नज़रियाः आखिर अयोध्या मसले का हल क्या हो?
बाबरी मस्जिद विवाद का हल क्या हो, बीबीसी ने यही जानना चाहा बुद्धिजीवियों से.
छह दिसंबर 1992 को अयोध्या में कार सेवकों ने बाबरी मस्जिद गिरा दी थी. बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के 25 बरस पूरे हो गए हैं.
और इतना लंबा समय गुजर जाने के बाद भी ये एक ऐसा मुद्दा रहा है जो वक़्त-बेवक़्त भारतीय राजनीति को गरमाता रहा है.
इस पूरे मसले पर बीबीसी ने कुछ बुद्धिजीवियों से पूछा. पढ़ें उनकी राय उनके ही शब्दों में.
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सईदा हमीद, योजना आयोग की पूर्व सदस्य
बाबरी मस्जिद विध्वंस के 25 साल पूरे हो गए हैं. हालांकि ये विवाद उससे काफ़ी पहले से चला आ रहा है. इस एक मुद्दे के जरिए आज़ादी के बाद जितना सामाजिक तौर पर नुकसान हुआ है, उतना शायद किसी और मुद्दे से नहीं हुआ. अगर शुरुआती दौर में ही इस मुद्दे को हल कर लिया जाता तो आज इतना मुश्किल नहीं होती.
दोनों पक्षों द्वारा किसी भी संभव नतीजे तक नहीं पहुंच सकने की वजह से मामला कोर्ट में गया और वहां अभी विचाराधीन है. फिर भी सिविल सोसाइटी के द्वारा कोर्ट के बाहर भी मुद्दे के समाधान की कोशिश जारी है.
अब सवाल उठता है कि ये मुद्दा, जिसको दोनों पक्षों ने अपने अहम का मुद्दा बना लिया है, बल्कि ये कहें कि शातीराना तरीक़े से बना दिया गया है. इसका हल क्या हो? मेरी समझ से उस विवादित स्थल पर एक ऐसा केंद्र स्थापित किया जाए जो सर्वधर्म समभाव के भारतीयता के मूल भावना का प्रतिनिधित्व करे. जो हमारी गंगा जमुनी तहजीब का मरकज हो.
ताकि हमारी आने वाली नस्लें जब इतिहास के पन्ने पलटे तो वो ये समझ सकें कि जिस एक मुद्दे को हमने इतना व्यापक और पेंचीदा बना दिया था आखिर हमने उसका समाधान भी ढूंढ लिया. जो आने वाली नस्लों के लिए भी एक सबक हो.
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बाबरी मस्जिद और राम मंदिर की सारी लड़ाई धर्म या मज़हब के नाम पर लड़ी जा रही है. तो उसी का सहारा ले कर मैं यह सुझाव देना चाहती हूँ कि सरकार को धर्म के नाम पर विवादित ज़मीन पर बच्चों के लिए एक एस ओ एस विलेज बना देना चाहिए.
ऐसा एक गाँव दिल्ली में है और वहाँ अनाथ बच्चों का लालन पालन ठीक उसी तरह होता है, जैसे हर मज़हब को मानने वाले असली माँ बाप करते हैं.
इस पर दोनों धर्मों के तथाकथित संरक्षकों को राज़ी करना आसान होना चाहिए. उस विलेज में हर मज़हब, जाति और धर्म के अनाथ बच्चे, माँ बाप का प्यार पा कर बड़े होंगे. इससे बड़ा धार्मिक कर्मकाण्ड या पाक़ीज़ा तरीका और क्या हो सकता है?
मज़हब चाहे हिन्दू हो या मुस्लिम, दोनों में बच्चों का वही स्थान है और उनसे प्यार या वात्सल्य का भी. इस कानून को उत्तर प्रदेश की विधान सभा पारित कर सकती है या वह राज्यपाल अथवा राष्ट्रपति के अध्यादेश द्वारा लागू किया जा सकता है.
इसमें सबका फ़ायदा है. यह सबकी रूह को सुकून दिलवाने वाला होगा. बस राजनीतिक इरादा मज़बूत होना चाहिए कि इस विवाद का अन्त करना है.
