'आवारा' ने सोवियत संघ में नेहरू जैसे लोकप्रिय हो गए राज कपूर
1951 में आई आवारा पहली फिल्म थी जिसने भारत को अंतरराष्ट्रीय पहचान दी और फिल्म सोवियत ब्लॉक, चीन, अफ्रीकी और अरब देशों में बहुत लोकप्रिय हुई. 'पिक्चर अभी बाकी है" की पांचवीं कड़ी में सुनिए आवारा के बनने की कहानी.
जब 'आवारा' फ़िल्म सोवियत संघ में रिलीज़ हुई तो वो वहाँ की एक तरह से राष्ट्रीय फ़िल्म बन गई.. फ़िल्म का गाना 'आवारा हूँ' हर सोवियत की ज़ुबान पर था और वो एक तरह से वहाँ का राष्ट्रीय गीत बन गया. वर्ष 1954 में अकेले 6 करोड़ 40 लोगों ने जिनमें अधिक्तर युवा थे 'आवारा' के टिकट ख़रीदे.
राज कपूर के प्रति पूरे सोवियत संघ में दीवानगी तब और बढ़ गई जब उनकी अगली फ़िल्म 'श्री 420' रिलीज़ हुई. वर्ष 1954 में जब भारतीय प्रतिनिधिमंडल सोवियत संघ गया तो हर जगह यही माँग उठती थी कि राज कपूर 'आवारा हूँ' गाएं और उन्होंने पूरे दिल से गाया भी.
राज कपूर की बेटी ऋतु नंदा ने अपनी किताब 'राज कपूर द वन एंड ओनली शोमैन' में लिखा, 'हर जगह ये दृश्य आम होता था कि राज कपूर पियानो के स्टूल पर बैठे हैं. उनको चारों तरफ़ से वोदका के गिलास ऑफ़र किए जा रहे हैं, उनका खुद का व्हिस्की का गिलास ख़ाली पड़ा हुआ है. वो जैसे ही गाना शुरू करते थे, स्त्री और पुरुष सभी नाचते हुए उनके सुर में सुर मिलाने लगते हैं.
जब नेहरू अपनी पहली सोवियत यात्रा पर गए थे तो भीड़ उन्हें देख कर चिल्लाया करती थी, 'आवारा हूँ.'
उस समय बुलगानिन सोवियत संघ के प्रधानमंत्री हुआ करते थे. जब एक सरकारी भोज में नेहरू के बाद बुलगानिन के बोलने की बारी आई तो उन्होंने 'आवारा हूँ' गा कर सुनाया.'
पूरा पैकेज थी 'आवारा'
भारत की आज़ादी को मात्र चार साल हुए थे जब राज कपूर ने अपने चाहने वालों के लिए 'आवारा' फ़िल्म बनाई थी.
ये वो ज़माना था जब किसी फ़िल्म की सफलता के लिए उसका ज़बरदस्त संगीत एक प्रमुख कारण समझा जाता था. ये फ़िल्म एक पूरा पैकेज थी जिसमें शानदार अभिनय तो था ही, एक सामाजिक संदेश को मनोरंजन की चाशनी में घोल कर पेश किया गया था.
कहानी राज कपूर के चारों तरफ़ घूमती है जो एक झोपड़पट्टी में अपनी माँ के साथ रहता है जिसे उसके अमीर जज पति (पृथ्वीराज कपूर) ने एक शक के आधार पर अपने घर से निकाल दिया है.
युवा राज को जिसकी भूमिका शशि कपूर ने निभाई थी, सिर्फ़ इसलिए स्कूल से निकाल दिया जाता है क्योंकि उसने अपनी दाल रोटी के लिए बूट पॉलिश करना शुरू कर दिया था.
चोरी करने और लोगों से ठगी करने के लिए मजबूर राज एक अपराधी बन जाता है.
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'आवारा' की थीम थी वर्ग भेद
हालात ऐसे बनते हैं कि वो डाकू जग्गा (के एन सिंह) को जान से मार देता है. अपने पिता की अदालत में उसका मुक़दमा चलाता है जहाँ रीता (नरगिस दत्त) उसका मुक़दमा लड़ती है.
