के बावजूद बलराज मधोक की छवि एक अव्यवहारिक राजनेता की रही.
हालात यहाँ तक गए कि एक ज़माने में भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष रहे बलराज मधोक को उनकी पार्टी ने ही 1973 के कानपुर अधिवेशन के बाद पार्टी से निष्कासित कर दिया.
पंकज वोहरा कहते हैं, "बलराज मधोक जनसंघ की राजनीति में एक तरह से 'परसोना नॉन ग्राटा' बन चुके थे. पार्टी नेतृत्व ने उन्हें एक रिपोर्ट बनाने को दी थी. उन्होंने वो रिपोर्ट पार्टी अध्यक्ष को सौंप दी थी. इससे पहले कि उस रिपोर्ट पर विचार किया जाता, बलराज मधोक का कहना है कि आडवाणी ने कुछ पत्रकारों को लंच पर बुलाया और उस रिपोर्ट की कापी दे दी. अगले दिन जब वो रिपोर्ट अख़बारों में छपी तो मधोक से पूछा गया कि ये रिपोर्ट प्रेस के हाथ में कैसे पहुंची?"
"मधोक इस आरोप से इतने नाराज़ हुए कि उन्होंने उसी समय अधिवेशन से वॉक आउट करने का फ़ैसला किया. वो पहले रेलवे स्टेशन पहुंचे और फिर रेलवे लाइन के सहारे चलते चलते अगले स्टेशन पहुंचे और वहाँ से उन्होंने दिल्ली के लिए ट्रेन पकड़ी. मधोक को लगता था कि उनका जीवन ख़तरे में है. उनका ये भी मानना था कि दीनदयाल उपाध्याय की भी हत्या की गई थी. इसलिए उन्होंने कानपुर स्टेशन से ट्रेन पकड़ने के बजाए अगले स्टेशन से ट्रेन पकड़ना उचित समझा. इसके बाद उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया और उनका और जनसंघ का नाता टूट गया."
राष्ट्रपति चुनाव लड़ना चाहते थे मधोक
इसके बाद उन्होंने राज नारायण से मिल कर चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में भारतीय लोक दल बनवाया. लेकिन तभी इमरजेंसी लग गई और मधोक को गिरफ़्तार कर लिया गया.
इमरजेंसी के बाद जब जनता पार्टी बनी तो चरण सिंह, राज नारायण और भारतीय जनसंघ तीनों ने ये तय कर लिया कि बलराज मधोक को जनता पार्टी की मुख्य धारा से अलग रखना है. नतीजा ये हुआ कि मधोक राजनीति के बियाबान में चले गए.
इंदिरा गाँधी सेंटर ऑफ़ आर्ट्स के प्रमुख राम बहादुर राय बताते हैं, "मुझे याद है जब 2002 में के आर नारायणन का कार्यकाल समाप्त हो रहा था और नए राष्ट्रपति के चयन की बात चल रही थी, उन दिनों प्रोफ़ेसर मधोक ने झंडेवालान में संघ के लोगों से बहुत बात की लेकिन संघ का जिस तरह का उनके साथ पुराना अनुभव था, उन्होंने उसे कोई ख़ास महत्व नहीं दिया और उनके नाम पर मोहर नहीं लग पाई और एपीजे अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार चुना गया."
विचारधारा में नरेंद्र मोदी के करीबी
96 साल की दीर्घायु पाने के बावजूद प्रोफ़ेसर मधोक ने अपने जीवन के अंतिम चार दशक राजनीतिक वनवास में बिताए.
उनके बाद से ही अटल बिहारी वाजपेयी और आडवाणी का युग शुरू हुआ और मधोक समय से पहले ही इतिहास के पन्नों में समा गए.
किंग्शुक नाग बताते हैं, "जब हम दिल्ली में पढ़ा करते थे तो मधोक का वहाँ काफ़ी नाम हुआ करता था. लेकिन उनकी छवि हमेशा एक चिड़चिड़े शख़्स की रही. 1971 मे जब वो चुनाव हार गए तो उन्होंने अपने आप को चार दिनों तक एक कमरे में बंद कर लिया. वो हार को बहुत आसानी से स्वीकार नहीं करते थे. दूसरे शब्दों में वो बहुत भावनात्मक व्यक्ति थे जिसका उन्हें बहुत राजनीतिक नुक़सान हुआ."
"दूसरी तरफ़ वाजपेयी कहीँ अधिक व्यवहारिक थे, इसलिए वो आगे बढ़ते चले गए. मधोक दिल्ली के राजेंद्र नगर इलाके में रहते थे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उनके प्रशंसकों में से थे. मैंने उनको कई बार उनके पास जाते हुए देखा था. मोदी की विचारधारा बलराज मधोक की विचारधारा से बहुत अधिक भिन्न नहीं थी."
"कहा जाता है कि 2014 के चुनाव के दौरान मधोक ने नरेंद्र मोदी से कहा था कि बीजेपी को पूर्ण बहुमत मिलेगा और आप भारत के अगले प्रधानमंत्री होंगे. मोदी के लिए उनके आखिरी शब्द थे, 'डटे रहो'."