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वर्तमान धार्मिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक ताक़तें अयोध्या मसले पर एक व्यवहारिक समाधान की अनुमति नहीं दे सकतीं. सभी संप्रदाय के अधिकांश जागरूक नागरिक एक समाधान के लिए समहत हो सकते हैं, लेकिन संभवतः बाहरी तत्वों के पास इस पर आखिरी शब्द और इसे बाधित और अस्वीकार करने की ताक़त हो सकती है.
क़ानूनी समस्या- 40 से अधिक याचिकाकर्ताओं को उनके निजी एजेंडे के साथ एक समाधान पर सहमत होना होगा, कोई असंतुष्ट नहीं होना चाहिए. इसकी संभावना कठिन है. मूल बात यह है कि अयोध्या के राम हिंदुओं की जीवित अवधारणा है, 3000 साल पुरानी एक अमिट परंपरा.
तुर्कों के आक्रमण में हज़ारों मंदिरों की तबाही और मुगल काल की अनदेखी करते हुए, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष भारत में मुस्लिम भावना को लगे झटके को औपचारिक रूप से स्वीकार किया जाना चाहिए.
भारतीय पुरातत्व विभाग (एएसआई) ने इस स्थान पर एक हज़ार साल से भी पुराने वैष्णव मंदिर की बात प्रमाणित की, जिस पर 500 साल पहले गुंबज बनाया गया था. अयोध्या में मंदिर अपने मूल जगह पर ही बनना चाहिए. यह किसी भी सहमत समाधान के मूल तत्व हैं.
यहां तक कि इस मुद्दे को सुलझाने के लिए अदालत के आदेश के बावजूद, प्रशासन को इसे लागू करना लगभग असंभव हो सकता है. क्या हमें अगले 50 साल और इंतजार करने होंगे? हम आशावादी हैं. चमत्कार हो सकता है.
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इतिहास बताता है कि वर्तमान भारतीय महाद्वीप में बनी पहली मूर्ति बुद्ध की प्रतिमा है. भारतीय इतिहास में यह भी लिखा है कि बौद्ध इलाकों में शिक्षा को अधिक महत्व दिया गया. इसी उद्देश्य से विभिन्न मठों और विश्वविद्यालयों का निर्माण किया गया.
अशोक के समय में, विहार, मठ और शिक्षा के अन्य स्थलों का निर्माण किया गया, जिसके प्रमाण उपलब्ध हैं. हिंदू धर्म में वैदिक धर्म के साथ ही सनातन का शिक्षण भी शामिल है. सनातन संप्रदाय में भी कई विचारधारा हैं. एक भगवान को मानता है तो दूसरा सौंदर्य सिद्धांत को. सौंदर्य शास्त्र ने अपने धर्म को एक नाम दिया है.
वैदिक संप्रदाय ने विभिन्न भगवानों की छवियों का कब निर्माण किया था यह इतिहास में दर्ज नहीं है. लेकिन, वैदिक धर्म और बौद्ध धर्म के बीच संघर्ष का इतिहास दर्ज है. इतिहास ने अब तक हमें नहीं बताया है कि बौद्ध विश्वविद्यालयों और मठों और विहारों को कब और किसने नष्ट किया या उनके साथ क्या हुआ.
बाबरी मस्जिद की लड़ाई भी वैदिक हिंदूओं ने यह कहते हुए शुरू की थी कि बाबरी मस्जिद ठीक उसी जगह पर है जहां राम पैदा हुये थे. यह आध्यात्मिक या धार्मिक मुद्दा नहीं बल्कि एक राजनीतिक मुद्दा है. परशुराम ने कई बार पूरी क्षत्रिय जाति का समूल नाश कर दिया था.
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परशुराम ब्राह्मणों के सम्मानित भगवान हैं और राम को क्षत्रिय माना जाता है. मनु की वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण क्षत्रिय के सामने नहीं झुकते. आरएसएस में ब्राह्मण की संगठन का प्रमुख होता है लेकिन वो राम के अनुयायी नहीं हो सकते हैं.