इस बीच राज की माँ की मौत हो जाती है. उसको अपने पिता की पहचान पता चल जाती है और राज को तीन साल की सज़ा के साथ कहानी समाप्त हो जाती है.
ऋतु नंदा लिखती हैं, ''आवारा' की कहानी की थीम थी वर्ग भेद जिसमें एक रोमाँटिक कहानी को उस गरीबी में लपेट कर दिखाया गया था जो भारत को आज़ादी के बाद मिली थी. ये फ़िल्म कीचड़ में कमल के फूल की तरह प्रस्फुटित हुई थी. तब तक इस तरह की फ़िल्म से लोगों का वास्ता नहीं पड़ा था. ये फ़िल्म एक तरह से गणराज्य की मासूमियत का जश्न मनाती थी जो नया नया पैदा हुआ था और इस मुश्किल दुनिया का सामना करना सीख रहा था.'
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अब्बास ने पहले ये कहानी ऑफ़र की थी महबूब ख़ाँ को
'आवारा' को ख़्वाजा अहमद अब्बास ने लिखा था. वो पहले ये कहानी लेकर महबूब ख़ाँ के पास गए थे. उनको कहानी पसंद आई थी लेकिन वो इस फ़िल्म में बेटे के रोल में दिलीप कुमार और पिता के रोल में पृथ्वीराज कपूर को लेना चाहते थे.
ख़्वाजा अहमद अब्बास अपनी आत्मकथा 'आई एम नॉट एन आईलैंड' में लिखते हैं, 'मैं महबूब के इस विचार से सहमत नहीं था क्योंकि इससे कहानी में असली पिता और बेटे के संबंधों का चटपटापन समाप्त हो जाता जो मेरी समझ में इस फ़िल्म की जान था.
राज कपूर ने किसी से इस कहानी के बारे में सुना. वो मुझसे और साठे से मिलने आए. जैसे ही उन्होंने कहानी सुनी, उन्होंने कहा, 'अब्बास साहब ये कहानी अब मेरी हुई. इसे अब किसी को मत दीजिएगा.' मैंने राज से कहा कि कहानी आपकी है लेकिन उन्होंने मुझ पर एक नई ज़िम्मेदारी सौंप दी कि मैं उनके पिता पृथ्वीराज कपूर को इस फ़िल्म में काम करने के लिए मनाऊँ.'
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अब्बास ने पृथ्वीराज कपूर को 'आवारा' में काम करने के लिए मनाया
जब ख़्वाजा अहमद अब्बास पृथ्वीराज कपूर के पास गए तो उन्होंने उन्हें ये कहकर नर्वस कर दिया, 'तो आप ये चाहते हैं कि मैं हीरो के बूढ़े पिता का रोल करूँ?'
पृथ्वीराज कपूर देखने में बहुत सुँदर थे. उन्होंने हाल में 'राजनर्तकी' फ़िल्म के हीरो का रोल किया था और चरित्र भूमिकाएं निभाने के बारे में बहुत सचेत थे.
अब्बास लिखते हैं, 'उनके लिए मेरा जवाब पहले से ही तैयार था. मैंने कहा, 'पृथ्वीजी आप हीरो के पिता नहीं हैं. आप हीरो हैं और राज आपका बेटा है.' मैं चाहता था कि जब मैं पृथ्वीराज को कहानी सुनाऊं तो राज कपूर वहाँ मौजूद रहें, लेकिन वो इतने नर्वस थे और अपने पिता के सामने सिगरेट नहीं पी सकते थे, इसलिए वो कमरे में आते जाते तो रहे लेकिन बैठे नहीं. उनकी जान में जान आई जब पृथ्वीराज ने फ़िल्म में काम करने के लिए हामी भर दी.'
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लोगों ने 'आवारा' को सर माथे लिया
राज कपूर ने इस फ़िल्म को बनाने में दो साल लगाए. फ़िल्म के प्रीमियर के दिन पूरी फ़िल्म इंडस्ट्री को आमंत्रित किया गया था.
शो के बाद हर कोई चुपचाप हॉल से बाहर निकला. राज कपूर दरवाज़े पर खड़े हुए थे. उन सबने राज से हाथ मिलाया लेकिन एक शब्द भी उनसे नहीं कहा. ऐसा लग रहा था कि वो उन्हें बधाई देने के बजाए उन्हें दिलासा दे रहे हों.
