नज़रिया: समाधान की घोषणा के बाद भी क्यों ठगा जाता है किसान?
महाराष्ट्र में तकरीबन एक हफ्ते तक चला किसान आंदोलन सोमवार को खत्म हो गया. महाराष्ट्र सरकार और आंदोलनकारियों के बीच 'किसानों की माँगों' को लेकर समझौता हो गया है.
किसानों ने 12 मार्च को विधानसभा का घेराव करने की घोषणा की थी. हजारों की संख्या में किसान मुंबई में इकट्ठा हुए थे.
महाराष्ट्र में तकरीबन एक हफ्ते तक चला किसान आंदोलन सोमवार को खत्म हो गया. महाराष्ट्र सरकार और आंदोलनकारियों के बीच 'किसानों की माँगों' को लेकर समझौता हो गया है.
किसानों ने 12 मार्च को विधानसभा का घेराव करने की घोषणा की थी. हजारों की संख्या में किसान मुंबई में इकट्ठा हुए थे.
लेकिन, इससे पहले सोमावार को मुंबई के विधानभवन में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फ़डणवीस की अध्यक्षता में महाराष्ट्र सरकार और किसानों के प्रतिनिधिमंडल के बीच एक बैठक हुई.
इस बैठक के बाद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फ़डणवीस ने कहा, "हमने किसानों की सभी माँगें मान ली हैं और उन्हें भरोसा दिलाने के लिए एक लिखित पत्र भी जारी किया है."
लेकिन, ऐसा पहली बार नहीं है जब किसानों ने आंदोलन किया हो और सरकार ने उनसे कुछ वादे किये हों. फिर भी समय-समय पर अलग-अलग राज्यों के किसान अपनी समस्याएं उठाते रहते हैं. कुछ समय पहले ही दिल्ली में तमिलनाडु के किसानों ने विरोध प्रदर्शन किया था.
ऐसे में महाराष्ट्र सरकार से हुई बातचीत से क्या किसानों की समस्याओं को वाकई कोई समाधान निकलेगा, इस संबंध में बीबीसी संवाददाता रजनीश कुमार ने पूर्व कृषि राज्य मंत्री सोमपाल शास्त्री से बात की. उन्होंने क्या कहा पढ़िए.
किसान आंदोलन: चलते-चलते पत्थर हुए पैर
खत्म हुआ आंदोलन?
अभी तक जितने भी आंदोलन हुए हैं वो सामयिक मुद्दे को लेकर होते हैं और उस मुद्दे का आधा—अधूरा हल लेकर समाप्त हो जाते हैं. कभी गन्ने के भुगतान को लेकर, कभी न्यूनतम समर्थन मूल्य न मिलने को लेकर विरोध होता है और सरकार उसमें थोड़ी बहुत उसमें राहत दे देती है.
जैसे चुनाव या आंदोलन के समय कुछ कर्ज़ माफ़ी दे दी जाती है. लेकिन, किसान की समस्या का समग्र और स्थायी हल कोई सरकार नहीं ढूंढती है. बस तात्कालिक गुस्से को ठंडा करने के लिए आधे—अधूरे उपाय और राहतें दे दी जाती हैं.
ऐसा ही इस आंदोलन में भी हुआ होगा. यह बात सिर्फ़ महाराष्ट्र के किसानों की नहीं है, बल्कि पूरे देश के किसानों की समस्या है. सारी सरकारों का प्रयास अधूरे उपाय करने का होता है. सरकारी योजनाएं भी इसका समग्र समाधान नहीं होतीं. उन्हें शब्द जाल में उलझा दिया जाता है.
वर्तमान सत्ताधारी दल ने साल 2014 के चुनाव में दो बहुत बड़ी घोषणाएं की थीं. पहली स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश को लागू करने की जो खेती की लागत पर 50 प्रतिशत जोड़कर समर्थन मूल्य देने की बात कहती है. दूसरी घोषणा किसानों की आय 2022 तक दोगुनी करने की.
दोनों में से कोई भी घोषणा न पूरी की गई और न कोई रोडमैप प्रस्तुत किया गया और न ही आवश्यक संसाधनों का आवंटन किया गया. न ही कोई मूल्य व विपणन नीति और दूसरी नीतियों में कोई सकारात्मक परिवर्तन किया गया. यह मसले उठते रहते हैं और दबते रहते हैं. इसलिए यह क्षेत्रीय समस्या का आधा-अधूरा समाधान है.
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जातियों में बंट जाते हैं किसान?
किसी भी समस्या को लेकर हमारे देश में आर्थिक और मौलिक मुद्दों पर वोट देने की आदत नहीं है. ये समस्या सिर्फ़ किसान के साथ नहीं हर किसी के साथ है. इसका सबसे पहला फ़ायदा तात्कालिक और लुभावनी घोषणाएं करने वाले राजनेताओं को होता है और फिर पांच साल बाद मतदाता ठगा हुआ महसूस करता है.
उसे समझ नहीं आता कि उन्हें भावनात्मक और भड़काऊ मुद्दों के आधार पर जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा आदि पर बांटकर वोट ले लिया जाता है. आधारभूत मुद्दों को पीछे कर दिया जाता है.
जब तक मतदाता जिनमें किसान भी आता है, मुद्दों पर चिंतन करके उनके आधार पर वोट डालने का अभ्यास नहीं करेंगे तब तक ठगे जाते रहेंगे.
क्या मोदी सरकार भी किसानों को छल रही है?
किसान संगठनों से क्या फ़ायदा?
आज के समय में किसान संगठनों की कोई प्रासंगिकता नहीं बची है. एक किसान संगठन जिससे सहयोग लेकर कोई राजनीतिक दल सत्ता में आता है और फिर वही संगठन किसान को लेकर आंदोलन कराता है. इसका क्या मतलब है.
ये मैंने मध्य प्रदेश में भी देखा. भारतीय किसान संघ उस समय भोपाल हवाई अड्डे के लिए अधिग्रहित की गई जमीन के मूल्यों को लेकर आंदोलन कर रहा था.
तब मैं योजना आयोग का उपाध्यक्ष था. उस समय भारतीय किसान संघ मेरे पास आया कि हम आंदोलन कर रहे हैं. तब मैंने पूछा कि मुख्यमंत्री, मंत्रिमंडल, सरकार सब आपके हैं फिर आप किसके ख़िलाफ आंदोलन कर रहे हैं. किसानों को क्यों गुमराह कर रहे हैं?
ये लोग ढोंग और दिखावा करते हैं और उसके जरिए लोकसभा, विधानसभा की सीट या कोई और फ़ायदा पा लेते हैं.
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