आरएसएस का मुख्य लक्ष्य बाबरी मस्जिद के मसले को गरमाये रखना है, क्योंकि वो हिंदू साधुओं और सूफ़ी मुस्लिमों के बीच समझौता नहीं होने देना चाहते. अगर यह समझौता हो गया तो यह ब्राह्मणों के लिए ख़तरा होगा, और अंततः आरएसएस के पतन का कारण भी.
यही कारण है कि आरएसएस महान इतिहासकार और दार्शनिक राहुल सांकृत्यायन को नज़रअंदाज करता है, जिन्होंने कहा था कि अयोध्या एक बौद्ध शिक्षा विहार था जिसे सांकेत के रूप में जाना जाता था. प्रश्न तो विहारों और अन्य बौद्ध स्मारकों के नष्ट किये जाने का है.
आज़ादी के समय हमने एक दूसरे को आश्वासन दिया था कि हम एक दूसरे का और उनके धार्मिक विश्वास और धार्मिक स्थलों का सम्मान करेंगे. अदालत इन मुद्दों को तय नहीं कर सकती हैं और उसे ऐसे मुद्दे पर फ़ैसले देने से परहेज़ करना चाहिए.
अगर हमें एक तर्कसंगत समाधान पर पहुंचना है तो यह संभव नहीं है. सबसे बेहतर तो यह है कि वहां एक अस्पताल बने जिसे एकता का नाम दिया जाये.
आरिफ़ मोहम्मद खान, राजनेता और स्तंभकार
अयोध्या विवाद और उसके हल पर अलग-अलग बातें नहीं की जा सकती हैं. साल 1986 में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने शाह बानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को पलटने के लिए एक उग्र मुहिम की अगुवाई की थी. सरकार ने मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की मांगें मान ली और इसकी घोषणा 15 जनवरी, 1986 को कर दी.
इससे सरकार की साख को गहरा धक्का लगा और वो मजबूरन किसी ऐसी चीज़ की तलाश में करने लगी जिससे लोगों का ध्यान इससे हटाया जा सके और ऐसे हालात में अयोध्या उनकी झोली में आ गिरा. राजीव गांधी ने एक फरवरी, 1986 को विवादित स्थल का ताला खुलवाया.
इसके ठीक पांच दिन बाद संसद का सत्र शुरू होने वाला था और जिसमें माना जा रहा था कि संसद उस विषय पर क़ानून पारित करती जिसे पर्सनल लॉ बोर्ड 'मजहबी पहचान' बताती थी. छह फरवरी, 1986 को मैंने प्रधानमंत्री राजीव गांधी से मिलकर इस पर चिंता जाहिर की.
उन्होंने भरोसा दिलाया कि मुस्लिम नेता ताला खोले जाने का विरोध नहीं करेंगे क्योंकि इसके बारे में उन्हें पहले ही बताया जा चुका है. ये सरकार और पर्सनल लॉ बोर्ड के बीच एक सौदा था.
चार फरवरी, 1986 को क़ौमी आवाज़ नाम के एक अख़बार में छपे मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के तत्कालीन चेयरमैन मौलाना अली मियां के बयान से इसकी तस्दीक होती थी. मौलाना अली मियां ने ये कहकर इस मुद्दे को हलका करने की कोशिश की थी कि देश में कई ऐसी मस्जिदें हैं जो दूसरे लोगों के कब्ज़े में हैं.
बाद में उन्होंने अपनी आत्मकथा (वॉल्यूम 4, पेज नंबर 130) में हिंदुओं को फिर से जगाने और मुसलमानों को सामूहिक आत्महत्या की ओर ले जाने के लिए बाबरी मस्जिद ऐक्शन कमिटी के नेताओं की आलोचना की.
अगर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड मस्जिद की एवज में मुस्लिम समुदाय की पहचान को संरक्षित करने वाले क़ानून पर राजी हो जाता तो इस समस्या के हल की राह में ये एक ईमानदार स्वीकारोक्ति होती.