ख़्वाजा अहमद अब्बास लिखते हैं, 'जब सब लोग चले गए तो राज ने मुझसे और साठे से पूछा, मुझे बताओ क्या हमारी पिक्चर इतनी बुरी बनी है? मैंने उनसे कहा फ़िल्म बिल्कुल भी बुरी नहीं है. निजी तौर पर मुझे इस पर गर्व है. जहाँ तक इसके हिट होने का सवाल है, एक दिन और इंतेज़ार करिए. लोगों को अपना फ़ैसला सुनाने दीजिए. अगले ही दिन लोगों ने अपना फ़ैसला सुना दिया और फ़िल्म ज़बरदस्त हिट हुई. उस ज़माने में फ़िल्मों के लिए कोई पुरस्कार नहीं हुआ करते थे. अगर ऐसा होता तो मुझे कोई संदेह नहीं कि इस फ़िल्म को हर वर्ग में पुरस्कार मिलता.'
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राज कपूर और नरगिस की ज़बरदस्त कैमेस्ट्री
राज कपूर ने जब ये फ़िल्म बनाई तो वो सिर्फ़ 27 साल के थे. नरगिस की उम्र उस समय 22 साल की थी.
राज कपूर ने एक जगह स्वीकार किया था कि उनकी शुरू की तीन फ़िल्मों 'आग', 'बरसात' और 'आवारा' पर कुछ विदेशी फ़िल्मों का असर था, ख़ासतौर से तीन इटालियन फ़िल्मकारों रौबर्टो रोसेलिनी, विटोरियो दि सीका और सिज़ारे ज़्वातिनी की बनाई फ़िल्मों का.
हालांकि, फ़िल्म राज कपूर के इर्द गिर्द घूमती है लेकिन इस फ़िल्म का स्तंभ है नरगिस का अभिनय.
टीजेएस जॉर्ज नरगिस की जीवनी 'द लाइफ़ एंड टाइम्स ऑफ़ नरगिस' में लिखते हैं, 'इस फ़िल्म में नरगिस ने अपना दिल और आत्मा सब कुछ झोंक दी थी. वकील के रोल की तैयारी के लिए उन्होंने बंबई की अदालतों के कई चक्कर लगाए थे ताकि वो वकीलों की बॉडी लैंग्वेज को अच्छी तरह से पढ़ सकें. उन्होंने राज कपूर के साथ अपने करियर में 16 फ़िल्में कीं लेकिन 'आवारा' में उन दोनों की कैमिस्ट्री देखते ही बनती थी. पूरे भारत में युवा लोगों ने राज कपूर और नरगिस की तरह कपड़े पहनने और उनके प्रेम गीत गुनगुनाने शुरू कर दिये थे.'
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राज कपूर की बेहतरीन टीम
इस फ़िल्म के ज़रिए राज कपूर ने चार्ली चैपलिन की फक्कड़ की छवि में अपने आप को ढ़ाल लिया. उनकी ये छवि उनके साथ उनकी आने वाली कई फ़िल्मों में रही.
पृथ्वीराज कपूर और के एन सिंह ने भी बेहतरीन अभिनय किया. इस फ़िल्म का स्वप्न दृश्य नए आज़ाद भारत के आम आदमी की आशा का प्रतीक बन गया. इस फ़िल्म ने पूरी दुनिया में वंचितों के साथ एक ख़ास संवाद स्थापित किया.
राज कपूर की टीम में एक से एक काबिल लोग मौजूद थे.
ऋतु नंदा लिखती हैं, 'उनके पास मार्क्सवादी सोच के उपन्यासकार ख़्वाजा अहमद अब्बास और गीतकार शैलेंद्र और संगीतकार शंकर जयकिशन की बहुत प्रतिभाशाली टीम थी. 'आवारा' तत्कालीन भारत के प्रमुख मुद्दों बेरोज़गारी और न्याय प्रणाली में भ्रष्टाचार को आम लोगों के बीच रखने में सफल रही थी. समाजवाद के संदेश से भरी इस फ़िल्म में उच्च कोटि के अभिनय, कसे हुए निर्देशन, ड्रामा और सुरीले संगीत ने इसे उस समय की सबसे यादगार फ़िल्म बना दिया था.'
