नज़रियाः क्या रुहानी के दौरे से क़रीब आएंगे भारत-ईरान?
कितनी गाढ़ी है भारत-ईरान की दोस्ती और कहां फंसे हैं पेंच, एक नज़र रुहानी की भारत यात्रा के बहाने.
ईरान के राष्ट्रपति हसन रुहानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आमंत्रण पर 15 फरवरी को भारत पहुंच रहे हैं.
भारतीय विदेश मंत्रालय का कहना है कि ईरान के राष्ट्रपति की भारत यात्रा के दौरान दोनों देश क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर विचारों का आदान-प्रदान करेंगे.
ईरान के राष्ट्रपति हसन रुहानी की इस यात्रा का क्या महत्व है, वो कौन सा मुद्दा है जो भारत-ईरान को क़रीब लाता है और वो कौन सा मुद्दा है जिस पर दोनों की सहमति नहीं है, जानने के लिए बीबीसी संवाददाता संदीप सोनी ने वरिष्ठ पत्रकार और द सिटिजन की एडिटर इन चीफ़ सीमा मुस्तफ़ा से बात की.
पढ़िए सीमा मुस्तफ़ा का नज़रियाः
ईरान के राष्ट्रपति के इस दौरे में चाबहार बंदरगाह, भारत और ईरान के बीच तेल व्यापार सहित कई दूसरे आर्थिक मुद्दों पर बात होने की उम्मीद है. ईरान भारत को तेल सप्लाई करने वाला तीसरा सबसे बड़ा देश है.
इसके अलावा रणनीतिक परिदृश्य से देखें तो भारत और ईरान अफ़ग़ानिस्तान में सहयोगी भूमिका थे, लेकिन अब अमरीका ने ईरान के ख़िलाफ़ रुख़ अपनाया है तो ऐसे में भारत को अपने क़दमों पर भी विचार करना पड़ रहा है.
साथ ही भारत का रुख़ फ़लस्तीन और इसराइल को लेकर ईरान से अलग रहा है वहीं सऊदी अरब में भारत अमरीका के क़दम के साथ दिखता है.
ऐसे में अगर विदेश कूटनीति को देखें तो दोनों देशों के बीच बहुत से सवाल मौजूद हैं, इसलिए फ़िलहाल तो इस दौरे से ऐसा नहीं लगता कि कोई बड़ा रणनीतिक क़दम उठाया जाएगा.
किसे किसकी ज़्यादाज़रूरत
मनमोहन सिंह के कार्यकाल के दौरान एक समय भारत और ईरान के रिश्ते काफ़ी नाज़ुक मोड़ पर आ गए थे, उस समय ईरान को भारत की बहुत ज़रूरत थी.
लेकिन अब मध्यपूर्व के जो समीकरण हैं उसमें ईरान भारत पर बहुत अधिक निर्भर नहीं है. इसलिए यह देखना होगा कि भारत को तेल के अलावा ईरान की कितनी अधिक ज़रूरत है.
फिलहाल तो पिछले एक साल से भारत की विदेश नीति अमरीका केंद्रित हो गई है, ऐसे में ईरान की भूमिका अभी तक साफ नहीं है.
क्या ईरान के प्रति भारत की ठोस विदेश नीति रही है
1970 से 1980 के दशक के दौरान भारत और ईरान के बीच अच्छी ठोस विदेश नीति थी. ईरान ऐसा देश रहा जो कश्मीर पर कभी ज़्यादा नहीं बोलता था.
यहां तक कि जब इस्लामिक राष्ट्र कश्मीर के लिए कोई प्रस्ताव पारित करते थे तब भी ईरान का रुख़ भारत समर्थित ही रहता था.
उसके बाद मनमोहन सिंह की सरकार के दौरान भारत अमरीका के करीब आने लगा और ईरान से भारत की दूरी बनने लगी.
अभी तो दोनों देशों की तरफ उनकी स्थिति तय ही नहीं है, कोई नहीं कह सकता कि ईरान भारत का दोस्त है या सहयोगी है.
ईरान के रिश्ते ट्रंप प्रशासन के साथ अच्छे नहीं हैं ऐसे में यह भी समझा जा सकता है शायद ईरान भारत के भी उतना करीब नहीं रहा.
दोनों देशों ने पिछले 10 सालों में एक दूसरे को बहुत तरह से समझने की कोशिश की. लेकिन कई ऐसे मुद्दे हैं जहां दोनों देश अपने -अपने रुख़ पर अड़े हुए हैं.
ऐसे में देखें तो भारत को लेकर ईरान की विदेश नीति में बहुत फर्क़ आया है. मध्यपूर्व में सीरिया और अन्य देशों के साथ अपने स्वतंत्र रिश्तों को मज़बूत कर ईरान ने ख़ुद को पुख़्ता किया है.
किस मुद्दे पर दोनों देश एक साथ हैं
भारत का ईरान से तेल की सप्लाई का ही रिश्ता है. क्योंकि वह भारत को सस्ता तेल मुहैया करवाता था, वही ईरान को भारत के रूप में एक लोकतांत्रिक देश के समर्थन की ज़रूरत है इस वजह से वह भारत के करीब रहना चाहता है. साथ ही अफ़ग़ानिस्तान एक मुद्दा है जहां दोनों देश एक होना चाहते हैं.
अगर दोनों देशों के अलग-अलग मत वाले मुद्दे की बात करें तो फ़लस्तीन के मुद्दे पर दोनों देश एक नहीं हो पाते. भारत के लिए इसराइल ज़्यादा महत्वपूर्ण है जबकि ईरान के लिए फ़लस्तीन अहम स्थान रखता है.