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संगीत में भी राज कपूर का दख़ल
राज कपूर अपनी फ़िल्म के निर्देशन और कहानी पर जितना ध्यान देते थे उतना ही उसके संगीत पर.
लता मंगेशकर ने एक इंटरव्यू में बताया था, 'मैं और मन्ना डे 'घर आया मेरा परदेसी' गाने की रिकॉर्डिंग कर रहे थे. संगीतकार शंकर जय किशन ने हम दोनों को गाने के बोल और धुन याद करवा दी थी. लेकिन राज कपूर ने आते ही हमारे पूरे दिन की मेहनत पर पानी फेर दिया था.
उन्होंने जयकिशन से कहा था, मुझे 'पोपटिया' गाना नहीं पसंद है. उन्होंने पूरा गाना बदलवाते हुए उसमें एक आलाप भी जोड़ दिया था. हम लोग रात 3 बजे तक इस गाने पर काम करते रहे थे. गाना रिकॉर्ड हो जाने के बाद उन्होंने कहा था चलो अब खाना खाएं. उन्होंने पूरी यूनिट के खाने का इंतेज़ाम किया था. मुझे याद है उन्होंने बीच सड़क पर हमें बैठाकर खाना खिलवाया था. उस ज़माने में सड़कों पर इतना ट्रैफ़िक नहीं होता था, खासतौर से सुबह 3 बजे तो बिल्कुल भी नहीं. सड़क पर एक कपड़ा बिछा दिया गया था जहाँ बैठ कर हमने खाना खाया था और अपने अपने घर चले गए थे.'
दुखों को भूलने में मदद
सोवियत संघ के अलावा 'आवारा' ने अरब और अफ़्रीकी देशों में भी लोकप्रियता के नए मापदंड स्थापित किए.
एक बार 'वॉर एंड पीस' बनाने वाले सरजई बोंडारचुक 1983 मे दिल्ली आए थे और उन्हें फ़िल्म समारोह की जूरी का अध्यक्ष बनाया गया था. उस समय हुई प्रेस कॉन्फ़्रेंस में जब एक भारतीय पत्रकार ने उनसे पूछा कि सोवियत संघ जैसा महान सोशलिस्ट देश 'आवारा' जैसी बोर्जुआ पलायनवादी फ़िल्म को कैसे अपने दिल से लगा सकता है तो उनकी आँखों में चमक आ गई और वो अचानक सीटी से आवारा की धुन बजाने लगे. उन्होंने स्वीकार किया कि इस मामले में विचारधारा फ़िल्म की अपील को कम करने में नाकामयाब रही.
एक बार ख़्वाजा अहमद अब्बास ने भी सोवियत नेता निकिता ख्रुश्चेव से उनके देश में इस फ़िल्म की लोकप्रियता का राज़ पूछा तो उनका जवाब था, 'दूसरे विश्व युद की विभीषिकाओं का सबसे अधिक सामना रूसी लोगों ने किया था. बहुत से रूसी फ़िल्म निर्माताओं ने इस विषय पर फ़िल्में बना कर उन्हें इस त्रासदी की याद दिलाने की कोशिश की थी जबकि 'आवारा' में राज कपूर ने 'ज़ख़्मों से भरा सीना है मेरा, हस्ती है मगर ये मस्त नज़र' गा कर लोगों में उम्मीद की एक किरण जगाई थी और उनके दुखों को भूलने में मदद की थी.'
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सोवियत इतिहास की सबसे लोकप्रिय फ़िल्म थी 'आवारा'
सोवियत लोगों की इस फ़िल्म के प्रति दीवानगी का आलम य़े था कि वो घंटों तक बारिश और बर्फ़ के बीच कतारों में खड़े हो कर इस फ़िल्म का टिकट ख़रीदते थे.
रूसी भाषा में डब हुई 'आवारा' का रूसी नाम था 'ब्रदाग्या'.
ख़्वाजा अहमद अब्बास अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, '7 नवंबर को ध्रुवीय अभियान पर गए वैज्ञानिकों के लिए एक स्टील के बक्से में रख कर ये फ़िल्म हवाई जहाज़ से नीचे गिराई गई. पूरे सोवियत संघ में ये फ़िल्म प्रेयरी की आग की तरह फैल गई. कुछ ही महीनों में होटलों और रेस्तराँ के बैंड और ऑर्केस्ट्रा इस फ़िल्म की धुनें बजाने लगे. मैं कई युवा लोगों से मिला जिन्होंने दावा किया कि उन्होंने ये फ़िल्म 20 या 30 बार देखी है. सोवियत संघ के पूरे इतिहास में किसी फ़िल्म ने ऐसी लोकप्रियता हासिल नहीं की थी. अगले साल जब नेहरू सोवियत संघ की यात्रा पर गए तो उन्हें बताया गया कि पूरे सोवियत संघ में आपके अलावा सिर्फ़ एक और भारतीय बहुत लोकप्रिय है और उसका नाम है राज कपूर.'
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राज कपूर के रूसी बोलने से हुए लोग पागल
तुर्की में 'आवारा' पर एक बहुत ही लोकप्रिय टेलिविजन सीरियल बनाया गया था. चीन के चेयरमैन माओ भी इस फ़िल्म के दीवाने थे. जब 'आवारा' का मास्को के बड़े हॉल में प्रीमियर हुआ तो फ़िल्म ख़त्म होने के बाद दर्शकों ने खड़े होकर राज कपूर और नर्गिस का अभिवादन किया.
वो तब तक तालियाँ बजाते रहे जब तक राज और नरगिस मंच पर नहीं पहुंच गए. उन्होंने चिल्ला कर कहा कि राज कपूर उनके लिए कुछ कहें. राज कपूर इसके लिए पहले से तैयार थे.
उन्होंने कहा, 'तोवारिशी ई द्रूज़िया' (कॉमरेड्स और दोस्तों) 'या लबलू वास ई वी लुबिता मिन्या'( मैं आपसे प्यार करता हूँ और आप भी मुझसे प्यार करते हैं) 'दोसविदानिया' (अलविदा).'
लोग ये सुन कर इतना झूम उठे कि लगा कि छत नीचे गिर जाएगी.
पूरा शहर राज कपूर के स्वागत में उमड़ा
मशहूर फ़िल्म निर्देशक यश चोपड़ा ने एक बार एक किस्सा सुनाया था, '1976 में हम ताशकंद फ़िल्म समारोह में गए थे. मैंने बहुत सारे समारोहों में हिस्सा लिया है लेकिन मैंने विदेशी भूमि पर ऐसा कोई समारोह नहीं देखा जहाँ भारतीय फ़िल्मकारों से राजाओं जैसा सलूक किया जाता हो. इस सबके ज़िम्मेदार थे राज कपूर.
हमारे प्रतिनिधिमंडल में 48 सदस्य थे. सब के लिए एक ख़ास बस का इंतेज़ाम किया गया था. सिर्फ़ राज कपूर को उनके इस्तेमाल के लिए एक बड़ी कार और दुभाषिया दिया गया था. हम सब को लंच और डिनर के लिए कूपन दिए गए थे सिवाए राज कपूर के.
हमने ताशकंद से समरकंद के लिए रात में एक ट्रेन ली थी. हम सबके लिए सीटें रिज़र्व थी लेकिन राज कपूर के लिए ट्रेन का पूरा डिब्बा रिज़र्व रखा गया था. जब हम सुबह समरकंद पहुंचे तो स्टेशन का दृश्य देखने लायक था. करीब करीब पूरा शहर राज कपूर को लेने आया हुआ था.'
जब 1993 में रूस के राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन भारत आए थे तो उन्होंने राज कपूर के परिवार वालों से मिलने की इच्छा प्रकट की थी.
ऋतु नंदा लिखती हैं, 'मैं उस समय कुछ भी नहीं थी और राज कपूर का स्वर्गवास हुए कई साल बीत चुके थे. राष्ट्रपति का एक एक मिनट कीमती होता है लेकिन तब भी उन्होंने हमसे मिलने के लिए समय निकाला था. उन्होंने हमें बताया, 'बचपन में मैं राज कपूर जैसी टोपी पहना करता था जो उन्होंने 'आवारा' फ़िल्म में पहनी थी. उन्होंने राज कपूर पर लिखी किताब पर अग्रेज़ी में लिखा था, 'आई वाज़ इन लव विद राज कपूर एंड आई रिमेंबर हिम ईविन टुडे.''
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